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11/18/16

रन फॉर मनी..!


आजकल सडक़ सडक़- गली गली लोग दौड़ रहे हैं। जो नहीं दौड़ रहे वो लाइन में लगे हैं। एटीएम के शटर गिरे हुए हैं फिर भी लोग लाइन में लगे हुए  हैं। जरा आहट होती है तो लगता है कहीं ये वो तो नहीं। 
   आपको याद हो कि न याद हो, जब गाडिय़ां कम चलती थी तब गांवों में कोई  वाहन भूले भटके आ जाता तो पीछे-पीछे गांव के लडक़ों का झुंड दौड़ पड़ता था। अब फिर से शहरों में भी कुछ खास वाहनों के पीछे लोग इस तरह  दौड़ते दिखने लगे हैं। ये हैं कैश वाहन । सडक़ पर कैश वाहन देख लोग दौड़ पड़ते हैं कि न जाने ये किस एएटीएम के सामने जा रुके।
    सूने पड़े एटीएम के सामने वैन रुकते ही मिनटों में लाइन सौ के पार हो जाती है। कैश वैन आए न आए आपको बंद पड़े एटीएम के बाहर कभी भी लाइन लगवानी हैं तो 1-2 लोग वहां खड़े हो जाइए फिर देखिए तमाशा, पीछे लंबी कतार लग जाएगी ।
   मेरे ऑफिस में भी स्टॉफ के लिए एक एटीएम लगा है। 24 घंटे में एक- डेढ़ लाख लेकर कैश वैन आती है। कैश लोड करने के पहले शिफ्ट में मौजूद लोग दौड़ पड़ते हैं लाइन लगाने। अॅाफिस में जब तब शोर उठता है आ गया, आ गया.. और लोग कुर्सी छोड़ कर उसी तरह भागते हैं जैसे भूकंप का शोर उठने पर भागते थे।  
     कुछ लोग अब मजा लेने के लिए लिए बीच बीच में आवाज देने लगे हैं - आ गया..आ गया और शुरू हो जाती है रन फॉर मनी। एटीएम पर पहुंचने पर पता लगता है अफवाह थी, वैन नहीं आई है। खिसियाए साथी झेंप मिटाने के लिए पहले टॉयलेट जाते फिर मुह पोंछते हुए अपनी सीट पे आते हैं जैसे पैसा निकालने नहीं, पेशाब करने गए थे। कई दिनों से रन फॉर मनी का यह सिलसिला जारी है। 

7/2/16

तीसरी कसम ....!

       सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है ,  न हाथी है न  घोड़ा है ...वहां पैदल ही जाना है ... यह गाना करीब ५० साल पहले बनी  फिल्म तीसरी कसम का है . वहीदा रहमान और राज कपूर की इस फिल्म का गाना क्या है पूरी ज़िन्दगी का फलसफा है . फिल्म में राज कपूर ने तीन कसमे खाई थी . हाल ही में मेंरे साथ भी कुछ ऐसा हादसा हुआ की मैंने भी तीन कसमें खाई .
       गरीब रथ एक्सप्रेस से मैं घर जा रहा था . रिजर्वेशन कन्फर्म था . ऊपर की बर्थ थी लेकिन चिपचिपाती उमस के बाद कोच में ठंडी हवा के झोंके लगे तो नीचे बैठ थोडा सुस्ताने लगा. बैग अपनी बर्थ पर ऊपर रख दिया.  ट्रेन चली  राजनीत पर  बहस  भी चल पड़ी . आधा घंटा कैसी बीता पता ही नहीं चला. पानी की बोतल के लिए बैग की तरफ हाथ बढ़ाया . लेकिन यह क्या ..? बैग ऊपर नहीं था . मैं नीचे बैठा था और किसी ने बड़ी सफाई से ऊपर से बैग साफ कर दिया था . न मुझे न सह यात्रियों को समझ आयाकि बैग गया  कहाँ . कीमती सामान के नाम पर बैग में बिलकुल नया लैपटॉप, १६ -१६ जीबी के तीन पेन ड्राइव और एक स्मार्ट फोन था. जरूरी सामान के नाम पर पढने वाला एक चश्मा , स्कूटर और अलमारी की चाभियाँ और एक हफ्ते पहले खरीदी एक कच्छी थी. इसके बाद एफ़ाइआर की औपचारिकता पूरी की गयी . 

        आमतौर पर लैपटॉप लेकर यात्रा नहीं करता . लेकिन कंपनी ने कुछ दिन पहले पुराने की जगह एक लेटेस्ट लैपटॉप दिया था. इस लिए कर्त्तव्यपारायणता से परिपूर्ण  था . सोचा ऑफिस के कुछ काम, ऑफ के दिन घर से भी निपटा लूँगा सो लैपटॉप रख लिया .  पता नहीं किसकी नज़र लग गयी . बैग मेरा चोरी हुआ था लेकिन मैं चोर जैसा मुह लिए पैदल ही घर पंहुचा . उस दिन मैंने भी तीन कसमे खाई.....
१. ट्रेन में लैपटॉप लेकर नहीं चलूँगा .
२.यात्रा में बैग हमेशा अपने पास आँख के सामने रखूँगा
३. और तीसरी कसम ..कभी ऑफिस को घर नहीं ले जाऊंगा .

6/14/16

का.. बे चिल कर रहे हो का?


बात बहुत पुरानी नहीं है। यही कोई दो- ढाई दशक पहले, अंगरेजी बोलने वाला अपने को नवाब समझता था भले ही लिखने में बहुत मिस्टेक करता हो। लेकिन ढेर सारे ऐसे लोग थे जो ग्रामेटिकली करेक्ट अंगरेजी लिखते लेकिन पब्लिक में बोलने में लटपटा जाते। रैपिडेक्स भी उनका हौसला नहीं बढ़ा सका। भला हो इंटरनेट, सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन का, अंगरेजी का अब सोशलाइजेशन हो गया है। 
अब सब धान बाइस पसेरी।  एफबी, वाट्सऐप पर जिसे देखो अंगरेजी ढेले हुए है। नुक्कड़ पर बरफ बेचने वाला बबलू भी और चौराहे पर गुटखा बेचने वाला गुड्डïू भी। बस कम्युनिकेट हो जाए कि आप कहना क्या चाहते हैं, ग्रामर भले ही गलत हो.? हू केयर्स। जस्ट चिल यार टाइप। हाथ में स्मार्ट फोन (भले ही चीनी ब्रांड), दोनों कान में ठेपी, फटही जींस उसके पीछे खोंसा हुआ माबाइल, खोपड़ी के बचे बाल को बार-बार खड़ा करने का असफल प्रयास करते हाथ, बिना मोजे का कैनवस का जूता। सब लगे हैं कूल डूड बनने और दिखने की कोशिश में।  इन्हें देख अपको लगेगा वॉव..क्या कूल हैंं। लेकिन तभी देसी लहजे में सवाल दागेगा - का.. बे चिल कर रहे हो का? नहीं यार एक फिलिम देख रहे .. क्या माइंड ब्लोइंग फिलिम है गुरू। 
कूल डूड सा दिखने और कडक़ अंगरेजी तोडऩे वाला यह लौंडा इंटर फेल हो तो अचरज नहीं। ऐसे लोग मोमो या चाऊमीन में चिली सॉस कस के पेलते हैं फिर सुबह घंटा भर कमोड पर चिलकते हुए चिल करते (निकालते) हैं। गुद्दी (खोपड़ी के पीछे का हिस्सा) घुटाए और आगे के बाल को जेल लगा कर खड़ा किए डूड इसी तरह की बात करते कहीं भी मिल जाएंगे। लोअर, मिडिल और अपर सब क्लास में यही हाल। पूरा समाजवाद है। अपर क्लास का डूड महंगे पार्लर में गुद्दी घुटवाता है तो गरीब डूड अपनी गल्ली के सैलून में खोपड़ी पर चाइना मशीन चलवाता है। 
एक जमाना था जब लोग बाल को सलीके से संवारने के लिए जेब में कंघी रखते थे। अब कैजुअल दिखने के लिए बाल बार बार बिगाड़ते चलते हैं, अपलोड- डाउनलोड टाइप।  वाई-फाई स्पीड  बढिय़ा है तो चिल करते नहीं है नही तो चीखते हैं। और हम चिलचिलाती धूप में चिल करते इन कूल डूड को देख बोल ही देते हैं .. वॉव.. माइंड ब्लोइंग..!  

5/29/16

जवान होता एक बूढ़ा घर..

मेरा ननिहाल।मिर्जापुर का यह घ्रर बूढ़ा होकर भी जवान है। काेई ढाई सौ साल पुराना। इसका ऊपरी कलेवर बदलता रहता लेकिन दिल वही पुराना वाला।  इस घर के आगे एक नीम का पेड़ हुुआ करता था। वो उम्र पूरी कर चला गया तो उसके बाद एक गुलमोहर  लहलहाता था इस घर के सामने। पीछे एक पोखरी थी ...भटवा की पोखरी..वोभी सूख गई।  पहले बाहर वाला गेट नहीं था, सिर्फ चबूतरा था।  ऊपर टिन शेड।                                                                                                    बगल में एक कूआं था। कूओं अब भी है लेकिन उसमें पानी नहीं। धमाचौकड़ी होती। थी। दलगिरिया की माई..बिल्लाड़ो बो, किलरू साव...बिस्सू ...सेठ,  गोबरहिया गच्च..भटवा की पोखरी,पातालतोड़ कुआं ...उफ..! कितने किस्से,कितनी यादें । पहले गर्मी की छुट्टी की मतलब होता था ननिहाल और ननिहाल का मतलब मिर्जापुर, मतलब मस्ती। रोज गंगा नहाते थे। गंगाजल पीकर आते फिर चार आने की शुद्ध घी की जलेबी खाते। अब न गंगाजी वैसी रहीं न जलेबी। जाने कहां गए वो लोग जो पा..लागी और राम भज...का जवाब जियत रहा बच्चा.. से देते थे।  वो दिन भी क्या दिन थे।

5/23/16

मैं हूं न..!
थोड़ी आस्था, थोड़ी जुबानी, आज सुनाता एक सच्ची कहानी। मेरा एक दोस्त है चंद्रशेखर। बड़ा गुणी। जी न्यूज में कई साल तक मंथन करता रहा। अचानक मन उचटा, नौकरी छोड़ जा बैठा संतों के चरणों में। पूरी तरह बाबा तो नहीं बना लेकिन आजकल बाबाओं पर डाक्यूमेंट्री बनाने की धुन सवार है। जुबान पर सरस्वती जेहन में श्याम, अब यही है उसका नया मुकाम। जब राधे-श्याम हैं तो गृहलक्ष्मी का क्या काम। सो किराए के घर में चंद्रशेखर अकेले ही रहता है। और साथ रहता है माखन चोर श्याम। वैसे एक-दो मोटे चूहे भी हैं साथ देने को। मठ, मंदिर, आश्रम जहां भी जाते माखनचोर श्याम की छोटी सी प्रतिमा हमेशा साथ रहती। एक दिन चंद्रशेखर ने श्याम से पूछ ही लिया.. तुमको साथ लिए घूमता, तुम हो भी या नहीं? श्याम कहां कुछ बोलने वाले थे..।
इसी बीच चंद्रशेखर कुछ दिनों के लिए बाबा के आश्रम गया हुआ था। इस बार श्याम को साथ नहीं ले गया, छोड़ गया था घर की रखवाली को। हालांकि घर में पूंजी के नाम पर तीन लाख का एक कैमरा, एक लाख का कंप्यूटर, लैपटाप और टीवी के अलावा कुछ खास नहीं था।
लेकिन एक रात सूने घर पर चोरों की नजर पड़ ही गई। चोर छत की जाली तोडऩे लगे। पड़ोसी को आहट हुई, उसने चुपके से देखा तो चार चोर जाली तोड़ छत पर पड़ी सीढ़ी लगा आंगन में उतर रहे थे। चोरों ने फटाफट कैमरा, कंप्यूटर सब बांध लिया था , बस पैसे की तलाश में थे। पड़ोसी चुपके से छत पर उतरा। उसने आंगन में लगी सीढ़ी खींच ली और शोर मचाया। पूरा मोहल्ल जमा हो गया। पुलिस भी आ गई । चोर फंस चुके थे। पुलिस घर में घुसी, चोरों की तलाश शुरू हुई। चारों उसी कमरे में बेड के नीचे दुबके मिले जहां श्याम विराजमान थे। चोरों को क्या पता था कि जिस घर में घुस रहे हैं वहां उनसे भी बड़ा एक चोर (माखनचोर)पहले से मौजूद है। एक चोर की सुताई होने लगी तो दार्शनिक अंदाज में बोला- साहेब हम तो झोपड़ी में सोअत रहे, इहां कैसे पहुंचे नहीं पता। चंद्रशेखर को अगले दिन सूचना दी गई। घर आकर देखा तो सारा सामन तहस नहस था। लेकिन श्याम अपनी जगह विराजमान थे.. वैसे ही शांत भाव से मुस्कराहते हुए..जैसे कह रहें हों - मैं हूं न..।
....चंद्रशेखर को जवाब मिल गया था।

3/12/16

एक सफर मुख्तसर सा...!


दिल्ली मेट्रो में नैनो सी मुलाकात...इंद्रप्रस्थ से नोएडा सेक्टर 18 तक का मुख्तसर सा सफर। ...आप तो बिल्कुल नहीं बदले, कहां ठहरें हैं, कहां—कहां गए, किससे—किससे मिले, इंडिया फिर कब आएंगे, अच्छा फिर मिलते हैं,फिर से लिखना शुरू कीजिए... हमदोनों गले मिले...बाय...!
कुछ ऐसी ही थी शनिवार को मित्र अभिषेक ओझा से मेरी मुलाकात। अभिषेक अमेरिका से कुछ दिनों के लिए भारत आए थे। संडे को वापस जाएंगे। भागदौड की​ जिन्दगी में हमदोनों बस इतना सा समय निकाल सके। लेकिन दुनिया के दूसरे छोेर से आया दोेस्त मिला तो सही...मेट्रो सिटी में तो पडोसी हाथ भी नही्ं मिलाते।

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