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2/12/17

हजरतगंज की उध्‍ाेड़-बुन..!


रफूगर श्‍ाा‌हिद हुसैन
लखनऊ का हजरतगंज, नवाबियत और नजाकत की मिसाल। समय बदला, हजरतगंज में भी बहुत कुछ बदला, अब भी बदल रहा। लेकिन अब भी बहुत कुछ ऐसा है जो बहुत नहीं बदला। आजकल हजरतगंज में खुदाई चल रही। कैथेड्रल चर्च के सामने मेट्रो का अंडरग्राउंड स्टेशन बनेगा। इसके सामने मेफेयर बिल्डिंग कभी गुलजार थी। मेफेयर फिल्म थियेटर के एक तरफ क्वालिटी रेस्त्रां दूसरी तरफ राम आडवानी की किताब की दुकान। थियेटर बंद हुआ, रेस्त्रां बंद हुआ, राम आडवानी भी गुजर गए। मेफेयर बिल्डिंग में अब रौनक कहां। 
मेफेयर की दूसरी तरफ हलवासिया बिल्डिंग के सामने एक पेट्रेल पंप था। बगल में था छोटा सा स्कूटर स्टैंड जिसका ठेकेदार मोटा सा जिसकी कमर झुकी रहती थी हमेशा । मैं स्कूटर वहीं खड़ा करता। अब वहां रिलायंस वर्ड है। इसी तरह जहां अब मल्टीलेवल पार्किंग है वहां पहले कोतवाली और फायरब्रिगेड थी। गंज के हनुमान मंदिर के पास आर्चीज गैलरी के बगल में एक सर्वप्रिय भोजनालय भी था। उसके मालिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वर्मा जी थे। खाने के
गंज में यहा कभ्‍ाी पेट्राोल पंप थ्‍ाा




बाद अक्सर  उनका भाषण भी सुनना पड़ता था। अब जहां कैफेडे है वहां केजकोजी कार्नर और कृष्णा स्वीट्स थी। वहां पनीर पकौड़ा बढिय़ा मिलता था। 
आर्काइव में करीब सौ साल पुरानी फोटो देखी। हजरतगंज में रोड के बीचोबीच कार पार्क होती थी तब। नवाब, फिरंगी और तालुकेदार मेफेयर में फिल्म देखना शान समझते थे। मैंने भी बहुत फिल्म देखी हैं यहां। बात करीब तीन दशक पुरानी है। हम मेफेयर में फिल्म देखने से पहले गंज का चक्कर लगाते थे, खूबसूरत गंज में घूमती खूबसूरती को निहारते और शान से फिल्म देखते। 
साहू थियेटर के बगल में रंजना रेस्त्रां था जहां बाद में बरिस्ता खुला। वो भी अब बंद हो चुका है। लेकिन उसके बगल की ड्राइक्लीनिंग की दुकान अभी भी जिंदा है। कितना बदल गया गंज। लेकिन अब भी कुछ है जो नहीं बदला। गंज का हनुमान मंदिर नहीं बदला, खादी की दुकान नहीं बदली, कॉफी हाउस भी वहीं है । मेफेयर के पास ही फुटपाथ पर बैठने वाला वह शख्स  भी कहां बदला जो दिन भर उधेड़-बुन में लगा रहाता। उसके सामने साड़ी और कीमती कपड़ों का ढेर लगा रहता और वो बड़ी तल्लीनता से कपड़ों के धागे उधेड़ कर उन्हें रफू करता रहता।  कुछ दिनों पहले गंज गया।  बेपनाह भीड़ में खोजने लगा अपने पुराने गंज को। तभी वो शख्स दिख गया उसी तरह उधेड़-बुन में लगा हुआ। कुछ भी तो नहीं बदला था उसमें, वही तल्लीनता, वही उधेड़-बुन।
 हां, उसके बाल जरूर सफेद हो गए थे और अब वो मेफेयर वाले फुटपाथ पर नहीं साहू के बगल में ड्राइक्लीनर के सामने बैठता है । नाम है शाहिद हुसैन उम्र करीब 65 साल। मुझसे रहा नहीं गया, पूछ ही लिया- जनाब करीब 30 साल से आपको इसी तरह रफू करते देख रहा। शाहिद हुसैन ने करेक्ट किया, 30 नहीं 40 साल से कर रहा हूं यह काम। एक जगह बैठे बैठे एक ही तरह के काम में ऊब नहीं होती? नहीं जनाब इसी तरह काम करते दो-तिहाई जिंदगी कट गई, बाकी भी कट जाएगी.. .. और राशिद हुसैन धीरे से मुस्करा दिए। उस मुस्कान में न ऊब थी न थकान। भीड़ और आपाधापी के बीच मुझे पुराना वाल गंज मिल गया था।

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