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5/5/09

सुअर सकते में, मुर्गे मस्त!


मुर्गे मस्त हैं. बटेर, बत्तख, टर्की और पूरे पक्षी समाज में हर्ष की लहर है. मुर्गा एसोसिएशन ने डिस्काउंट ऑफर तक दे दिया है. मुर्गों ने मुर्गियों से और ज्यादा अंडे प्रोड्यूस करने का अपील की है. दो अंडे के साथ एक अंडा फ्री देने का भी प्रस्ताव है. मुर्गे खुश हैं कि इस बार बर्ड फ्लू के कारण बेमतलब मुर्गा संहार नहीं होगा. लेकिन सुअर समाज सकते में है. साउथ ईस्ट एशिया में रेड एलर्ट जारी कर दिया गया है. ठंडे देश के स्वाइन से मेलजोल कम रखने की सलाह दी गई है. पूरी दुनिया इस समय अल कायदा और तालिबान से उतनी दहशत में नहीं है जितनी स्वाइन फ्लू से. बर्ड फ्लू तो पुरानी बात हो गई, लोग अब इससे चिंतित नहीं होते. हां मुर्गे-मुर्गियां जरूर टेंशन में आ जाते थे. मुर्गे की जान जाती और लोगों को खाने में मजा भी नहीं आता. लेकिन 1918 के बाद अब आया है नया फ्लू. मामला स्वाइन फ्लू का है. कुछ लोगों को नहीं पता था कि यह स्वाइन क्या बला है. उन्हें लगता था कि यह स्वाइन कोई बहुत डरावना जीव होता होगा लेकिन जब पता चला कि गली - मोहल्ले में टहलने वाले सुअर को ही स्वाइन कहते हैं तो टेंशन थोड़ा कम हुआ. लेकिन स्वाइन शब्द से सुअरों को कम, कुछ पशु प्रेमियों को ऑब्जेक्शन ज्यादा है. सो सुअर फ्लू की जगह एच1एन1 वायरस ही चलेगा. डब्लूएचओ ने स्वाइन लू को लेकर लेवल-5 के खतरे का साइरन बजा दिया है. इसके बाद तो महामारी का ही ऐलान होगा. जहां तक इंडियन स्वाइन की बात है वे सकते में हैं. स्वाइन समाज ने लोगों से सलामी और सॉसेजेज से परहेज करने की अपील की है. स्वाइन फैमिलीज ने गर्मियों में हिल स्टेशन जाने का इरादा टाल दिया है. बताया गया है कि ठंडे क्षेत्र में एच1एन1 वायरस आसानी से फैलता है. हांलाकि अभी तक कहीं से स्वाइन समाज के सामूहिक संहार की खबर नही आई है. लेकिन अगर स्थिति काबू में नहीं आई तो बड़ी संख्या में सुअरों को भी शहीद होना पड़ सकता है. इंडियन सुअर यूनियन यूरोपीय, मैक्सिकन और अमेरिकी सुअर भइयों के लिए प्रार्थना सभाएं आयोजित कर रही है क्योंकि उनकी सुरक्षा में ही इनकी सुरक्षा है. जान है तो जहान है.

4/30/09

लू का संगीत


लू में है लय, लू में है संगीत, लू में है एक अजीब सी रूमानियत. लू में खिलते हैं चटख गुलमोहर और अमलताश. जब छोटा था तो लू पूरे महीने चला करती थी. अब मुश्किल से 15 दिन भी नहीं चलती. पहले गर्मी की छ़ुट्टियों का मतलब होता महीने भर लू में मस्ती. लू भरी दोपहरी हमेशा से लुभाती थी. लू में बर्फ के गोले, कुल्फी और नारंगी आइस्क्रीम वाले की आवाज कोयल की कूक सी लगा करती थी. जब लू चले तो हम चलते थे सुनसान दोपहरी में किसी की बगिया से अमिया तोडऩे. क्या एक्साइटमेंट और थ्रिल था. नमक के साथ टिकोरा (अमिया, केरियां) खाने में जो मजा था वो दशहरी, लंगड़ा और मलदहिया में भी नही मिलता. लू कभी कभी लप्पड़ भी मारती थी. सीजन में कए दो-बार लू जरूर लगा करती थी. डाट पड़ती थी कि बहेल्ला (आवारा ) की तरह दोपहर भर घूमता रहता है लू तो लगेगी ही. फिर उपचार के लिए आम का पना मिलता था. उसके आगे दुनिया की हर कोल्ड ड्रिंक फेल. इसके बाद दो-तीन दिन में सब सामान्य. फिर निकल पड़ते थे लू में. बड़े कहा करते थे कि लू की दुपहरिया में सुनसान बगिया में न जाया करो चुड़ैल या प्रेत भी होते हैं वहां. उसके कई किस्से सुनाए जाते थे कि फलनवां को गूलर के पेड़ पर झूलती मिली थी चुड़ैल. मुझे आजतक न पे्रत मिले न चुड़ैल. नाम के आगे ओझा जुड़ा है शायद इस लिए. हॉस्टल में था तो भी लू रोमांटिक फिल्म का सीन लगा करती थी. ऊपरी मंजिल पर टेन बाई टेन का कमरा खूब तपा करता था. मेरा रूम पार्टनर चाय बनाकर कहा करता था- इसे पीयो लू नहीं लगेगी. लू और भी कई कारणों से अच्छी लगती है. लू में मच्छर कम हो जाते हैं, लू में पसीना नहीं होता, घमौरियां नहीं होती, राते ठंडी होती हैं. लू में मटके के पानी की सोंधी महक अमृत का एहसास कराती है. लू में खरबूजा और तरबूज बहुत मीठा होता है. लू में कोहड़े (कद्दू) की सब्जी, कच्चे आम और पुदीने के चटनी के आगे सब आइटम पानी भरते हैं. पर अब न जाने क्यूं लू कम चला करती है. अब सड़ी गर्मी ज्यादा पड़ा करती है. सुना है लू रूठ कर चली गई है राजस्थान की ओर. लेकिन यदा कदा अब भी कुछ दिनों के लिए आती है. बीते दिनों की याद दिलाती है

4/24/09

ऐज़ डेडली ऐज़ ड्रोन




डंडा, लकड़ी, बांस, बत्ती, अंगुली और मिर्ची, इनका प्रयोग अचानक बढ़ क्यों गया है. हरकोई डंडा, बांस, लकड़ी और मिर्ची लिए घूम रहा है और जरा सी बात पर उसके सदुपयोग पर उतारू हो जाता. कोई डंडा कर रहा है, कोई बांस और किसी को तो लकड़ी करने में ही आनंद आ जाता है. और तो और लोग बात-बात में उंगली करते फिरते हैं. आम आदमी के पास आजकल ये कुछ ऐसे हथियार आ गए हैं जिनका निशाना ड्रोन की तरह अचूक है. एक बार छोड़ दिए गए तो निशाने पर लगते जरूर हैं. जैसे आजकल सबसे निरीह क्षेत्र स्वात वैली है, जिसको देखो वही घुसा जाता है. उसी तरह लोग डंडा, लकड़ी, बांस को शरीर के सबसे निरीह क्षेत्र पर टारगेट किए रहते हैं. फर्क बस इतना है कि स्टील्थ बॉम्बर की तरह यह दिखाई नहीं देता, बस इसका असर महसूस किया जा सकता है. यदाकदा निशाना चूक भी जाता हैं और डंडा करने वाले को जवाब मिलता है 'बत्ती बना लो'. इसका असर लैंड माइन्स की तरह होता है और 'बत्ती' इग्नाइट हो गई तो इम्पैक्ट झेलना ही होता है. इसी तरह मिरची भी मुझे अचानक बहुत खूबसूरत लगने लगी है. पहले सिर्फ खाने में प्रयोग होता था अब गाने और लगाने में भी होता है. इस नाम के एफएम चैनल भी है. आप भले ही मिर्ची ना खाते हो लेकिन मिर्ची लगती जरूर है न लगे तो लोग कह कर लगवा देते हैं और इसका रंग लाल होता है. लाल मिर्ची भी इतने किस्म की होती है यह अब पता चला. पहले कश्मीरी लाल मिर्च और पहाड़ी मिर्च ही सुनी थी, अब देग्गी मिर्च और तीखा लाल भी मैदान में है. इन मिर्चों का खरीदने की जरूरत नहीं है. आपकी जुबान ही काफी है. आप कह भर दीजिए कि मिर्ची क्यों लग रही है? बस दूसरे पर असर तय है. नहीं लग रही हो तो भी लग जाएगी. निश्चिंत रहिए. मेरे पास इस समय ना तो बांस है ना लकड़ी और ना ही मिर्ची. मैं तो बस यूं ही लोगों की बात कर रहा था. वैसे एक राज की बात बताऊं वैसे कोई बांस या लकड़ी का प्रयोग करे तो आप 'बत्ती' वाला अस्त्र चला दीजिए, बिल्कुल 'पैट्रियाट' मिसाइल की तरह हमलावर की मिसाइल पर असर करेगा.

4/23/09

बुरे फंसे दूल्हे राजा


चुनाव में बुरे फंसे दूल्हे राजा। ना कार ना बाजा। खबरें तो कुछ ऐसी ही आ रही हैं. चुनाव वाले जहां कार देख रहे हैं, झट से छीन कर चुनाव ड्यूटी में लगा दे रहे हैं. और अक्षय तृतीया के चलते बैंड बाजे वालों की एक एक दिन में तीन-तीन पारियां बुक हैं. बड़ी मारा मारी है. पॉलिटिकल कैंडीडेट के चक्कर में शादी के कैंडीहडेट्स की वॉट लगी जा रही है. साइत ना निकले इस लिए कुछ तो करना ही है. सो कुछ ने नगाड़ा और पिपिहरी वाले कड़कड़उआ बाजा पार्टी बुक करा ली है. इस क्राइसिस में मुझे एक रेस्क्यू ऑपरेशन याद आ रहा है. मेरे घर नई स्कूटर लैंब्रेटा आई थी. मेरे गांव उपरौड़ा में कजिऩ की शादी थी. मेरा गांव इलाहाबाद से 35 किलोमीटर ही दूर था. बस दाब दी लैंब्रेटा. बराती तैयार, बाजा वाला तैयार लेकिन टैक्सी वाला गच्चा दे गया. समय निकला जा रहा था. दूसरी कार का प्रबंध नहीं हो पा रहा था. किसी ने कहा टेम्पो करो. लेकिन उसमें टाइम लगता सो लोगों की नजर मेरे नए स्कूटर पर पड़ी. तय हुआ दूल्हा इसी पर जाएगा. फिर क्या था मौर (मुकुट) और जोरा-जामा (पादरियों के गाउन की तरह लगने वाला वस्त्र) पहने दूल्हे राजा पिछली सीट पर विराज गए. झोरा-झामा के कारण दूल्हा लड़कियों की तरह एक ही तरफ पैर कर के बैठा था. आगे-आगे कड़कड़उआ बैंड उसके पीछे मेरी मंद गति से रेंगती स्कूटर पर सवार दूल्हे राजा. क्या नजारा था. पट्टीदार इस जुगाड़ से थोड़ा चिढ़े हुïए थे लेकिन उस समय गर्व से मेरा सीना चौड़ा हुआ जा रहा था. अब होता तो ये गाना याद आता...बाराती गारी देवैं, देवरजी स्कूटर खेवैं ससुराल गेंदा फूल...ओए होएं॥ होएं॥ओए होएं..होएं..

3/26/09

स्लम डॉग ओसामा




पूरी दुनिया के लिए लादेन भले ही खतरा हो लेकिन मीडिया के लिए बड़े काम का है. टॉप रैंकिंग चैनल्स के पास जब कुछ नहीं होता तो उन्हें लादेन याद आता है. वही बलूचिस्तान की गुफाओं और अफगानिस्तान की पहाडिय़ों में लकड़ी लिए घूमता लादेन, ओबामा और कियानी को बीच बीच में लकड़ी करता लादेन. असली स्लम डॉग मिलिनेयर तो ओसामा बिन लादेन है. अरबपति होते हुए भी कुकुरों की तरह खोह में लुका हुआ है. वह रात में कभी कभी लुक्कारी खेलता है जैसा कि मेरे गांव उपरौड़ा और ससुराल शुकुलपुर में रात में भूत लोग आग से लुक्कारी खेलते हैं. चैनल वाले तो रोज ही रात को ओसामा को लेकर लुक्कारी खेलते हैं. वैसे ओसामा मीडिया फ्रेंडली है. कुछ भी दिखाओ बुरा नहीं मानता. बीच बीच में ई-मेल भेजता रहता है और कभी-कभी बाइट के साथ वीडियो फुटेज भी. उसे लेकर चैनल्स में सिर फुटौवल होती है कि सबसे पहले मेल उसे भेजा. सुना है इंडिया टीवी के रजत शर्मा के पास ओसामा का लेटेस्ट मेल आया है. रजत जी ने ओसामा के कहने पर अपना हेयर स्टाइल थोड़ा बदला है और रजत जी के कहने पर ओसामा ने अपनी लाइफ स्टाइल बदली है
मुझे लगता है लादेन किसी दिन रजत शर्मा की आपकी आदलत में बैठा मिलेगा और अदालत के जज होंगे नरेंद्र मोदी. वैसे लादेनवा मीडिया वालों के लिए बड़े काम की चीज है. जब कोई खबर न हो तेा चला दो लादेन को. कुछ भी दिखाओ बुरा नहीं मानता. ना ही कोई कंट्राडिक्शन भेजता है. सुना है लादेन ने अब रामदेव के योगा शिविर में ज्वाइन किया है. बाबा उसे गुफा में कपाल भाती और मुल्ला उमर को अनुलोम विलोम सिखा रहे हैं

3/24/09

जैसा बोया वैसा काटा

जैसा बोया वैसा काटा ये रेशिसन मिसमैनेजमेंट का ही परिणाम है. मंदी हमारी ही करनी का फल है. यही तो मौका है इनोवेटिव और क्रिएटिव होने का. डिलिवर मोर फॉर लेस.हाल ही में एक सेमिनार में यूपीटीयू के वाइस चांसलर प्रो. प्रेमव्रत ने कुछ ऐसा ही कहा था. करीब एक हजार स्टूडेंट्स की गैदरिंग में प्रो. प्रेमब्रत एक घंटे धाराप्रवाह बोले. पूरे हाल में सन्नाटा फिर जोरदार तालियां. ये न तो किसी नेता का भाषण था ना ही बात बात पर ताली बजाने वाले लम्पट श्रोता. कहा जा रहा है कि हम कठिन दौर से गुजर रहे हैं. आगे का टाइम शायद और टफ हो. लेकिन एक बात तय है इस टफ टाइम से निकल कर अगर कोई चमकेगा तो वो इंडिया ही होगा. ऐसा यंग जेनरेशन को देख कर लगता है. इस समय दुनिया के कई डेवलप्ड कंट्रीज में आधी से ज्यादा आबादी बूढ़े और थक चुके लोगों की है तो दूसरी ओर इंडिया की आधी से ज्यादा पॉपुलेशन यंग है. एंड दिस यंग पापुलेशन इज रेयरिंग टू गो. वो सीख रहे हैं कि आग के दरिया को कैसे पार करना है. इस समय इंडियन यूथ सपने देख रहा है, डरने के लिए नहीं कुछ करने के लिए. समय के साथ उसकी सोच में जबर्दस्त बदलाव आया है. दे आर टाकिंग नो नॉनसेंस, दे मीन बिजनेस. कहा जा रहा है कि इस दौर में अगर आगे बढऩा है तो ज्यादा इनोवेटिव और क्रिएटिव होना होगा, नए आइडियाज पर रिसपांसिबल मैनर में काम करना होगा. टाई लगाए, लैपटॉप लिए अर्बन यूथ हों या बैग लटकाए हाथ में कॉपी लिए गंाव से शहर की ओर भागते यंगस्टर्स, सब की आंखों में सपना है आगे बढऩे का, सब में दिखती है ग$जब की पॉजिटिवटी. अपने इर्दगिर्द इन युवा चेहरों पर नजर डालिए. इन्हें पॉकेटमनी पेरेंट्स से न लेकर खुद अर्न करने की चिंता है. अब यंगस्टर्स लर्निंग विद अर्निंग का तरीका सीख रहे हैं. उन्हें पता है कि परफार्म नहीं किया तो पेरिश होने से कोई बचा नही सकता. उन्हें पता है कि जॉब क्रंच में 'क्रशÓ होने से बचना है तो इंटरप्रन्योरशिप के बारे में सोचना होगा, अपने को सेल करना है तो इनोवेटिव होना होगा, उन्हें पता है कि स्लोडाउन में सूख रही विदेशी धरती पर भटकने से बेहतर है कि अपने देश में रिर्सोसेज के भंडार को एक्सप्लोर कर उस पर अपने महल बनाए जाएं.

3/20/09

बोतल का जिन



मैं दारू नहीं पीता लेकिन ऐसी जमात के बीच काम करता हूं जहां ज्यादातर लोग शराब खूब पीते हैं. पार्टी शार्टी में जब साथी लोग पीकर टल्ली हो जाते हैं तो उनका भूत उतारने और घर तक पहुंचाने का जिम्मा मेरा होता है. कल भी एक पार्टी थी. उसमें कइयों का भूत झाडऩा पड़ा. टल्ली भी अलग अलग किस्म के होते हैं. मेरे एक साथी दारू पीकर बॉस को जरूर गरियाते हैं और नशा उतरने पर उन्हे कुछ नहीं याद रहता. एक साथी पार्टी में पीने के बाद उल्टी जरूर करते हैं. और एक साथी ऐसे हैं जो इतना पी लेते हैं कि अगले दिन आफिस आने की हालते में नहीं रहते. ऐसा भी नहीं कि मैने शराब चखी नहीं है. जब हास्टल में था तो 'लाओ देखें जरा स्टाइल में कभी रम, कभी व्हिस्की, कभी स्काच तो कभी जिन का एक-आध पैग ले लेता था फिर पछताता था. इस लिए नहीं कि कोई पाप किया बल्कि इस लिए कि अगले दिन खोपड़ी जरूर भन्नाती रहती थी. एक बार न्यू इयर ईव पर मुझे थोड़ा जुकाम था. एक मित्र ने जबरन थोड़ी जिन पिला दी. पता नहीं क्या हुआ कि गले 15 दिन तक मैं कफ से जकड़ गया. मेरी सूंघने और सुनने की क्षमता जाती रही. लोग बोलते थे तो मैं कान के पास हाथ ले जाकर आंय-आंय करता था. दोस्तों ने खूब मजा लिया कि अबे ओझवा के कान में जिन घुस गया है. यह जिन एंटीबायटिक लेने से ही भागा. उस दिन से कान पकड़ लिया.

3/8/09

फर्क सिर्फ नजरिए का


आज महिला दिवस है. मीडिया में आज महिलाओं पर ढेर सारी सामग्री है. बातें लगभग एक जैसी कहीं सबला, कही अबला. कहीं अत्याचार तो कहीं आत्म विश्वास की कहानी. मेरी कहानी थोड़ा फर्क है. कहानी है ब्रा या कस्बाई भाषा में बाडी की. कई दिनों से सोच रहा था कि लिखूं या न लिखूं. लेकिन आज एक बड़े इंग्लिश डेली में ब्रा का एक बड़ा सा ऐड देखा जिसमें एक माडल ने इसे पहन रखा है. बस तय कर लिया कि बाडी पर चर्चा हो जाए. पहले साफ कर दूं यह कोई अश्लील बातें नहीं हो रहीं. मैं महिलाओं का बहुत सम्मान करता हूं. ...तो कहानी कुछ यूं है कि एक बाडी कई दिनों से मेरे आफिस जाने के रास्ते में पड़ी है. बिल्कुल मैली-कुचैली. लेकिन देख कर लगता है कि कभी किसी कोठी में रही होगी. फिर पुरानी पड़ गई होगी. इस पर शायद होली भी खेली कई होगी और फिर इससे डस्टर का काम लिया गया और अब यह लावारिस पड़ी है मेरे रास्ते में. सडक़ के किनारे घास में पड़ी इस बाडी पर आफिस जाते समय मेरी नजर पड़ ही जाती है. हिन्दी में अंग वस्त्र या चोली और अंग्रेजी में ब्रेजियर या ब्रा तो समझ में आता है लेकिन इसका नाम बाडी कैसे पड़ा पता नहीं. गांव-कस्बों में यही नाम ज्यादा प्रचलित है. साप्ताहिक हाट मेले में ढेर सारी बाडी टंगी मिल जाएंगी दुकानों में. ब्रा या बाडी हमेशा चर्चा में रहती हैं. कभी महिला मुक्ति के प्रतीक के रूप में तो कभी पुरुष वर्चस्व वाले समाज में सस्ते मनोरंजन के माध्यम के रूप में. सुना है कि नारी अधिकारवादी महिलाएं इसे नहीं पहनती. गांव में तो महलाएं इसे अकसर नहीं पहनतीं? मेरी मामी भी नहीं पहनती थीं. प्राइमरी मेंं था तो एक दोस्त ने रुमाल से ब्रा बनाना सिखा दिया. उत्साह में रुमाल की ब्रा बना कर मैं घर में घूम गया. तुरन्त मुझे दो थप्पड़ मिले. तभी से बाडी के मसले पर काफी सतर्क रहने लगा. ननिहाल में कई मामा-मामी थे. गर्मी की छुट्टियां वहीं बीतती थी. वहां नाना का हुक्म चलता था. उनसे सब बच्चे डरते थे. मैं नहीं डरता था. ननिहाल में दो बातें अटपटी लगती थीं. एक- नाना और बड़े मामा को देख मामियां एक हाथ का घूंघट खींच लेती थी लेकिन ऐसा करते समय अक्सर वे ब्लाउज भी नहीं पहने होती थीं. दो- आंगन के किनारे रसोईं थी. वहां बैठी मामियों के सामने ही मामा लोग लंगोट पहने आंगन में गगरे से नहाते थे. लंगोट ऐसी कि पीछे से मामा लोगों को देख कर पूर्ण नग्नता का आभास होता था. मेरा बाल मन तब इस पर्दे और नग्नता को समझ नहीं पाया था. अब समझ में आता है. अब समझ में आता है कि ब्रा पहन कर ऐड में खड़ी नारी और बिना ब्रा और ब्लाउज के घूंघट काढ़े मामी में फर्क सिर्फ नजरिए का है. आखों में अश्लीलता है तो बाडी बेचारी क्या कर लेगी भले ही यह लोहे के बख्तरबंद की क्यों न हो. फिलहाल समस्या रास्ते में पड़ी बाडी की है. सोचता हूं कि इसे खुद हटा दूं लेकिन किसी ने देख लिया तो किस-किस को सफाई देता फिरूंगा. इसका नाम बाडी कैसे पड़ा, हो सके ता बताइयेगा.

3/5/09

'छोटा मुंह बड़ी बात'

आजकल ग्रैंड फिनाले का दौर चल रहा। बच्चों से लेकर बड़ों तक. कहीं बोर्ड तो कहीं एनुअल एग्जाम्स. सब परफार्म करने में जुटें हैं. बेहतर कॅरियर और फ्यूचर के लिए दे आर बाउंड टू परफार्म. सो उन पर प्रेशर तो रहेगा ही. कहते हैं कि बचपन में प्रेशर नहीं होता है. थोड़ी सी लर्निंग, थोड़ी सी डिस्पिलिन और ढेर सारी मस्ती. लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? बेहतर परफार्म करने के लिए बच्चे भी बड़ों की तरह प्रेशर में हैं. लगातार. ये पे्रशर बड़ों ने यानी पैरेंट्स ने ही डाला है. रियलिटी शोज और सीरियल्स में अचानक बच्चों की फौज कूद पड़ी है. सोचिए बच्चे बड़ों की तरह क्यूं बिहेव कर रहे हैं. किसी बच्ची के दूध के दांत टूटे हुए हैं तो किसी के टूटने के बाद फिर से उगे हैं. इनमें कोई अनारकली बना है तो कोई मेच्योर लेडी की तरह बिहेव कर रहा है. कहीं सामाजिक कुरीतियों से लडऩे के बहाने जीवन की सच्चाई को कुछ ज्यादा ही विस्तार से दिखाया जा रहा है. इसमें किरदार निभा रहे हैं बच्चे. छोटे मुहं बड़ी बात कर रहे हैं बच्चे और उस पर ताली बजा रहे हैं बड़े. बजाएं भी क्यों ना, उनसे काम भी ते बड़े ही करा रहे हैं. अपने लाडलों को चंद दिनों का स्टार बनाने के लिए कहीं उनके सितारों को गर्दिश में तो नहीं डाल रहे हम. बच्चों के जिस डॉयलाग और जिस फरफारमेंस पर लोग मुग्ध होते हैं उसे याद करने और रिहर्सल में कितना प्रेशर पड़ता है पर इसका अंदाज नहीं है लोगों को. कहीं यह चाइल्ड लेबर का 'माइल्ड वर्जनÓ तो नहीं. निसंदेह ये बच्चे टैलेंटेड हैं. रियलिटी शो हों या रियल लाइफ, बच्चों को बच्चे के ही रोल में रहने दें. 'छोटा मुंह बड़ी बातÓ के नए ट्रेंड से कहीं ये बूमिंग टैलेंट बोंसाई ना बन जाएं.

2/22/09

देर से आने के दस बहाने


देर से आने के दस बहाने





सोमवार यानी हफ्ते का पहला वर्किंग डे. बड़े-बड़े कर्मठ और वर्कोहलिक भी इस दिन अलसिया जाते हैं. जो अल्कोहल नहीं लेते वो भी. सुबह मीटिंग में देर से आने के दस बहाने. शुरू में गुस्सा आता था. अब मजा आता है. मैंने वाइफ से शर्त लगाई कि आफिस जाने के ठीक पहले आने वाले पांच फोन या मैसेज में चार देर से आने की सूचना देने वाले होंगे और मैं शर्त जीत गया. वैसे रेग्युलर देर से आने वाला कोई आडेंटिफाइड नहीं है. हर दिन नया शख्स नॉमिनेट होता है. मैंने सोचा एक महीने का रिकार्ड रखें कि सबसे ज्यादा किस वजह से लोग आफिस लेट आते हैं. जानते हैं पहले नंबर पर कौन सा बहाना था? लूजमोशंस? नहीं. सबसे बड़ा बहाना गाड़ी पक्ंचर हो गई है...घसीट कर ला रहा हूं. आसपास पंक्चर जोडऩे वाला नही है सर. दूसरे नंबर पर है ...जाम में फंस गया हूं लेट हो जाउंगा. अरे मार्जिन रख के क्यों नहीं चलते? जी बहुत तगड़ा जाम है. लूजमोशंस का बहाना तीसरे नंबर पर था. लेकिन खास बात ये थी कि जिसे सुबह की मीटिंग स्किप करनी होती है वह इस बहाने का आइटम नंबर बजाता है. रात को ऑफिस से भले चंगे जाते हैं और सुबह पेंचिस पडऩे लगती है. कुछ पर प्रकोप इतना ज्यादा होता है कि पूरे दिन की छुट्टी. लेकिन अगले दिन भले चंगे हाजिर हो जाते है. इस बीमारी की पेचीदगी आज तक नहीं समझ आई शायद तभी इसका नाम पेंचिस पड़ा होगा. जो एक दो दिन की छुट्टïी चाहते हैं वो वायरल की सूचना फोन पर देते हैं. बॉस घुडक़े ना इस लिए वाइफ से फोन कराते हैं. और भी कुछ फुटकरिया बहाने हैं जैसे वाइफ को डाक्टर को दिखाना है, पैरेंट-टीचर मीटिंग है, गइया तुड़ा कर भाग गई है, बिल ठीक करवाते आउंगा.. वगैरह वगैरह .. अच्छा आप क्यों ब्लॉग में सर खपा रहें हैं. निकलिए नहीं तो आपको भी बहाना बनाना पड़ेगा.

2/18/09

क्या यही है डेस्टिनी?



बात करीब तीन दशक पुरानी है. एक थी माथुर फैमिली. समाज में प्रतिष्ठा थी. लखनऊ में सप्रू मार्ग पर प्राइम लोकेशन पर डाक्टर मुरली मनोहर माथुर का एक बड़ा सा मकान था. उनका भरापूरा परिवार था. एक बेटे का नाम था ब्रिजेश, एक बेटी राधा और एक थी मांडवी. सब पढ़े लिखे सामान्य लोगों की तरह. फिर डा. माथुर की डेथ हो गई. रह गए उनके बच्चे. कुछ सालों बाद उनके एक बेटे ने यह मकान बेच दिया. घर के आगे वाले हिस्से में एक दुकान खुल गई. कुछ दिनों बाद बगल में एक दुकान और खुल गई. फिर एक और. घर बेचने वाला बेटा दिल्ली में सेटल हो गया. इसके बाद ये तीनों भाई-बहन उस घर से बाहर हो गए. वह मकान किसने किसको बेचा, किसने यहां दुकान खोलने का कितना पैसा दिया, यह अलग पेचीदा कहानी है. पर सुना है मुकदमा अभी भी चल रहा है. इधर माथुर सिस्टर्स और ब्रदर सडक़ों पर बेहाल घूमते नजर आने लगे. शुरू में मीडिया ने उनकी कहानी छापी. फिर कहा जाने लगा कि उनकी मेंटल कंडीशन ठीक नहीं. लेकिन इस पर भी डिस्प्यूट है. बाद में मीडिया ने भी उन पर ध्यान देना छोड़ दिया. माथुर सिस्टर्स और ब्रदर अब भी कभी-कभी सडक़ों पर घूमते दिख जाते हैं पहले से कहीं अधिक फटेहाल, पागलों की तरह. जो उन्हें जानते हैं वो ध्यान नहीं देते और जो नहीं जानते वो उन्हें पागल समझ कर आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन सडक़ों पर घूमती माथुर फैमिली पागल नहीं है. कुछ दिनों पहले अचानक माथुर फैमिली दिख गई. सत्तर साल की बहन उतने ही बूढे भाई का हाथ पकड़े थी और पचहत्तर साल की एक बहन थोड़ा पीछे डगमगाती चली आ रही थी. उनसे पूछा आप माथुर फैमिली के हो? हां, आप कौन? मैं रिपोर्टर हूं. आपकी कंडीशन देखी नहीं जाती. कुछ लिखना चाहता हूं. देखिए, कुछ ऐसा वैसा निगेटिव न लिख दीजिएगा जिससे हमारा नुकसान हो जाए. चिंता मत कीजिए, वैसे आपके पास अब खोने को कुछ है भी नहीं. मेरी इसबात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. इसके बाद तीनों भाई-बहनों ने पंडित की दुकान पर खस्ता और गुलाब जामुन खाया और आगे बढ़ गए. यह लखनऊ की सडक़ों पर भटकती वह दास्तान है जिसको हम कहते हैं डेस्टिनी. शायद यही वजह है कि एजूकेटेड और एबल-बॉडीड होते हुए भी ये अपने लिए कुछ न कर पाए.

2/6/09

सफलता की डायरी

न्यू ईयर के बसंत को हम पार कर गए हैं लेकिन इस बार डायरी की बहार नहीं है. सुनते हैं इसकी फसल बहुत अच्छी नहीं हुई है. थोड़ी बहुत जो फसल है, उसे भी रिसेशन के कारण कॉस्ट कटिंग का छिडक़ाव कर बड़ी सावधानी से काटा जा रहा है. इन सबके बावजूद उन लोगों के हाथ में नई डायरी दिख रही हैं जो आज के दौर में सक्सेसफुल हैं. उनकी सफलता का एक अहम कारण उनका वेलआर्गेनाइज्ड होना है और इसमें डायरी का रोल महत्वपूर्ण है. जी हां, डायरी का सीधा संबंध इंगेजमेंट्स और शेड्यूल से है. शेड्यूल, सलीका और सफलता में गहरा संबंध है. प्रेशर में ाी पेस के साथ परफार्म करने वाले ही आजकल सफल कहे जाते हैं. जो जितना सफल है उसका शेड्यूल उतना ही हेक्टिक है और जिसका शेड्यूल हेक्टिक है वह उतना ही आर्गेनाइज्ड है. लाख प्रेशर के बावजूद उनकी लाइफस्टाइल में एक सलीका होता है. आजकल डायरी तो डेली लाइफ का एक अहम हिस्सा है. क्या हमसब डायरी की अहमिय समझते हैं? ढेर सारे लोगों के लिए तो डायरी न्यू ईयर के आसपास गिफ्ट के रुप में बांटने की वस्तु भर है. कुछ के लिए ये ओबलाइज करने का माध्यम है. ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो खुद तो डायरी नहीं रखते लेकिन डायरी की डीलिंग में माहिर होते हैं. ये डायरी न तो खरीदते हैं और न ही छपवाते हैं. ये तो सिर्फ बांटते या बंटवाते हैं. यानी इधर की डायरी उधर. डायरी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका संकट मोचक की है. जो डायरी मेंटेन करता है, डेली रुटीन की जरूरी बातों को दर्ज करता है, उसे डायरी कभी धोखा नहीं देती. उनके लिए तो डायरी एक पोर्टेबल इंसाइक्लोपीडिया होती है. जिनकी मेमोरी शार्प है और जो भुलक्कड़, दोनों के लिए डायरियां कंप्यूटर की भाषा में एक्स्ट्रा हार्ड डिस्क की तरह काम करती हैं. इनमें न तो वायरस आने का खतरा होता है और नहीं ये अधिक लोड पडऩे पर कंप्यूटर की तरह हैंग करती हैं. डायरी मेंटेन करके तो देखिये, आपका मेंटल प्रेशर कई गुना कम हो जाएगा.

2/1/09

राजाबाबू नहीं मरते

लांग लिव राजा बाबू.
राजाबाबू की तो डेथ हो गई. सुन कर विश्वास नही हुआ. कैसे हुई डेथ, किसने बताया? कोई कह रहा था. कौन? ठीक से याद नहीं. अरे वही राजा बाबू न जो ई टीवी में था. हां वही मथुरा वाला. सुन कर मन भारी हो गया. राजा बाबू कोई रॉयल फैमिली से नहीं था. राजाबाबू तो बस राजाबाबू था. हर कोई राजाबाबू थोड़े ही होता है. एक न्यूज चैनल का डिस्ट्रिक्ट करेस्पॉडेंट. लेकिन थोड़ा अलग था राजाबाबू. वही राजा बाबू जिसने हेड फोन लगा कर अपनी पी-टू-सी भेज दी थी. इसके पीछे उसका अपना तर्क था- कैसे पता चलता कि रिकार्डिंग सही हो रही या नहीं. वही राजा बाबू जिसको एक बार भू- माफिया ने धमकी दी तो वो तीन दिन की छुट्टी लेकर घर अलीगढ़ चला गया और अपना बीमा करा कर लौटा. माफिया से बोला अब मार भी दोगे तो घर वालों को पांच लाख मिलेंगे. घर वालों ने मेरी पढ़ाई पर इससे ज्यादा नहीं खर्च किया है. भू- माफिया ने हाथ जोड़ लिया, कहा अब कुछ भी लिखो कोई नाराजगी नहीं. आज से आप मेरे छोटे भाई. ऐसा राजाबाबू कैसे मर सकता है. एकबार डीएम ने उसे अपने कमरे के बाहर कुछ ज्यादा ही इंतजार करवा दिया. नाराज राजाबाबू एक चिट छोड़ गए-डीएम साहब मेरा वक्त भी कीमती है मुझे भी ऊपर से अफसरों की डाट पड़ती है. डीएम ने एक अफसर को भेज कर उसे वापस बुलाया. एकबार उसे फोन किया तो गलत नंबर लग गया. किसी महिला ने उठाया. मैंने कहा राजाबाबू से बात कराइए. महिला ने खिलखिलाते हुए फोन अपने हसबैंड को थमा दिया. तब पता चला कि नंबर गलत था. फिर राजाबाबू से मेरा सम्पर्क टूट गया. एक बार चेन्नै से उसका फोन आया था. वह किसी मैगजीन में था. फिर कुछ दिन पहले किसी ने बताया कि राजाबाबू नहीं रहे. फिर कल किसी ने बताया कि नहीं राजा बाबू तो अलीगढ़ में हैं. उन्होंने फोन नंबर देने का वादा किया है. मैं खुश हूं नंबर भले ही न मिले लेकिन राजाबाबू अलीगढ़ में खुश रहें. राजाबाबू ऐसे थोड़े ही मरते हैं. लांग लिव राजाबाबू.

1/28/09

ये एक्स फैक्टर क्या होता है


लुकिंग सेक्सी, लुकिंग यंग. जिसको देखो सेक्सी और यंग होने की बात कर रहा है. पहले तो लोग सेक्स शब्द जुबान पर लाने में भी संकोच करते थे. और अब सेक्स का भाई एक्स भी आ गया है. यंग बोले तो सिक्स पैक ऐब्स, मोर यंग बोले तो एट पैक ऐब्स, स्लिम, जिरो फिगर, नो ग्रे हेयर, कूल, रिंकल फ्री फेस और एक्स फैक्टर. यूथ यानी एनर्जी, फैशन, पैशन, जुनून. यूथ माने सिक्सटीन प्लस, ट्वेंटी प्लस और हद से हद थर्टी प्लस. जो लोग लाइफ स्पान की इस हद को पार कर चुके हैं उनके लिए क्या? उनके लिए है यूथफुल होना. यूथफुल होने की कोई बंदिश नहीं. यानी जो अच्छा लगे करो, जो जी में आए करो, जी खोल कर करो, जब तक चाहे करो. मुझे नहीं लगता इससे दूसरों को कोई परेशानी होती है. आप जि़ंदगी भर युवा बने रहिए, किसने रोका है. आप समय से पहले बुजुर्गों की तरह बिहेव करने लगिए, कौन रोकेगा. रोकने और टोकने से कुछ होता है भला. गुननेे-बुनने, सुनने-सुनाने, एज और आइडिया में तालमेल बैठाने में लगे रहेंगे तो समय से पहले ही ओल्ड हो जाएंगे, लाइफ की हाफ सेंचुरी के बाद ही बोल्ड हो जाएंगे. ये थॉट हमेशा एनर्जी से भर देता है कि यंगस्टर्स को बिग बी आज भी भी फेसिनेट करते हैं. जीन हैकमेन, चार्स ब्रॉनसन, ब्रूस विलिस जैसे एक्टर आज भी युवाओं की पसंद हैं. इनके सिक्स पैक ऐब्स को नहीं, एक्स फैक्टर को पहचानिए. आपने सोचा है कि यूथफुल थिंकिंग के इस खेल में केमिकल लोचा है. यस, यूथफुल थाट का डोज देने वाला केमिकल तो आपके और हमारे मगज में बैठा है. मैं इसे रुमानियत कहता हूं. साइंस में इस केमिकल का नाम है डोपामिन. और मेरा मानना है कि रूमानियत, खुशनुमा एहसास, कुछ-कुछ होने की फीलिंग है 'एक्सÓ फैक्टर.
जो एक्ट्रेस आपको टीन एज में सेक्सी लगती थी वह फॉट्टी प्लस या फिप्टी प्लस वालों को सेक्सी क्यों नहीं लगनी चाहिए. ये नियम मेन और वुमन, दोनों पर एक ही तरह से लागू होते हैं. किसी पार्क, मार्केट, में किसी लेडी या गर्ल को
देखते ही आपके आंखों में फैंटसी तैर जाती है या रुमानियत का सुरूर छाने लगता है, आपको बीते दिनों की कोई कहानी, कोई साथी कोई, शरारत याद आ जाती है, आप खुश हो जाते हैं, तो इसमें हर्ज ही क्या है. किसी में एक्सÓ फैक्टर नजर आता है तो कहे का टेंशन. बस अपने प्रति ईमानदार रहिए और ध्यान रखिए कि आपका बिहेवियर और फैंटसी किसी को हर्ट न करे, इसमें ऐब्सीनिटी न हो. आजमा कर देख लीजिए यही है हेल्दी फीलिंग्स का एक्स फैक्टर, जो आपको हमेशा तरोताजा रखता है. बिल्कुल मस्त. यह बोर नहीं होने देता. यही फार्मूला सब पर लागू होता है. बचपन से ट्रेन पर बैठना और दे ाना अच्छा लगता था, अब भी लगता है. एक दिन रेलवे क्रासिंग पर दोस्त से कहा यार पांच मिनट रुक जाओ, एक ट्रेन दे ा लूं. उसने अजीब नजरों से घूरा. दोस्त शायद मुझसे उम्र में छोटा था लेकिन उसकी आंखों के पीछे बुजुर्गियत कहीं जयादा नजर आ रही थी, वैसी ही जैसी उम्र बढऩे के साथ बालों पर नजर आती है. और मेरे अंदर डोपामिन हिलोरे मार रहा था. तभी धड़धड़ाती हुई ट्रेन निकल गई. मेरी धडक़न थोड़ी बढ़ी हुई थी-वाह! क्या स्पीड थी. ये फीलिंग वैसी ही थी जैसी कोई खूबसूरत सी लडक़ी अचानक सामने आ जाए और लगे वॉव! ये आपकी फीलिंग्स हैं इसे कोई नहीं छीन सकता. तो सोच क्या रहे हैं रुमानियत में गोते लगाइए और ईमानदारी से बताइए कि किसी को देख कर आपके मन में कुछ कुछ होता है. नहीं होता तो आपमें कुछ केमिकल लोचा है. मेरी डोपामिन की डोज तो ठीक काम कर रही है. अच्छा फिर मिलते हैं.

1/25/09

स्लम, शिट, स्मेल...जय हो

क्रिकेट खेलते बच्चे
आई एम प्राउड ऑफ स्लमडॉग मिलिनेयर, जय हो! आई एम प्राउड आफ इंडियन सिनेमा, जय हो! एक सच्चे भारतीय की तरह मुझे भी खुशी हो रही है कि भारतीय परिवेश पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर ने गोलडेन ग्लोब अवार्ड जीत लिया. एक पेट्रियाटिक इंडियन की तरह इस खबर से और एक्साइटेड हूं कि ऑस्कर अवार्ड की दस कैटेगरीज के लिए इस फिल्म को नॉमिनेट किया गया है और इसमें तीन कैटेगरीज में एआर रहमान है. कैसा संयोग है कि रिपब्लिक डे मना रहे हैं और किसी भारतीय संगीतकार का डंका ऑस्कर अवाडर्स के लिए बज रहा है. ये देख कर अच्छा महसूस हो रहा है मीडिया में २६/११ की खौफनाक खबरों के बाद नए साल में कुछ अच्छी खबरें आ रही हैं. इंडियन मीडिया में अब स्लमडॉग् मिलिनेयर की धूम मची हुई है. अखबार-टीवी पर इसकी जय हो रही है. होनी भी चाहिए. लेकिन एक बात थोडी खटकती है. देश में अच्छी फित्म बनाने वालों की कमी नहीं है. रंग दे बसंती, चक दे इंडिया, तारे जमीं पर, गज़नी.. इधर बीच कई अच्छी फिल्में आईं. इनके रिलीज होने से पहले इन पर काफी चर्चा हुई, शोर हुआ हर कोई जान गया कि फलां फिल्म बड़ी जोरदार. इनमें से कुछ ने ऑस्कर में नॉमिनेशन के लिए दस्तक भी दी लेकिन सफलता नहीं मिली. लेकिन स्लमडॉग मिलिनेयर एक बहुत ही शानदार फिल्म है, इसका म्यूजिक लाजवाब है, इसका पता हमें बाहर से तब चलता है विदेशों में इसकी जय होती है. ठीक है फिल्म वल्र्ड के लोग और क्रिटिक इसके बारे में जानते होंगे लेकिन आम आदमी को इसके बारें में बहुत नहीं पता था. न इंडियन मीडिया में इसका कोई शोर था. लोगों का ध्यान तब गया जब इसने गोल्डेन ग्लोब अवार्ड जीता. मैंने स्लमडॉग मिलिनेयर देखी, एक फिल्म की तरह बहुत अच्छी लगी. कुछ लोगों अच्छा नहीं लगा कि भारत के स्लम, शिट, स्मेल को सिल्वर फ्वॉयल में लपेट कर वाहवाही लूटी जा रही है. फिल्म देखते समय मुझे कभी अमिताभ, कभी दीवार, कभी कभी जैकी श्राफ याद आ रहे थे और तो कभी मोहल्ले की बमपुलिस (सुलभ शौचालय का पुराना मॉडल...अमिताभ बच्चन ने यह नाम जरूर सुना होगा) के बाहर क्रिकेट खेलते बच्चे. मुझे तो फिल्म में गड़बड़ नहीं दिखी. बाकी तो लोकतंत्र है. यह आप पर है कि स्लम के स्मेलिंग शिट, और गारबेज पर नाक दबा कर निकल जाएं या उसके कमपोस्ट में कमल खिलाने का जतन करें.

1/18/09

बुढ़ऊ खेलें कम्प्यूटर

बुढ़ऊ खेलें कम्प्यूटर।
कभी करें मेल
कभी मैसेज फेल
कोई मियामिट्ठू
कोई बजरबट्ट
कंमेंट करे दीदी और भैया
पढ़ पढ़ मगन होएं बुढ़ऊ
धाय धाय लें बलैया
क्या लिख दिया हाय दैया.
सो सीखने की कोई उम्र नहीं होती और न सीखने के दस बहाने होते हैं. अब कमप्यूटर को ही लें. ये अब हमारी लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन चुके हैं. अब ये हमारी जरूरत हैं. घर में और बाहर भी. न्यू जेनरेशन कम्प्यूटर एज में ही पल बढ़ रही है. उसके लिए कम्प्यूटर खिलवाड़ है लेकिन ओल्डर जेनरेश में एक बड़े चंक के लिए किसी खलनायक से कम नहीं. उनके पास रेडीमेड बहाना है- अरे अब इस एज में अब कहां कम्प्यूटर सीखें. लेकिन डे टु डे लाइफ में बार-बार ऐसा कुछ होता है कि उनके लिए सिजुएशन थोड़ी एंबेरेसिंग हो जाती है. किसी ऑफि़स में जाते हैं, कोई फार्म भरते हैं, कोई लेटर लिखते हैं तो उनसे कहा जाता है अपना ई-मेल एड्रेस बताइए. साहब बगले झांकने लगते हैं. फिर ऐसे लोग कम्प्यूटर सीख आपरेट करना सीख जाते हैं. अपनी ई-मेल आईडी शान से विजिटिंग कार्ड पर छवाते हैं. दोस्तों से कहते फिरते हैं फलां चीज नेट पर दखी? नहीं देखी तो मैं मेल कर दूंगा. अब उन्हें ए-थ्री, ए-फोर, पेन ड्राइव, जीबी-एमबी, रैम का मतलब पता है. वे हैकिंग की बात करते हैं, क प्यूटर वायरस की बात करते हैं. कुछ लोग कह सकते हैं कि क प्यूटर सैवी कहलाना फैशन है जैसे स्टाइलिश मोबाइल सेट, आईपॉड और दूसरे गैजेट्स लिए गजनी स्टाइल में सिर घुटाकर घूमते यंगस्टर्स माल्स से लेकर मोहल्लों तक में मिल जाएंगे. लेकिन नहीं, कम्प्यूटर अब जरूरत है. इसीलिए तो ढेर सारे लोग हैं जिन्होंने ओल्डर जेनरेशन का होते हुए भी कम्प्युटराइजेशन की गति से तालमेल बैठा लिया है. इसी लिए तो मेट्रोज से शुरू हुआ कम्प्यूटराइजेशन अब छोटे टाउन्स के गली-मोहल्लों तक पहुंच चुका है, मल्टी नेशनल कंपनीज से चला कम्प्यूटर अब यूनिसपैलिटी के दफ्तरों तक में घुस चुका है. भले ही बिजली दफ्तर या नगर पालिका का इम्प्लाई अभी कंप्यूटर पर फर्राटे से काम नहीं कर पा रहा है लेकिन वो काम कर रहा है, बहाना नहीं बना रहा, यह क्या कम है?कम्प्यूटर की बात चले और ब्लॉगिंग पर बात न हो, ये भला कैसे हो सकता है. ब्लागिंग का बुखार भी धीरे-धीरे चढ़ा. शुरू में ब्लॉंिगंग बेकार का शगल माना जाता था. जिन लोगों को इसके बारे में अधिक नहीं पता था या जिन्हें ब्लॉग लिखना नहीं आता था, वे इसे 'टाइमपासÓ या 'टाइम वेस्टÓ मानते थे. लेकिन जब अमिताभ बच्चन, आमिर खान जैसे सेलेब्रिटी और कई जानेमाने इंटेलैक्चुअल्स ने ब्लागिंग के बवंडर में अपने रथ दौड़ा दिए तब से लोग इसे सीरियसली लेने लगे. यह ऐसा ई-लिटरेचर है जिसमें हम अपने समय और समाज का रिफ्लेक्शन देख सकते हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं और जो ओपीनियन जेनरेट करते हैं. जिस तरह तरह लोग मनपसंद किताबे पढ़तें हैं उसी तरह किस ब्लॉग को हम पढऩा या उसपर कमेंट करना चाहते हैं, ये हमारी च्वाइस है. ये देखना सुखद है कि इस ई-प्लेटफार्म पर बड़े बड़े खुर्राट और नौसिखिए, सब हाथ आजमा रहे हैं. अब ये आप पर है कि चाहे इसका लुत्फ लीजिए या कोई बहाना खोजिए.

1/16/09

सोमालिया के पाइरेट्स

बचपन में सिंदबाद द सेलर और फैंटम के ढेर सारे कॉमिक्स पढ़े थे, समुद्री लुटेरों की अनगिनत कहानियां पढ़ी थी. इनके कैरेक्टर फैसिनेट करते थे. एक था रेडबीयर्ड, दूसरा था एक आंख वाला लुटेरा जो बैसाखी से चलता था और उसके कंधे पर एक तोता बैठा रहता था. इनमें फैंटसी थी, रोमांच था और पढऩे वाला था कल्पनालोक के महासागर में गोते लगाने लगता था. इन फैक्ट एक समुद्री पोत पर पाइरेट्स के हमले के बाद ही 'फैंटमÓ कैरेक्टर का जन्म हुआ था कभी यह सबकुछ कितना फैंटास्टिक था लेकिन अब फीयरफुल नाइटमेयर साबित हो रहा है. हाईसीज का जिक्र आते ही एक अनजान सा खौफ घेर लेता है. उन परिवारों से पूछिये जिनके घर का कोई सदस्य महासागर में किसी शिप पर सवार होता है. जब तक वह सकुशल घर नहीं लौट आता, घर वालों को ठीक से नीद नहीं आती. यह स्थिति पैदा हुई है समुद्री आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं के कारण. इस वर्ष अभी तक अदन की खाड़ी और आसपास मालवाहक शिप्स पर अब तक करीब सौ हमले हो चुुके हैं. कभी खबर आती है कि किसी कार्गो शिप या आयल टैंकर को पाइरेट्स ने हाईजैक कर लिया और उसके क्रू को बंधक बना लिया. फिर खबर आती है कि लुटेरों ने बड़े रैन्सम की डिमांड की है. उनसे निगोशिएट करने में हफ्तों बीत जाते हैं. तब तक बंधकों के परिजनों की धड़क़ने बढ़ी रहती हैं. इन लुटेरों के चंगुल में इंडियन भी आ रहे हैं और दूसरे देशों के नागरिक भी. ये समुद्री लुटेरे नहीं हैं बिल्क यह हाईसीज में उभरते आतंकवाद का नया चेहरा है और इसके निशाने पर कोई खास देश नहीं बल्कि हर वो शिप है जो अनप्रोटक्टेड है. केवल इंडिया ही नहीं दूसरे देशों को भी इस समस्या ने परेशान कर रखा है और इनसे निपटना अकेले इंडिया के वश की बात भी नहीं है. अब सवाल उठता है कि इस समस्या के पनपने का कारण क्या है इससे कैसे निपटा जाए. दरअसल पाइरेट्स का बहुत बड़ा ग्रुप अदन की खड़ी में आपरेट कर रहा है. क्लाशनिकोव, हैंडग्रनेड, एमएमजी, आरपीजी जैसे घातक हथियारों से लैस ये लुटेरे फास्ट स्पीड बोट्स पर सवार रहते हैं और कोई टैंकर या बड़े कार्गो शिप की तलाश में रहेते हैं. चूंकि बड़े पोत ज्यादा स्पीड मेें नहीं चल सकतेइस लिए इनकी बोट्स पलक झपकते ही वहां तक पहुच जाती हैं. अपहरण के बाद ये लुटेरे करोड़ों की फिरौती मांगते हैं. इनके अड्डे सोमालिया में हैं. सोमालिया में अराजकता का राज है. वहां कोई कोई सक्षम सरकार नहीं है. ऐसे में इस समस्या से निपटने में वहां की सरकार से भी मदद नहीं मिल पा रही है. कुछ दिनों पहले इंडियन नेवी के आईएनएस तबर ने पाइरेट्स के एक मदर बोट को डुबो दिया था. फिर भी इनके हौसले पस्त नहीं हुए. अब फिर तीन भारतीयोंं को बंधक बनाए जाने की खबर है. इंडियन नेवी ने दूसरे देशों की नौ सेना से सहयोग की अपील की है. पाइरेट्स की एक-दो बोट डुबो देने से या कुछ लुटेरों को पकड़ लेने भर से समस्या का हल निकने वाला नहीं. जरूरत देशों के बीच बेहतर कोआर्डिनेशन और कम्बाइंड आपरेशन की है.

आह और आउच्

हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो सर्दी है. लेकिन लोग खा-म-खां शोर मचा रहे हैं. जिस मुद्दे और जिस प्रॉब्लम को लेकर शोर मचाना चाहिए था, उस पर कोई नहीं बोलता और जिसका स्वागत होना चाहिए था उसे लेकर आह और आउच् सुनाई पड़ रहा है. ठंड न पड़े तो आफत और ठंड पड़े तो आफत. ठंड हर साल पड़ती है, हर बार कुछ दिन के लिए कोहरा लेकर आती है, हर बार कोल्ड वेव का दौर आता है और हर बार लोगों को दौरा पड़ता है शोर मचाने का. इस बार भी कुछ नया नहीं हो रहा, कुछ अनोखा नहीं हो रहा. नार्दर्न इंडिया में दिसंबर के लास्ट वीक से मकर संक्रांति तक कड़ाके की ठंड पड़ती है. इस बार उतनी नहीं पड़ी. थोड़ी ठंड और पडऩी चाहिए थी. एक-दो दिन थोड़ी ठंड और कोहरा क्या पड़ गया, लगा जैसे लोगों पर बर्फ का पहाड़ टूट पड़ा हो. अब इसमें मौसम विभाग क्या करे, रेलवे और एविएशन वाले क्या करें और कितना करें. सवाल उठता है कि इस सिचुएशन के लिए हम कितने प्रिपेयर्ड हैं, प्लानिंग और एग्जीक्यूशन, दोनों लेवल पर. कई बार खबरें आ चुकी हैं कि रेलवे ऐसे डिवाइस डेवलप कर रहा है जिसमें फॉग में भी सिंग्नल बेहतर दिखाई देेगा. इसी तरह एअरपोट्र्स को ऐसे इक्यूपमेंट्स और डिवाइसेस से लैस किया जा रहा है जिससे धुंध में भी प्लेन आसानी से लैंड कर सकेंगे. लेकिन ये सब उपाय एक लिमिट तक ही कारगर होते हैं. डेंस फॉग में जब विजिबिलटी बहुत कम हो जाती है तो इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं होता. इसका कारण अनप्रेडिक्टेबल मौसम ही है. इस समय मौसम ऐसा ही रहता है, यह हमें पता है तो इसके एकॉर्डिंग हम अपनी ट्रवेल क्यूं नहीं प्लान कर सकते. हां, कहीं अचानक जाना पड़ जाए तो बात अलग है. लेकिन उसमें भी मौसम का अंदाजा लगा हम अपने ट्रवेल शेड्यूल को मॉडीफाई कर सकते हैं. जिस ट्रेन से हम जा रहे हैं और उसी ट्रेन से लौटना है, अप-डाउन दोनों टे्रनें घंटों लेट हैं तो कैसे एक्सपेक्ट किया जा सकता है कि लौटते समय ट्रेन राइट टाइम होगी. लाख डिसटर्बेंस के बावजूद नेचर अभी तक हम पर मेहरबान है इसके लिए में उसका शुक्रगुजार होना चाहिए. कुछ देर से और कुछ दिन के लिए ही सही कड़ाके की ठंड पड़ रही है, पहाड़ों पर बर्फ गिर रही है. मनाइए कि पहाड़ों पर और बर्फ गिरे. अगर कड़ाके की ठंड नहीं पड़ी पहाड़ों पर जोरदार बर्फबारी नहीं हुई तो असली आफत तो ठंड जाने के बाद आएगी. जब पहाड़ों पर बर्फ नहीं रहेगी, ग्लेशियर नहीं रहेंगे तो नदियों में पानी कहां से आएगा. कहीं पढ़ा था कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर अब पहले से ज्यादा नंगी चट्टाने नजर आने लगी हैं. ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों में मौसम ज्यादा तेजी से बदला है. इस लिए दुआ कीजिए कि इन दिनों खूब बर्फ गिरे तभी साल के बाकी दिनों हम सुकून से रह सकेंगे. बर्फ के पहाड़ टूटते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे ऊपर आफत के पहाड़ टूट पड़ेंगे.
रेटिंग का है ज़माना


कुछ साल पहले तक न टीआरपी का नाम सुना था और न ही पता था कि यह क्या बला है. अब बात बात पर इसका जिक्र होता है क्योंकि आजकल रेटिंग का जमाना है. सफलता-असफलता, पॉपुलैरिटी, पॉवर, इमेज, क्वालिटी, सब का आकलन रेटिंग से होता है. इलेक्ट्रानिक सामान हो या चैनल, सबसे पहले ध्यान उसकी रेटिंग पर जाता. नई मूवी रिलीज होते ही सबसे पहले लोग उसकी स्टार रेटिंग पर नजर डालते हैं. आजकल तो इंसानों की भी रेटिंग होने लगी है. हां, इसका पैमाना थोड़ा अलग है. इंसान की रेटिंग खासतौर से दशहरा, दीवाली, ईद, क्रिसमस, न्यू इयर या बर्थडे पर नापी जाती हैं. अगर आपके पास कार्ड्स, कैलेंडर, डायरी, गिफ्ट, मेल और मैसेज ज्यादा आते हैं तो समझ लीजिए कि आप अच्छी पोजीशन पर हैं, एटलीस्ट लोगों की नजर में. इत्तफाक से कुछ दिन पहले ही न्यू ईयर में प्रवेश किया है. इसी बहाने अपनी रेटिंग (सोकॉल्ड) का भी अंदाज लगाने की कोशिश की. और रेटिंग मीटर अभी भी एक्टिव है. हालांकि मंदी, रेसेशन के चलते इस बार रेटिंग मीटर ग्राफ के केवल दो पिलर- मेल और मैसेज ही आसमान छू रहे हैं. डायरी, कैलेंडर और काड्र्स का ग्राफ काफी नीचे है. मंदी की मार में कॉस्ट कटिंग और 'हींग न फिटकिरी और रंग चोखाÓ का फारमूला सबसे चोखा है. तो आप भी मेल और मैसेज के आधार पर अपनी रेटिंग कर सकते हैं कि आप कितने पावरफुल और पॉपुलर हैं.

1/14/09

बहाने खुश होने के


बहुत दिन हो गए हो गए फीलगुड का जिक्र नहीं हुआ। इस लिए इस पर बात करनी जरूरी है. केवल खुश होने के लिए ख्याली फीलगुड नहीं, वास्तव में गुड-गुड फील करने के कुछ वैलिड रीजंस हैं. रेसेशन या इकोनॉमिक स्लोडाउन के बीच कई ऐसे मौके आए जब हमे खुश होना चाहिए था लेकिन फीलगुड का हमें एहसास नहीं हुआ. उस पर चर्चा भी नहीं हुई. पेट्रोल के दाम घटे, देश की प्रमुख एअरलाइंस ने एअर फेयर घटाने की घोषणा की, बैंको ने होमलोन्स सस्ते किए, बिल्डंग मटीरियल्स सस्ते हुए, यहां तक कि कारें भी सस्ती हो गईं. आजकल होटल्स में भी मारा-मारी नहीं है. उनमें आधे दामों पर रुका जा सकता है. अब फिर खबर गर्म है कि तेल के दाम एक बार और कम हो सकते हैं. यह भी कहा जा रहा है कि रेसेशन की शॉक वेव्स को इंडिया कहीं बेतर ढंग से झेल रहा है. विदेशी कंपनियों को जाने दें, इंडियन कंपनीज में रिट्रेंचमेंट की तलवार कम, रैशनल एक्सपेंडीचर की हवा ज्यादा बह रही है. इंडियन्स मेजोरिटी को अभी भी ट्रेडिशनल सूत्र वाक्य 'सेव समथिंग फार हार्ड टाइम्स याद है लेकिन वे इस हार्ड अन्र्ड मनी से एंज्वाय करना भी खूब जानते हैं. फील लगुड का एक और बड़ा कारण है- इंडियंस में सेविंग टेंडेंसी के एनकरेजिंग आंकड़े. शेयर मार्केट भले ही क्रैश कर गए हों लेकिन पोस्ट ऑफिसों और बैंकों के आंकड़े बताते हैं कि आम इंडियंस ने सेविंग ग्राफ को बढ़ाया ही है. ये आंकड़े मेट्रोज के नहीं बल्कि मीडियम साइज और स्मॉल सिटीज के हैं. वे एक तरफ सुरक्षित भविष्य के लिए मनी सेव कर रहे हैं रहे और इस मनी से सेलिब्रेट भी कर रहे हैं. गौर करने की बात है कि लोग अब सेविंग करने के साथ खर्च करने के गुर और बेहतर ढंग से सीख गए हैं. शहरों के लोगों का मूलमंत्र है कि जम कर सेव करो और और खुल कर सेलिब्रेट करो. लोगों ने प्रापर्टी, गोल्ड, म्युचअल फंड, बैंक एफडी, पीपीएफ एकाउंट में जमकर इन्वेस्टमेंट किया है और कर रहे हैं. इन सब सेविंग टेंडेंसीज के बावजदू क्लब, रिसार्ट, वीकेंड पार्टी और और लग्जरी कारें भी इनकी लाइफ स्टाइल का हिस्सा हैं. आम शहरी का रुझान अभी भी कम मुनाफे वाले लेकिन सेफ इनवेंस्टमेंट की ओर है. इसी लिए इनके सेविंग आप्शन डायवर्सिफाइड हैं. से सब पैसा शेयरों, म्यूचुअलफंड, डाकघर या बैंकों में नहीं डालते. लोगों ने थोड़ी थोड़ी पूंजी इनमें लगा रखी है. इससे रिस्क फैक्टर कम हो जाता है. इसी लिए तो मंदी में आम इंडियन मस्त नहीं तो त्रस्त भी नहीं है. क्या यह फीलगुड नहीं? और अगर आप शेयर में कुछ लगाने ही चाहते हैं तो इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा. इस समय कुछ बहुत बड़ी और अच्छी कंपनियों के शेयर उनकी भौतिक परिसंपदा के मूल्य से भी कम मूल्य पर उपलब्ध हैं. इनवेस्टमेंट का ऐसा मौका कम ही मिलता है.

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