राजू बिन्दास! ( Raju Bindas..! )
जैसा नाम वैसा काम, कोई शक!
9/26/19
9/13/19
गणपति बाप्पा मोरया, अपना चूहा लेता जा…!
गणपति बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ….इस उद्घोष के साथ गुरूवार 12 सितम्बर को गणपति प्रतिमा का विसर्जन धूमधाम से हुआ। लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि मुझे कहना पड़ा- गणपति बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ लेकिन अपना चूहा तो लेता जा…! गणपति का वाहन चूहा है, यह सब जानते हैं।
घर में चूहा या चुहिया दिखना कोई खबर नहीं होती। गणेशोत्सव के दौरान भी दिखते हैं। घर में यदाकदा दिखने वाले चूहों को चूहेदानी में फंसा कर दूसरी गली में छोड़ने, पेस्टीसाइड या रैट-किल से टपका कर छुटकारा पाने का आम चलन है।
वैसे जीव प्रेमियों के लिए आजकल रैटपैड भी लोकप्रिय है जिसमें चूहे चिपक जाते लेकिन मरते नही। उन्हें आप कहीं दूर जाकर लकड़ी की डंडी से छुड़ाकर फेक आते हैं। मेरे घर में भी यही परम्परा चली आ रही थी। घर में जीव हिंसा निषेध क़ानून लागू है। लेकिन कुछ दिन पहले अचानक कुछ ऐसा हुआ कि घर में चूहा दिखना सामान्य घटना नहीं रह गयी।
अब चूहा दिखते ही आपातकाल लागू हो जाता है। कश्मीर के आपरेशन आलआउट की तर्ज़ पर ऑपरेशन चूहा शुरू हो जाता है और तबतक जारी रहता है जब तक उसका सफाया न हो जाये या उसे घर के बहार न खदेड़ दिया जाये। घरों में चूहों और चुहिया लोगों का आना जाना तो लगा ही रहता है।
कुछ दिन पहले भी घर में एक मोटा “मूस” ( मोटा चूहा जो रेलवे स्टेशन की पटरियों के नीचे पाया जाता) किचन की पाइप से घुस आया था क्योंकि सिंक की जाली फिक्स नहीं थी। एक दो दिन उसकी खटर पटर जारी रही। हम लोग इग्नोर करते रहे कि चला जायेगा अपनेआप।

लेकिन फिर एक दिन तडके करीब साढ़े तीन बजे गहरी नींद में था अचानक पैर की उंगली में तेज दर्द हुआ, नीद खुल गई। हडबडा के उठ बैठा। लाइट जला देखा कि पैर में अंगूठे की बगल वाली उंगली से खून निकला रहा था। समझते देर न लगी कि उसी कमीने चूहे ने बाईट ली है, क्योंकि ऐसा सुना नहीं कि सांप तीसरी मंजिल तक चढ़कर काटते हैं।
तभी एक खरगोश टाइप “मूस” आलमारी के नीचे से निकल कर दूसरे कमरे में जाता दिखा। पूरे घर में जाग हो गयी। तुरंत ऑपरेशन चूहा शूरू हुआ, जो करीब आधे घंटे तक जारी रहा जबतक चूहा घर के बाहर नहीं खदेड़ दिया गया। उस दिन ऑफिस में बताया तो साथी हंसने लगे एक ने सलाह दी कि जंगली चूहे ने डसा है इस लिए ATS की मदद लेनी पड़ेगी।
मैंने कहा, अबे चूहा था आतंकी नहीं। बतया गया ATS मतलब टिटनेस का इंजेक्शन। सो डॉक्टर के पास पहुंचा। डाक्टर ने पूछा जमीन पर सोये थे क्या। नहीं डॉक्टर, कमीने ने बाकायदे बेड पर चढ़ कर उंगली चबाई है। डाक्टर बोला चूहा जंगली था सो रैबीज के चार इंजेक्शन लगेंगे जो कुत्तों के काटने पर लगते हैं। चार इंजेक्शन की प्रक्रिया एक माह में पूरी हुई। हाइड्रोफोबिया (रैबीज से होने वाली बीमारी) तो नहीं हुआ लेकिन तब से चूहाफोबिया जरूर हो गया है।

जरा खट-पट हुई नहीं कि चूहे की आशंका से नींद उड़ जाती है। इस बीच गणेश प्रतिमा विसर्जन की रात किचन में करीब साढ़े दस बजे चूहा देखे जाने की ब्रेकिंग न्यूज़ आई। फिर शुरू हुआ ऑपरेशन “मूस”। दोनों कमरे बंद कर दिए गए। घर का मुख्य द्वार खुला रखा गया। फिर किचन में चूहे की खोज शुरू हुई। लेकिन करीब 20 मिनट तक सन्नाटा, कोई सुराग नहीं लग रहा था।
चूहा दम साधे कहीं दुबका था। तभी खिड़की के शीशे और जाली के बीच कमीना नजर आ गया। बड़ी चतुराई से जाली के सहारा लम्बवत खड़ा था। जाला मारने वाले डंडे से शीशा ठोंकते ही वह कुलांचे मारता हुआ किचन से निकला और पलक झपकते ही मुख्यद्वार से फरार हो गया।सब ने राहत की सांस ली। इस तरह ऑपरेशन चूहा कम्प्लीट हुआ। मैंने गणपति बाप्पा का नमन किया कि अगले बरस तू जरूर आ लेकिन फिलहाल अपनी सवारी तो लेता जा….!
8/16/19
अब चीन के सामने खडी हो रही “वाल ऑफ़ इंडिया”
इस बार आजादी की वर्षगांठ कुछ अलग थी। कश्मीर से काँटा निकल गया, लद्दाख यूनियन टेरिटरी बन गया और अब पीओके की बारी है। कुछ ऐसी ही तैयारी है। भूटान को मजबूत करने के लिए प्रधानमन्त्री 17 अगस्त को भूटान जा रहें हैं। उसके पहले सिक्किम में बीजेपी का गढ़ मजबूत हो गया। नेपाल भी अपना भाई है। मतलब भारत लगातार पूरब से पश्चिम तक अपनी दीवार को मजबूत कर रहा है। इधर भारत में बहुत कुछ तेजी से घट रहा है। सुप्रीमकोर्ट में अयोध्या मामला सुनवाई के फाइनल स्टेज में पहुँच चुका है, तीन तलाक अब अपराध की श्रेणी में आ चुका है। पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय अदालत में कुलदीप जादव के मामले में मुंह की खा चुका है। कई वर्षों बाद भारत वर्ष फिर से पूरे “फॉर्म” में है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 17 अगस्त को भूटान नरेश, राजकुमार और प्रधान मंत्री लोटे शेरिंग से मुलाक़ात करेंगे। एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के शुरुआत में ही भूटान यात्रा इस बात का संकेत है कि सरकार “सबसे पहले पड़ोसी” की नीति को कितनी अहमियत देती है। यानी भारत, चीन के सामने एक मजबूत दीवार खड़ी कर रहा।
समय भारत का है
न न, यहाँ नरेन्द्र मोदी या बीजेपी की तारीफ़ नहीं हो रही। न ही मैं भाजपा सदस्य हूँ, मैं तो एक आम नागरिक हूँ। अगर आप सच्चे देशभक्त हैं तो पार्टी और धर्म से अलग हट कर सोचना होगा। भारत के इतिहास पर नजर डालनी होगी, आपको महसूस होगा कि बात कुछ ऐसी है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
हस्ती मिटती नहीं हमारी
ठीक है, बीजेपी दूसरी बार और मजबूती से सत्ता में आई और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी बहुत मेहनती हैं। लेकिन यह मौका बीजेपी या नरेन्द्र मोदी को किसने दिया? जाहिर है आपने। इतिहास गवाह है कि भारत ने बहुत उतार चढ़ाव देखें हैं। लेकिन हालत बदलते जरूर हैं, कभी कुछ दशकों बाद कभी कई सदियों बाद। ईसापूर्व की तीसरी और दूसरी सदी का मौर्य साम्राज्य याद है न ? गुप्त काल याद है न जब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। शुंग और हर्षवर्धन का भी समय याद है न। गुलामी की दो सदी भी याद होगी, फिर आजादी, चीन से जंग में करारी हार। लेकिन फिर पाकिस्तान से जंग में पडोसी का नक्शा ही बदल दिया था भारत ने। इसके बाद कश्मीर धीरे-धीरे टीसने लगा। और जब दर्द असह्य हो गया तो स्पेशल स्टेटस की सर्जरी करनी पड़ी। घाव धीरे धीरे भर ही जायेंगे। मतलब साफ़ है कश्मीर और लद्दाख की दीवार पहले से अधिक मजबूत होगी।
“सेवेन सिस्टर्स” के बाद अब भूटान
भारत के लिए चीन और पाकिस्तान से लगी सीमा को सुरक्षित करना हमेशा से प्राथमिकता में रहा है। चीन और पाकिस्तान लगातार इसे कमजोर करने के फिराक रहते हैं। पड़ोसियों के मंसूबे को समझते हुए भारत ने धीरे धीरे अपनी सीमाओं को सुरक्षित किया। एक समय था जब “सेवेन सिस्टर्स” कहे जाने वाले पूर्वोत्तर भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम में से कुछ इलाके अलगाववाद और आतंकवाद से जूझ रहे थे। इनका असर पूरे पूवोत्तर भारत पर पड रहा था। भारत ने 1975 में सिक्किम को भारत गणराज्य में शामिल किया तो भी इसका काफी विरोध हुआ था। इसके बाद भारत सरकार धीरे धीरे पूर्वोत्तर के विकास पर खास ध्यान दिया, वहां के लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया और नतीजा आपके सामने है। अब बचे नेपाल और भूटान। इन देशों पर चीन की नजर है। चीन नहीं चाहता कि ये देश भारत के बहुत करीब जाएँ। लेकिन भारत की लगातार इस पर नजर है। छोटा होने के बावज़ूद यह देश भारत के लिए सामरिक और राजनयिक रूप से काफ़ी मायने रखता है।
भूटान के ‘जे खेंपो’ की अगवानी-मेज़बानी
भारत भी इसी साल भूटान के ‘जे खेंपो’ की अगवानी-मेज़बानी भी करेगा। जे खेंपो भूटान में राजगुरु का पद है। उनकी नियुक्ति भूटान के राजा करते हैं। अभी इस पद को ट्रुल्कू जिग्मे चोएद्रा संभाल रहे हैं। भूटान-भारत दोस्ती का एक स्मारक स्तूप बनाने की भी योजना है। भूटान में भारत इसी साल कुछ नई हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना भी शुरू कर सकता है। भूटान को लेकर भारत की सरगर्मी के पीछे इस इलाके में चीन की सक्रियता और लगातार उसकी बढ़ती दख़लंदाजी है। आपको याद होगा पिछले साल भारत और चीन की सीमा पर करीब डेढ़ माह तक आमने-सामने युद्ध की स्थिति बन गए थे। क्योंकि चीन ने भूटान के अधिकार क्षेत्र वाले डोकलाम पहाड़ियों पर कब्जे की कोशिश की थी। चूंकि भूटान को भारत की ओर से सामरिक सुरक्षा मिली हुई है। साथ ही डोकलाम भारत के लिए भी सामरिक महत्व की जगह है इसलिए भारत को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा था। उम्मीद है चीन सह अस्तित्व के सिद्धांत को समझेगा।
समय भारत का है
न न, यहाँ नरेन्द्र मोदी या बीजेपी की तारीफ़ नहीं हो रही। न ही मैं भाजपा सदस्य हूँ, मैं तो एक आम नागरिक हूँ। अगर आप सच्चे देशभक्त हैं तो पार्टी और धर्म से अलग हट कर सोचना होगा। भारत के इतिहास पर नजर डालनी होगी, आपको महसूस होगा कि बात कुछ ऐसी है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
हस्ती मिटती नहीं हमारी
ठीक है, बीजेपी दूसरी बार और मजबूती से सत्ता में आई और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी बहुत मेहनती हैं। लेकिन यह मौका बीजेपी या नरेन्द्र मोदी को किसने दिया? जाहिर है आपने। इतिहास गवाह है कि भारत ने बहुत उतार चढ़ाव देखें हैं। लेकिन हालत बदलते जरूर हैं, कभी कुछ दशकों बाद कभी कई सदियों बाद। ईसापूर्व की तीसरी और दूसरी सदी का मौर्य साम्राज्य याद है न ? गुप्त काल याद है न जब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। शुंग और हर्षवर्धन का भी समय याद है न। गुलामी की दो सदी भी याद होगी, फिर आजादी, चीन से जंग में करारी हार। लेकिन फिर पाकिस्तान से जंग में पडोसी का नक्शा ही बदल दिया था भारत ने। इसके बाद कश्मीर धीरे-धीरे टीसने लगा। और जब दर्द असह्य हो गया तो स्पेशल स्टेटस की सर्जरी करनी पड़ी। घाव धीरे धीरे भर ही जायेंगे। मतलब साफ़ है कश्मीर और लद्दाख की दीवार पहले से अधिक मजबूत होगी।
“सेवेन सिस्टर्स” के बाद अब भूटान
भारत के लिए चीन और पाकिस्तान से लगी सीमा को सुरक्षित करना हमेशा से प्राथमिकता में रहा है। चीन और पाकिस्तान लगातार इसे कमजोर करने के फिराक रहते हैं। पड़ोसियों के मंसूबे को समझते हुए भारत ने धीरे धीरे अपनी सीमाओं को सुरक्षित किया। एक समय था जब “सेवेन सिस्टर्स” कहे जाने वाले पूर्वोत्तर भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम में से कुछ इलाके अलगाववाद और आतंकवाद से जूझ रहे थे। इनका असर पूरे पूवोत्तर भारत पर पड रहा था। भारत ने 1975 में सिक्किम को भारत गणराज्य में शामिल किया तो भी इसका काफी विरोध हुआ था। इसके बाद भारत सरकार धीरे धीरे पूर्वोत्तर के विकास पर खास ध्यान दिया, वहां के लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया और नतीजा आपके सामने है। अब बचे नेपाल और भूटान। इन देशों पर चीन की नजर है। चीन नहीं चाहता कि ये देश भारत के बहुत करीब जाएँ। लेकिन भारत की लगातार इस पर नजर है। छोटा होने के बावज़ूद यह देश भारत के लिए सामरिक और राजनयिक रूप से काफ़ी मायने रखता है।
भूटान के ‘जे खेंपो’ की अगवानी-मेज़बानी
भारत भी इसी साल भूटान के ‘जे खेंपो’ की अगवानी-मेज़बानी भी करेगा। जे खेंपो भूटान में राजगुरु का पद है। उनकी नियुक्ति भूटान के राजा करते हैं। अभी इस पद को ट्रुल्कू जिग्मे चोएद्रा संभाल रहे हैं। भूटान-भारत दोस्ती का एक स्मारक स्तूप बनाने की भी योजना है। भूटान में भारत इसी साल कुछ नई हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना भी शुरू कर सकता है। भूटान को लेकर भारत की सरगर्मी के पीछे इस इलाके में चीन की सक्रियता और लगातार उसकी बढ़ती दख़लंदाजी है। आपको याद होगा पिछले साल भारत और चीन की सीमा पर करीब डेढ़ माह तक आमने-सामने युद्ध की स्थिति बन गए थे। क्योंकि चीन ने भूटान के अधिकार क्षेत्र वाले डोकलाम पहाड़ियों पर कब्जे की कोशिश की थी। चूंकि भूटान को भारत की ओर से सामरिक सुरक्षा मिली हुई है। साथ ही डोकलाम भारत के लिए भी सामरिक महत्व की जगह है इसलिए भारत को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा था। उम्मीद है चीन सह अस्तित्व के सिद्धांत को समझेगा।
10/18/18
सांड़ तो सांड़ है, आप तो इंसान हैं...!
अष्टमी
की शाम का वक़्त...उत्सव का माहौल,चाय की गुमटियों पर गहमागहमी...टीवीचैनल, TCS और
दूसरी कम्पनियों के स्टाफ जो शिफ्टों में काम करते हैं, ब्रेक
में चाय की चुस्कियों के साथ गप लड़ा रहे थे. तभी भगदड़ मच गयी. पता चला कि दो तगड़े सांड़ लड़ रहे हैं. किसी ने डंडा पटका तो एक सांड डिवाइडर के बीच बने नाले में जा गिरा.
नाला संकरा था सो उसके लिए मुड़ना संभव नहीं था. करीब 6 फुट गहरे नाले में सांड़ सहमा सा खड़ा था. कुछ देर मजमा लगा. लेकिन
फिर सब अपने रास्ते. मैं भी अपन काम निपटाने लगा. करीब आधे घंटे बाद जिज्ञासा हुई.
जहाँ सांड गिरा था, वहां सन्नाटा था. सांड नहीं दिखा. लगा
शायद निकल गया होगा. लेकिन सवाल उठा कि छह फिट गहरे नाले से सांड कैसे निकला होगा.
करीब पांच मीटर आगे ध्यान से देखा तो सांड़ कुछ
आगे सरक कर चुपचाप एक फिट तक भरे नाले के पानी में अभी
भी खड़ा था. शाम के सात बज रहे थे, त्यौहार का सीजन, ऐसे में सुबह से पहले कोई सुध लेगा, इसकी संभावना कम
थी. यानी रातभर वह अँधेरे नाले में फंसा रहेगा. सोच के मन विचलित होने लगा. इसलिए
नहीं कि वह गोवंश का था. मेरे लिए तो एक जीव संकट में था. वह घोडा, गधा, कुत्ता या अन्य कोई भी जीव हो सकता था. बस नगर
निगम के कैटल कैच करने वाले को फोन घुमा दिया. आधे घंटे के भीतर नगर निगम का दस्ता
स्पॉट पर था. फिर शुरू हुई सांड को निकालने की कवायद. दस्ते में 5-6 लोग थे. सांड
को फंदे में फंसाया गया. लेकिन सांड भारी हट्टा-कट्टा था. मदद को और लोग भी आगये.
करीब आधे घंटे की मशक्कत के बाद सांड को बहार निकाल लिया गया.
उसके निकलते ही पता नहीं क्यों भीड़ ने जय श्रीराम का नारा लगाया. संभवतः
इसलिए कि अगले दिन रामनवमी और दशहरा था. मैं एक जीव के कष्ट को कम करने में अपनी
भूमिका से संतुष्ट था यह जानते हुए भी कि सड़क पर लड़ते हुए सांडों से किसी इंसान की
जान भी जा सकती थी. पहले भी हादसे हो चुके हैं. वर्चस्व के लिए लड़ना तो सांडों का
स्वभाव है. लेकिन सड़कों पर घूमते सांड से किसी की जान पर न बन आये, यह देखना नगर निगम का काम है. उन्हें गोशाला पहुँचाना भी उनका ही काम है,
जिसे नगर निगम अक्सर नहीं करता.
फिलहाल लखनऊ नगर निगम की टीम ने महाअष्टमी की शाम
सराहनीय काम किया था. गोमतीनगर विभूतिखंड में मेरे ऑफिस के सामने के नाले में गिरे
उस सांड को सूचना मिलने के आधे घंटे के अंदर सकुशल बहार निकाल लिया. यही कुशलता और
तत्परता वह आगे भी दिखाए तो समझूंगा की इस विजय दशमी को नगर निगम की कार्य
संस्कृति में घुस कर बैठे रावण के अकर्मण्यता रुपी सर को अलग करने में सफतला मिली.
9/1/18
..अब मेंढक नहीं टर्राते
भादो भी आ गया, बारिश अब
चली-चला की वेला में हैं.पर्यावरण दिवस भी काफी पहले बीत गया लेकिन इस ओर ध्यान
नहीं दिया गया कि इस बार तो मेंढक टर्राये ही नहीं. पहले पहली बारिश के साथ ही मेढक
टर्र टर्र बोलने लगते थे. कहाँ गये सब मेंढक? रात में जब ढेर
सारे मेंढक एक साथ टर्राते थे तो लगता कम्पीटीशन हो रहा. उनकी आवाज से नीद नहीं डिस्टर्ब
होती थी. लेकिन अब तो आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती. अब मेंढकों का न टर्राना डिस्टर्ब
करने लगा है. यह प्रकृति के लिए खतरनाक संकेत है. यह साबित करता है की गिद्ध,गौरैया,चमगादड़ के बाद अब मेंढक भी गायब हो रहे.
यह सब अंधाधुंध पेस्टीसाइड के प्रयोग का ही दुष्परिणाम है.
प्रसंगवश बचपन की एक घटना याद आगयी. उस
समय मेढक पकड़ना एक खेल था.डीशेक्शन के लिए हम लोग खेल के मैदान से मेंढक पकड़ लाते
थे और स्कूल की लैब में उन पर अध्ययन होता
था. एक बार टीचर ने कहा रानाटेग्रीना का स्केलेटन लाओ. किसी ने बताया कि नमक के
पानी में देर तक मेंढक उबालने से स्केलेटन अलग हो जाता है.सो हमलोग एक बड़ा सा मेंढक
पकड़ लाये. उबालने के लिए छोटी सी हंडिया खरीदी गयी. लेकिन पेरेंट्स से सख्त
चेतावनी मिल गयी कि खबरदार,घर के अन्दर मेंढक नहीं उबाल सकते. अंत
में तय हुआ कि दोस्त की छत पर मेंढक पकाना तय हुआ.
अब मेंढक को बेहोश करना समस्या
थी. किसी ने कहा केरोसिन पिला दो. इससे बात नहीं बनी तो ड्रॉपर से फिनायल पिलाया
गया. बेचारा मेंढक अबतक बेसुध हो चूका था.डा पानी में नमक डालकर मेंढक की हांड़ी चढ़ गयी. एक घंटे से
अधिक उसे उबाला गया. तय हुआ की जब हांडी ठंडी हो जाये तो कुछ घंटे बाद मेंढक का
स्केलेटन निकाला जायेगा. हम लोग नीचे आ गये. करीब चार घंटे बाद जब जब छत पर गये तो
हांडी लुढकी हुई थी और मेंढक गायब था. थोड़ी दूर मुंडेर पर उसकी कुछ हड्डीयां बिखरी
हुईं थी. कोई कौआ हांड़ी मेंढक की दावत उड़ा गया था.
अब तो असली मेढकों की टर्राहट नहीं
सुनाई पड़ती, कौए भी कम हो रहे हैं. राजनीतिक मेंढक
साल भर टर्राते रहते, राजनीतिक कांव कांव दिन भर होती रहती.
देश की आबो-हवा के लिए यह अच्छा नहीं.
5/26/18
साया, ताड़ का पेड़ और लोहा सिंह
आजकल टीवी में एक वीडियो
वायरल है। इसमें एक लड़की का साया बंदर की
माफिक ऊपर चढ रहा है। कहा जा रहा कई अस्पतालों की ईमारत पर रात 3 बजे ऐसा साया
चढ़ता दिखाई देता है। लाखों लोग इसे मुंह
खोले देख रहे। इसे देख मुझे ताड़ के पेड़ पर सुबह शाम चढ़ता ताड़ी वाला याद आता है जो
कमर में छोटी सी मटकी लटकाए ताज़ी ताड़ी निकलने के लिए बंदर की तरह सटासट चढ़ जाता था।
पटना में बचपन के दिनों ऐसे दृश्य आम थे क्योंकि वहां तब ताड़ के पेड़ बहुत थे। उन पेड़ से ताड़ी निकलने वालों के लिए यह काम बाएं
हाथ का खेल था। जिसने भी फर्जी वीडियो बना
कर सोशल मीडिया पर डाला है उसने अगर ताड़ी वाले को देखा होता तो आसानी से पकड़ में
आने वाले ऐसे झूठे वीडियो न बनता, लेकिन उसे पता है भारत में पढ़े लिखे अनपढ़ों का बहुमत है जो किसी भी झूठे
वीडिओ को वायरल करने को हमेशा तैयार रहते।
ताड़ी से मुझे लोहा सिंह
याद आ रहा है। पटना में हमारे ग्वाले का
नाम लोहा सिंह था।10-12 बढ़िया जर्सी गाय
थीं उसके पास। उसके नेपाली अस्सिटेंट का
नाम बहादुर था जो चारा और गायों को सानी वानी लगाने का काम देखता था। तब पैकेट वाले दूध का चलन नहीं था। सो सुबह शाम ताजा दूध के लिए डब्बा लेकर ग्वाले के
पास जाना पड़ता था। शाम को मेरी ड्यूटी
लगती थी। लेकिन शनिवार शाम तनाव में
बीतती थी। क्योंकि उस दिन शाम को लोहा
सिंह ताड़ी पी लेता था और वहीं खटाल में खटिया पर लेटा लेटा अपने रिश्तेदारों को गरियाता
था। गाय दुहने का काम उस दिन बहादुर करता
था। हालांकि तड़ीयल लोहा सिंह दूध लेने आये
लोगों को कुछ नहीं बोलता लेकिन फिर भी मुझे डर लगता था।
8/8/17
चोटी कटवा को बाहर नहीं घर में तलाशिये !

अलग अलग रूप में प्रगट होता अंधविश्वास
वैसे तो भूत पिशाच हर काल में चर्चा का विषय रहे हैं। पिछले 17 साल में इसके किरदार नए नए रूप में प्रगट होते रहे हैं। 2001 में दिल्ली और आसपास के क्षेत्र में मंकीमैंन का जलवा कुछ महीनो तक था। वो रात में छत पर, गली में अचानक प्रगट होता और लोगों को नोच कर भाग जाता। शिकार, घटना के बाद लोगों को जख्म दिखात और सब दहशत में आ जाते। रात रात जागते रहो चिल्ला कर पहरा देते। यह सब कुछ महीनो तक चला। मंकीमैंन नहीं पड़ा गया। कुछ दिन बाद वो गायब हो गया । इसके बाद 2002 में मुहंनोचवा उत्तर भारत के ग्रामीण इलाको में प्रगट हुआ। वो लोगों का मुहं नोच भाग जाता था। किसी ने उसे रोबोट की तरह बताया किसी ने उड़नतश्तरी से आया एलियन बताया। कुछ ने कहा उसकी ऑंखें लाल लाल थी और मोटर साइकिल के इंजन की तरह आवाज करता आता था। वह बरसात के मौसम में प्रगट हुआ और दर्जनों का मुंह नोच कर गायब हो गया। तब उसपर गाना भी बना था - लाल लाल चोंचवा से मुह नोच लेई मुंह नोचवा, बच के रहा चाची बच के रहा बचवा। 2-3 महीने सनसनी फैलाने के बाद मुंहनोचवा भी गायब हो गया। अब 2017 में मंकी मैंन या मुंह नोचावा, बाल काटने वाली महिला का रूप धरकर आया है। मीडिया इस अफवाह को सावन में गरम पकोड़े की तरह बेच रहा है। संयोग से इस बार भी बारिश के मौसम में ही चोटी चोर आंटी आई है। देखना है चोटी चोर कितने दिनों तक लोगों की नीद चुराती है ।
चुड़ैल नहीं मास हिस्टीरिया
इस तरह की अफवाह, मानसिक रूप से बीमार लोगों को सबसे पहले चपेट में लेती। हिस्टीरिया और मनोविकार के शिकार लोगों में यह अफवाह तरह तरह का आकर ले कर प्रगट होती रही है। जैसे इस बार चोटी काटने वाली महिला के रूप में। कुछ लोग मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए भी मनगढ़ंत किस्से सुना इस तरह की अफवाह को हवा देते। अब तक न मंकीमैंन पकड़ा गया न मुंहनोचावा, इसी तरह चोटी काटने वाली चुड़ैल भी कभी नहीं पकड़ी जाएगी। कुछ दिनों बाद इस चुड़ैल का गायब होना तय है। लेकिन अफवाह के चक्कर में कुछ निर्दोष लोगों की जान और अमन चैन खतरे में है। यह चिंता का विषय है। दरअसल यह अशिक्षा और विवेकशून्यता का नतीजा है। मीडिया और प्रशासन का फोकस लोगों में जागरूकता बढाने पर होना चाहिए। बेहतर होगा ऐसी अफवाहों की अनदेखी की जाये । जब ऐसी खबर नहीं होगी तो लोगों को हिस्टीरिया के दौरे भी नहीं पड़ेंगे। तब न चोटी कटेगी न चोटी काटनेवाली महिला दिखेगी। इन मामलों में सबसे जरूरी है शिकार लड़की या महिला का मानसिक इलाज क्योंकि छोटी काटने वाली महिला कहीं बहार नहीं उनके अन्दर ही मौजूद है।
3/2/17
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी..
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी.. फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी.. निदा फाजली की ये लाइनें कितनी ही सटीक हैं आज के शहरों पर। ध्यान से देखिए भीड़भाड़ वाले शहर आगरा के बीचोबीच एक खंडहर सी अनजान कोठरी में छह महीने से पड़े इस कंकाल को। ताजमहल के शहर में अपनी ही लाश का खुद मजार कैसे बनता है आदमी, यह पता चला उस खंडहर की दूसरी कोठरी में २० दिन से पड़ी लाश से।
यह कंकाल एक करोड़पति परिवार की बेटी का है, यह कंकाल एक अरबपति परिवार की बहू का है। २० दिन से पड़ी लाश एक टूटे हुए अरमानों की है। सुना है वो खूबसूरत थी, संस्कारी थी, जो अपनों के लिए तिल-तिल कर मर रही थी, जो भूखी-प्यासी मर गई लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। यह कंकाल ७० साल की विमला अग्रवाल का है और २० दिन से पड़ी लाश उनकी बेटी वीना का है। विमला के पिता गोपाल दास अग्रवाल की गिनती अपने जमाने के बड़े सेठों में होती थी। आगरा रावतपाड़ा में आलीशान मकान था उनका। विमला की ससुराल दौलत और शोहरत के मामले में मायके से भी आगे है। उनका विवाह इलाहाबाद के बेहद प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। पति कैलाश चंद बड़े गल्ला व्यापारी थे। जेठ बालमुकुंद इलाहाबाद के सिरसा नगर पंचायत के चार बार चेयरमैन रहे। उनके बाद भतीजे भानू प्रकाश दो बार चेयरमैन रहे। यह जानकारी उनके दूसरे भतीजे एवं बाल मुकुंद के बेटे श्यामकांत अग्रवाल ने दी है।
उन्होंने बताया कि विमला की शादी १९५५ में हुई थी। ससुराल इलाहाबाद के मेजा में है। भवन पीली कोठी के नाम से जाना जाता है। तीन साल बाद ही उनके पति कैलाश चंद का बीमारी से निधन हो गया। उनकी एक ही बेटी थी वीना। उसे लेकर विमला आगरा आ गईं। उन्होंने ससुराल में आना जाना भी नहीं रखा। विमला की ससुराल अरबपति मानी जाती है। मायका भी करोड़पति था। लेकिन उनकी जिंदगीआगरा के उस मकान में कटी जिसमें खाने का एक दाना तक न था, बिजली का कनेक्शन महीनों से कटा हुआ था। सुना है वीना खूबसूरत और संस्कारी थी। उसे किसी डाक्टर से प्यार हो गया था। जो शादी का वादा कर आगे की पढ़ाई करने विदेश गया तो फिर कभी वीना से नहीं मिला। और वीना उसका इंतजार करते करते मर गई। वीना की कहानी गुलजार की फिल्म मौसम से काफी कुछ मिलती जुलती है। अब क्या क्या लिखें, विमला और वीना की दर्दनाक दास्तान चार दिन से आगरा के अमर उजाला और दूसरे पेपरों में लगातर छप रही है लेकिन ऐसी खबरें तूफान नहीं खड़ा करतीं। आजकल छद्म आजदी के लिए हंगामा करने वालों का है। सोशन मीडिया पर मैनेज्ड लाइक्स और हिट्स का है। मन करे तो निदा फजली की ये लाइने भी सुन लीजिएगा..
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नयी दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आखिरी साँस तक बेक़रार आदमी .....
-निदा फाजली
जरा फासले से मिला मिला करो..
ऐसे ही क खबर करीग डेढ़ साल पहले नोएडा से आई थी। क्या बड़े शहरों में बड़े बड़े लोग इतने अकेले हो जाते हैं? नोएडा के सेक्टर ५९ के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली ने आखिर सात महीने से अपने को क्यों कैद कर रखा था? इनमें एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थी और दूसरी टेक्सटाइल डिजायनर. कुछ सालों से उनके पास जॉब नहीं थी लेकिन इतनी भी कडक़ी नहीं थी कि भूखों मरने की नौबत आ जाए. फिर उन्होंने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया? हालत इतनी खराब हो गई कि बुधवार को अनुराधा की मौत हो गई और सोनाली की हालत भी खराब है. इसका रेडीमेड उत्तर है-दोनों डीप डिप्रेशन में थीं. लेकिन जवाब इतना आसान नहीं है. एक कर्नल की पढ़ी-लिखी बेटियां, जिनका एक सगा भाई और दूसरे रिश्तेदार भी हों वो क्यों नोएडा की व्यस्त लोकैलिटी के एक फ्लैट में अपने को कैद कर लेती हैं और पूरे सात महीने इसकी खबर किसी को नहीं होती. ये पॉश सी लगने वाली कौन सी जंगली बस्ती हैं जिसके उलझे हुए रास्तों पर कब कोई अकेला दम तोड़ दे, पता ही नहीं चलता. शहर जैसे-जैसे बड़ा और मॉर्डन होने लगता है तो क्या फैमिली, लोकैलिटी और शहर को जोडऩे वाला इमोशनल फाइबर कमजोर पडऩे लगते हैं? बशीर बद्र की ये लाइंस आज बार- बार याद आ रही हैं... कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो... लेकिन क्या शहरों में ये फासले इतने बड़े हो जाते हैं कि अपनों के एग्जिस्टेंस को ही भुला दिया जाता है.? यहां सवाल छोटे या बड़े शहर का नहीं है, सवाल हमारी परवरिश, संस्कारों और पर्सनॉलिटी का है. सवाल इसका है कि हमारी इमोशनल और सोशल बॉन्ड्स कितनी स्ट्रॉंग हैं. स्कूलों में तो मॉरल वैल्यूज के बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन हम इमोशनली कितने स्ट्रांग हैं ये तो हम परिवार में ही सीखते हैं. अनुराधा और सोनाली अपनी इस कंडीशन के लिए खुद जिम्मेदार हैं तो उनका भाई, रिश्तेदार और पड़ोसी भी कम जिम्मेदार नहीं. ये सबको सोचना होगा कि हमारे इर्दगिर्द के फासले इतने बड़े ना हों जाएं कि इंसानों की बस्ती में सब अजनबी ही नजर आएं.

उन्होंने बताया कि विमला की शादी १९५५ में हुई थी। ससुराल इलाहाबाद के मेजा में है। भवन पीली कोठी के नाम से जाना जाता है। तीन साल बाद ही उनके पति कैलाश चंद का बीमारी से निधन हो गया। उनकी एक ही बेटी थी वीना। उसे लेकर विमला आगरा आ गईं। उन्होंने ससुराल में आना जाना भी नहीं रखा। विमला की ससुराल अरबपति मानी जाती है। मायका भी करोड़पति था। लेकिन उनकी जिंदगीआगरा के उस मकान में कटी जिसमें खाने का एक दाना तक न था, बिजली का कनेक्शन महीनों से कटा हुआ था। सुना है वीना खूबसूरत और संस्कारी थी। उसे किसी डाक्टर से प्यार हो गया था। जो शादी का वादा कर आगे की पढ़ाई करने विदेश गया तो फिर कभी वीना से नहीं मिला। और वीना उसका इंतजार करते करते मर गई। वीना की कहानी गुलजार की फिल्म मौसम से काफी कुछ मिलती जुलती है। अब क्या क्या लिखें, विमला और वीना की दर्दनाक दास्तान चार दिन से आगरा के अमर उजाला और दूसरे पेपरों में लगातर छप रही है लेकिन ऐसी खबरें तूफान नहीं खड़ा करतीं। आजकल छद्म आजदी के लिए हंगामा करने वालों का है। सोशन मीडिया पर मैनेज्ड लाइक्स और हिट्स का है। मन करे तो निदा फजली की ये लाइने भी सुन लीजिएगा..
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नयी दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आखिरी साँस तक बेक़रार आदमी .....
-निदा फाजली
जरा फासले से मिला मिला करो..
ऐसे ही क खबर करीग डेढ़ साल पहले नोएडा से आई थी। क्या बड़े शहरों में बड़े बड़े लोग इतने अकेले हो जाते हैं? नोएडा के सेक्टर ५९ के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली ने आखिर सात महीने से अपने को क्यों कैद कर रखा था? इनमें एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थी और दूसरी टेक्सटाइल डिजायनर. कुछ सालों से उनके पास जॉब नहीं थी लेकिन इतनी भी कडक़ी नहीं थी कि भूखों मरने की नौबत आ जाए. फिर उन्होंने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया? हालत इतनी खराब हो गई कि बुधवार को अनुराधा की मौत हो गई और सोनाली की हालत भी खराब है. इसका रेडीमेड उत्तर है-दोनों डीप डिप्रेशन में थीं. लेकिन जवाब इतना आसान नहीं है. एक कर्नल की पढ़ी-लिखी बेटियां, जिनका एक सगा भाई और दूसरे रिश्तेदार भी हों वो क्यों नोएडा की व्यस्त लोकैलिटी के एक फ्लैट में अपने को कैद कर लेती हैं और पूरे सात महीने इसकी खबर किसी को नहीं होती. ये पॉश सी लगने वाली कौन सी जंगली बस्ती हैं जिसके उलझे हुए रास्तों पर कब कोई अकेला दम तोड़ दे, पता ही नहीं चलता. शहर जैसे-जैसे बड़ा और मॉर्डन होने लगता है तो क्या फैमिली, लोकैलिटी और शहर को जोडऩे वाला इमोशनल फाइबर कमजोर पडऩे लगते हैं? बशीर बद्र की ये लाइंस आज बार- बार याद आ रही हैं... कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो... लेकिन क्या शहरों में ये फासले इतने बड़े हो जाते हैं कि अपनों के एग्जिस्टेंस को ही भुला दिया जाता है.? यहां सवाल छोटे या बड़े शहर का नहीं है, सवाल हमारी परवरिश, संस्कारों और पर्सनॉलिटी का है. सवाल इसका है कि हमारी इमोशनल और सोशल बॉन्ड्स कितनी स्ट्रॉंग हैं. स्कूलों में तो मॉरल वैल्यूज के बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन हम इमोशनली कितने स्ट्रांग हैं ये तो हम परिवार में ही सीखते हैं. अनुराधा और सोनाली अपनी इस कंडीशन के लिए खुद जिम्मेदार हैं तो उनका भाई, रिश्तेदार और पड़ोसी भी कम जिम्मेदार नहीं. ये सबको सोचना होगा कि हमारे इर्दगिर्द के फासले इतने बड़े ना हों जाएं कि इंसानों की बस्ती में सब अजनबी ही नजर आएं.
2/27/17
गर्दभ शक्ति बोले तो ASS power ..!
गधे को लेकर बीच बाजार में लट्ठम- लट्ठा।
किसने सोचा था कि भारत में इतने बड़े पैमाने पर गदहा युद्ध छिड़ जाएगा। गुजरात में कच्छ के गधे दुर्लभ हैं उनको जाने दें , आपके शहर में भी ओरिजनल गधे अब आसानी से कहां दिखते हैं। वैसे नकली गदहों की भरमार है।
पहले तो गधे और गदहे (मूर्ख) में अंतर समझ लीजिए । गधा जैसा मेहनती, बुद्धिमान, नेक, डेडिकेटेड और क्यूट जानवर दूसरा है क्या। जो वास्तव में मूर्ख हैं लेकिन अपने को सयाना समझते वो सबसे बड़े गदहे (मूर्ख) हैं। किसी का सीधा-मासूम होना मूर्खता का प्रतीक कब से हो गया। गधे तो सिर्फ चींपों-चींपों करते, लेकिन कभी इंसानों के बारे में चीप बातें नहीं करते। गधों के बारे में बार-बार चीप बातें कर मजाक उड़ाने वालों के लो आईक्यू पर तरस आता है। गधे का आईक्यू , भैंस से कहीं बेहतर होता। भैंस के आगे बीन बजाते रहिए वो मूढ़ों की तरह पगुराती रहेगी। लेकिन गधे के आगे सारंगी बजा के देखिये वो तुरंत चींपो चींपो कर रिसपांस देगा। ज्यादा परेशान करेंगे तो मारेगा दुलत्ती। बताइए भैंस मूर्ख या गधा। गधे की ताकत न समझने वाले ही गदहे (मूर्ख)हैं।
सोचिए घोड़़ा मेहनत करे तो उसे हार्सपावर बोलते और गधा धोबी के घर से घाट तक दिनभर लादी ढोता फिरे तो बोला जाता - धोबी का गधा न घर का न घाट का। गधे को लेकर कितनी निगेटिवटी भर दी गई हैं हमारे मन में । किसी की किस्मत साथ नहीं देती तो वो कहता फिरता .. हमारी किस्मत तो गधे के ..फलां से लिखी गई है। अब आपकी किस्मत खराब है तो इसमें गधा बेचारा क्या करे। किसी को अपमानित करना हो तो उसे गधे पर बैठाकर घुमाया जाता। इससे गधे की इमेज पर असर नहीं पड़ता लेकिन उसकी पीठ पर बैठकर जिसको घुमाया जाता वो मुंह दिखाने लायक नहीं रहता। अब गर्दभ शक्ति को पहचानने का समय आ गया । लेकिन गधे की ताकत न समझने वाले नादान हैं। गधे की पीठ हो या पिछाड़ी उसके अंगों में जितनी पावर है उतनी घोड़ों में कहां। तभी हमेशा गधे की दुलत्ती से बचने को कहा जाता, घोड़े की नहीं।
बचपन में पढ़ा था ए फॉर ऐस, ऐस माने गधा, डी फॉर डंकी, डंकी माने भी गधा। लेकिन बाद में पता चला कि अंगे्रजी में ऐस का एकऔर मतलब पिछाड़ी भी होता है। सावधान किया जाता है कि अफसर की अगाड़ी और गधे की पिछाड़ी से दूर रहना चाहिए। ये कहावत भी गधे की दुलत्ती की पावर के कारण बनी है। समय के साथ गधे की पिछाड़ी, शक्ति का प्रतीक बन कर उभरी हैं । गधे को सम्मान देने के लिए ही पिछाड़ी को अंग्रेजी ऐस भी बोला जाता। और बात - बात पर चुनौती दी जाती है कि अगर तुम्हारी पिछाड़ी में दम है तो फलां चीज कर के दिखाओ। यानी मूंछों का ताव और पिछाड़ी का भाव समान है।
तुम्हारे पिछवाड़े लात पड़ेगी, यह सुनते ही लोग बुरा मान जाते हैं। यह अंग्रेजी में भी उतना ही असरकारी है जैसे - आई विल किक योर ऐस.. वो तुरंत पलट कर जवाब देगा - किस माई ऐस। किसी को ऐसहोल बोल कर देखिए वो आपको गाली देने लगेगा। ये है ऐस पावर। गधा शालीन है, गधा धैर्यवान है बस कभी कभार चींपों-चींपों कर कहता - माइंड योर बिजनेस यू ऐसहोल..!
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