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6/8/10

इति मूत्राभिषेक!


वो रातें अभी भी मुझे याद हैं. सुस्सू वाली रात के बाद की सहर (सुबह), कहर बन कर टूटती थी मेरे कोमल मन पर. मेरी तरह आप भी तो बिस्तर पर सुस्सू करते बड़े हुए होंगे. अब सुस्सूआएगी तो करेंगे ही. कभी साफ टॉयलेट में, कभी गंदे टायलेट में, कभी दीवार पर, कभी किसी कोने में तो कभी खुले आम तो कभी चोरी छिपे. खबर तो ये भी है कि अमेरिका में स्वीमिंग पूल्स में नहाने के दौरान 25 प्रतिशत लोग पानी में ही सुस्सू कर देते हैं. ये प्रतिशत कुछ ज्यादा नहीं लगता? मान लिया जाए कि दो-तीन फीसदी लोग ही पानी में सू करते होंगे तो भी पूरा पूल सू युक्त हो गया ना? यूरिक एसिड का कंसंट्रेशन भले ही थोड़ा कम होगा और बाद में उस पानी को फिल्टर कर लिया जाए लेकिन उस समय तो आपका मूत्राभिषेक हो ही गया ना. वैसे सू-आचमन की तरह सू-स्नान भी इतना बुरा नहीं होता. याद हैं ना अपने मोरारजी भाई. हम सब तो बिस्तर पर सू-स्नान करते ही बड़े हुए हैं. पहले डायपर-वायपर कहां होते थे.
सच बताऊं, मैं तो छठे क्लास तक बिस्तर पर सू कर देता था. सू वाली रात के बाद की सहर मेरे कोमल मन पर कहर बन कर टूटती थी. छोटे-बड़े सब ताने मारते-घोड़े जैसा हो गया है फिर भी बिस्तर गीला कर देता है, शरम नहीं आती? शरम तो आती थी. पक्का इरादा कर सोता था कि आज रात बिस्तर गीला नहीं करूंगा. लेकिन गहरी नींद में सपना आता कि जोर की सू-सू आई है, मैं राजा बेटा की तरह ट्वायलट में प्रेशर रिलीज कर रहा हूं. प्रेशर खत्म होने की प्लीजेंट फीलिंग के बीच अचानक कुछ गुनगुनेपन का अहसास होता और आंख खुल जाती, टेंशन बढ़ जाता. गीले बिस्तर पर लेटे-लेटे सुबह का इंतजार करता. पोल खुलते ही फिर तानों का सिलसिला. जाड़ों में जब सू वाला गद्दा मुंडेर पर सुखाने के लिए डाला जाता तो लगता कि पूरे मोहल्ले के सामने खड़ा होकर सू सू कर रहा हूं और लोग हंस रहे हैं- वो देखो घोड़ा सू कर रहा है. किसी ने कहा, पेट में कीड़े होंगे तो कीड़े की दवा दी गई. फिर भी फर्क नहीं पड़ा. कुछ ने कहा साइकोलॉजिकल प्राब्लम है.
बिस्तर गीला करना कैसे छूटा पता नहीं. लेकिन साइकोलॉजिकल प्राब्लम तो है सू सू को लेकर शरारत करने को मन अब भी करता है. एक बार टे्रन में भारी भीड़ थी. सब टायलेट में लोग भरे हुए थे और मेरे ब्लैडर काप्रेशर बढ़ता जा रहा था. अगला स्टाप दो घंटे बाद था. जब नहीं रहा गया तो कोच के गेट पर खड़े हो कर पूरी ताकत से प्रेशर रिलीज कर दिया. उस दिन सौ की स्पीड में भाग रही ट्रेन में पीछे की कोचों में गेट पर खड़े या खिडक़ी के पास बैठे कितने लोगों ने ना चाहते हुए भी सू-आचमन किया, पता नहीं.
एक और वाकया. हॉस्टल में सेकेंड फलोर पर मेरा रूम था. मेरे विंग में दस कमरों के बाद ट्वायलेट था. जाड़ों की रात में दस कमरों को पार कर सू करने जाना पहाड़ पार करने जैसा लगता. कोशिश रहती कि नींद में ही ये काम निपटा दिया जाए. उस दिन ट्वायलेट की लाइट नही जल रही थी. आव देखा ना ताव, अंदाज से ही टारगेट की तरफ तड़-तड़ा दिया. तभी कोई चिल्लाया ये क्या हो रहा है. आवाज मारकंडे गुरू की थी जो कान पर जनेऊ चढ़ा कर नियमानुसार बैठकर मूत्र विसर्जन कर रहे थे और मैंने अंधेरे में उनका मूत्राभिषेक कर दिया था. तब से खड़े हो कर सू करने में सुरक्षित महसूस करता हूं. वैसे भी गंदे ट्वायलेट के बजाय खुले में कच्ची जमीन पर या झाड-झंखाड़ को यूरिया से पोषित करना बेहतर लगता है. हां, स्वीमिंग पूल वाला प्रयोग नहीं किया है. वैसे ऐसा कर के ‘अपने ही सुस्सू में फिसलने’ की कहावत चरितार्थ नहीं करना चाहता.

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