मेरा ननिहाल।मिर्जापुर का यह घ्रर बूढ़ा होकर भी जवान है। काेई ढाई सौ साल पुराना। इसका ऊपरी कलेवर बदलता रहता लेकिन दिल वही पुराना वाला। इस घर के आगे एक नीम का पेड़ हुुआ करता था। वो उम्र पूरी कर चला गया तो उसके बाद एक गुलमोहर लहलहाता था इस घर के सामने। पीछे एक पोखरी थी ...भटवा की पोखरी..वोभी सूख गई। पहले बाहर वाला गेट नहीं था, सिर्फ चबूतरा था। ऊपर टिन शेड। बगल में एक कूआं था। कूओं अब भी है लेकिन उसमें पानी नहीं। धमाचौकड़ी होती। थी। दलगिरिया की माई..बिल्लाड़ो बो, किलरू साव...बिस्सू ...सेठ, गोबरहिया गच्च..भटवा की पोखरी,पातालतोड़ कुआं ...उफ..! कितने किस्से,कितनी यादें । पहले गर्मी की छुट्टी की मतलब होता था ननिहाल और ननिहाल का मतलब मिर्जापुर, मतलब मस्ती। रोज गंगा नहाते थे। गंगाजल पीकर आते फिर चार आने की शुद्ध घी की जलेबी खाते। अब न गंगाजी वैसी रहीं न जलेबी। जाने कहां गए वो लोग जो पा..लागी और राम भज...का जवाब जियत रहा बच्चा.. से देते थे। वो दिन भी क्या दिन थे।