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10/19/09

'तंदुरुस्ती गुरू'


प्रेमचंद को बहुत नहीं पढ़ा लेकिन जितना भी पढ़ा है मन लगा के. बचपन से अब तक कहीं किसी रोज किसी मेड़ पर, किसी मोड़ पर, अनायास कोई मिल जाता है तो प्रेमचंद का कोई पात्र या बचपन में सुनी कहानी का कोई किरदार याद आने लगता है. ऐसे ही एक कैरेक्टर थे मेरे दादाजी के बड़े भाई. उनका असली नाम था पं. आदित्य प्रसाद ओझा लेकिन निक नेम कई थे. इसमें से एक नाम था 'तंदुरुस्ती गुरू'.
किसी गांव-कस्बे में त्योहारों पर मेला-खेला देखता हूं तो बचपन के कहानी - किस्से याद आने लगते हैं. कहानियां जो कभी दादाजी ने सुनाई थी, कहानी जो पिता जी सुनाते थे. पढ़ाई के लिए वो अक्सर अपने बचपन और मेरे दादाजी के बचपन की कहानियां सुनाया करते थे कि कैसे अत्यंत गरीबी में विद्या के बल पर परिवार आगे बढ़ा और विद्या ही परिवार की पूंजी है. इस प्रसंग में तंदुरुस्ती गुरू के उदाहरण बार बार आते थे. कभी दरियादिल के रूप में, कभी जीवट वाले यंगमैन के रूप में, कभी मेहनतकश तो कभी गरीबी से जूझते इंसान के रूप में.
तंदुरुस्ती गुरू मजबूत कद-काठी वाले साढ़े छह फुट के इंसान थे. उनके माता-पिता बचपन में ही गुजर गए थे शायद प्लेग से. सो ज्यादा पढ़ नहीं सके. लेकिन वर्जिश खूब करते थे. मेहनती इतने कि दिन भर हल चलाते रहें. सुना एक बार बैल अचानक मर गया, दूसरे के लिए पैसे नहीं थे सो उसकी जगह खुद बैल के साथ हल में जुत गए थे 'मदर इंडिया' स्टाइल में. जाहिर है कि इतनी मेहनत करने वाला खाना तो ज्यादा खाएगा ही. उनके भोजन भट्ट होने की ख्याति आसपास के गांवों में भी थी. दादा जी के तीनों भाइयों के बीच थोड़ा बहुत जो खेत था उसका बंटवारा नही हुआ था लेकिन एक एमओयू के तहत चूल्हे अलग अलग थे. तंदुरुस्ती गुरू सबसे तंगी में थे. बजरी (बाजरे) का भात पर गुजारा करना पड़ता था. कभी तो दाल छौंकने के लिए लिए भी घी नहीं होता था. ऐसे ही एक बार सादी दाल परोसे जाने पर तंदुरुस्ती गुरू भड़क गए. बताया गया कि घी नहीं है. तुनक के बोले मैं सिखता हूं बिना घी के तड़का लगाना. उन्होंने खाली कल्छी ली आग में तपाया और देगची में छोंओं....लग गया तड़का. न्योता-दावत में ओझा फैमिली को वे ही रिप्रेजेंट करते थे. दस-दस कोस पैदल चले जाते थे न्योता खाने. लोटा, लाठी और साफा उनकी ड्रेस थी. न्योता में इतना खा लेते की दो-तीने दिन वहां से हिलने की हालत में नहीं होते थे. वहीं टिके रहते स्थिति सामान्य होने तक. अच्छे बैल रखने का उन्हें शौक था. कोई बड़ा मेला लगे तो नया बैल जरूर लाते थे. एक- दो महीने बर्धा (बैल)की खूब सेवा होती. लेकिन छह महीने बीतते न बीतते वह बैल घोर उपेक्षा का शिकार हो जाता और खाए बिना मरने लगता. नौबत ये आ जाती कि उसी बैल को दो आदमियों की मदद से पूंछ पकड़़ कर बमुश्किल खड़ा किया जाता. मर जाता तो फिर नए बैल के साथ वही प्रक्रिया दोहराई जाती. मेरे गांव के पास सिरसा बाजार है. दादाजी ने कभी बताया था कि दीपावली के पास एकबार मेला लगा था. पंजाब से सर्कस कंपनी आई थी. वहां डुगडुगी पीटी जा रही थी कि उनके पहलवान को जो पंजा लड़ाने में हरा देगा उसे दो रुपए ईनाम. इंट्री फीस एक आना थी. तंदुरुस्ती गुरू ने दादाजी से एकन्नी उधार ली और उतर गए पंजा लड़ाने. वो पहलवान भी साढ़े छह फुटा था गोरा चिट्टा, इधर तंदुरुस्ती गुरू का काम्प्लेक्सन डार्क टैन. यू समझिए एक तरफ देसी मुर्गा दूसरी तरफ ब्रॉयलर. तंदुरुस्ती गुरू की सख्त चीमड़ फौलादी उंगलियों ने सर्कस के पहलवान का पंजा जकड़ कर जो मसला तो उसकी दो उंगलियों में फ्रैक्चर हो गया. तंदुरुस्ती गुरू दो रुपए जीत गए. उस पैसे से उन्होंने सबके लिए कुछ ना कुछ खरीदा. लेकिन एक हादसे के बाद तंदुरुस्ती गुरू बीमार रहने लगे. हुआ ये कि एक बार मिर्जापुर से मेजारोड के लिए दिल्ली एक्सप्रेस में बैठ गए. उस समय दिल्ली एक्सप्रेस का मेजारोड स्टापेज नही था. मेजारोड आया तो ट्रेन की रफ्तार थोड़ी धीमी हुई. जब उन्हें लगा कि ट्रेन नही रुकेगी तो छलांग लगी दी प्लेटफार्म पर. ज्यादा चोट तो नहीं आई लेकिन उसके बाद से उन्हें हार्निया हो गया. उसके बाद उनाक स्वास्थ्य पहले जैसा कभी नहीं रहा. यह खुश दिल इंसान पूरी जिंदगी आभावों से जूझता लेकिन वह जैसा भी था जिंदादिल था, सरल था. अब उनके बेटे और ग्रैंडसन बड़े बड़े पदों पर देश-विदेश में हैं. गांव में उनके ग्रैंड सन ने बड़ा सा पक्का मकान बनवा लिया है लेकिन उस माटी से बजरी के भात और बिना घी की दाल की खुशबू आभी भी आती है. लगता है गंगा किनारे कछार में साफा बांधे कोई अभी भी हल चला रहा है गुनगुना रहा है..गंगा बहे, बहे रे धारा..तुझको चलना होगा.. तुझको चलना होगा...

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