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12/11/12

ओ..त्तेरी की...

ओ..त्तेरी की...

तुम भी बड़े वाले हो...माइंड ब्लोइंग, ओ...त्तेरी की...लग गई वॉट...इट इज हॉट...
चक्कर क्या है? जिसे देखो वही इन शब्दों को दाग रहा है और इनको रचने वाले कॉमनमैन ही हैं. वैसे भी आजकल कॉमनमैन इन-फैशन है. जैसे पहले फिल्मों की 'इमोशनल '  कर देने वाली कहानी उनके हिट होने की गॉरन्टी हुआ करती थी और उसमें मुख्य किरदार अक्सर कॉमनमैन ही निभाता था. हीरो होकर भी वो निरीह कॉमनमैन था. ये अलग बात है कि वो अक्सर अपना दिल हवेली में रहने वाली हीरोइन से लगा लेता था. अगर हीरो अमीर तो हीरोइन आपके मोहल्ले की कॉमन गल्र्स की तरह होती थी. इसके बाद तो आंसुओं का जो दरिया बहता उसमें आम दर्शक तीन घंटे डूबता-उतराता और फिक्चर हाल के बाहर वो 'पैसा वसूल ' वाले अहसास के साथ निकलता. इसके बाद कुछ दिनों उस दर्शक रूपी कॉमनमैन में हीरो-हीराइन समाए रहते और फिल्म हिट. आजकल भी यही हो रहा. कोई मुद्दा हो, प्राब्लम हो, उसे कॉनमैन से जोड़ दो. बस मामला हिट. लेकिन कौन कहता है कि कॉमनमैन बेचारा होता है. कॉमनमैन अब सयाना हो गया है. वो जितना बेचारा दिखता है उतना है नहीं. जिस तरह शब्द, समय के साथ चोला बदलते रहते हैं उसी तरह ये 'कॉमनमैन ' का चोला बदलता रहता है. कॉमनमैन के शब्द भी बदलते रहते हैं, अर्थ बदलते रहते हैं या यूं कहिए वो नए-नए शब्द गढ़ते रहते हैं. एक जमाना था जब 'गुरु ' शब्द की बड़ी रिस्पेक्ट थी. अब तो कहा जाता है.. अरे वो बड़ी 'गुरू ' चीज है. गुरु, गुरूघंटाल हो गया. 'उस्ताद ' का भी यही हाल है. पहले उस्ताद की बड़ी रिस्पेक्ट थी अब किसी से कहिए कि उस्तादी दिखा रहे तो वो बुरा मान जाता है. इसी तरह आजकल 'कॉमनमैन ' का एक बड़ा हिस्सा भी गुरू या उस्ताद हो गया है. समझ गए ना वही ', 'बड़े वाले '. और कॉमनमैन का माइंड तो डिफेक्टिव कुकर की सीटी का तरह जब-तब ब्लो करता रहता है. बात-बात पर 'माइंड ब्लोइंग '. पहले जो धत् तेरी की था वो अब 'ओ त्तेरी की ' हो गया है. जब कुछ ऐसा हो जाए जिसमें एम्बैरेसमेंट के साथ मजा भी आए तो समझिए हो गया 'ओ त्तेरी की '. जैसे गर्लफ्रेंड के साथ आप फिल्में देखने गए और इंटरवल में पता चले कि अगली रो में आपका बॉस अपनी फ्रेंड के साथ बैठा है तो इसमें मुंह से निकलेगा.. ओ त्तेरी की. पहले जहां खाट खड़ी होती थी अब वॉट लगती है. क्योंकि अब खाट का चलन कम हो गया है. और हां, जिसे देखो वही हॉट है इंडक्शन चूल्हे की तरह, जो टच करने से गर्म नहीं लगता लेकिन सम्पर्क में आते ही स्टीम बनने लगती है. इंजन और मौसम को गरम होते सुना था. कभी-कभी मिजाज भी गरम हो जाता है लेकिन अब जिसे देखो वही 'हॉट ' है. 'हॉट 'होना काम्प्लीमेंट है.
वैसे इन शब्दों को कॉमनमैन मुंह में मसाले की तरह भरे घूमता रहता है. और जहां मौका मिला..पिच्च. वो फिफ्टीज-सिक्स्टीज की फिल्मों के कॉमनमैन की तरह निरीह नहीं, थोड़ा चालू किस्म का है, थोड़ा-थोड़ा करप्ट भी है और अक्सर नियम-कानून भी तोड़ता है. सिस्टम को कोसता है लेकिन अकसर दफ्तर लेट पहुंचता है. कहीं भी कूड़ा फेंक देता है, कहीं भी मसाला खाकर थूक देता, फिर गंदगी के लिए नगर निगम को कोसता है. नो पार्किंग पर बाइक खड़ी करता है फिर ट्रैफिक जाम के लिए पुलिस को भला-बुरा कहता है. अपने वाहन के पेपर्स दुरुस्त नहीं रखता फिर वसूली का आरोप लगाता है. अपने घर के कूड़े की पॉलिथीन पड़ोसी के दरवाजे के सामने फेंक कर सिविक सेंस पर लेक्चर पिलाता है. पॉवर कट पर बिजली वालों को पानी पी-पी कर बुरा-भला कहता है लेकिन मीटर खराब करवा कर या कटिया मार एसी चलाता है. रेलवे से तो उसका सास- बहू वाला रिश्ता है, मजाल है कभी रेलवे की तारीफ कर दे लेकिन मौका मिलने पर 'डब्लू टी ' सैर का मजा लूट आता है लेकिन फिर भी वो 'निरीह ' कॉमनमैन कहलाता है. लेकिन मार्डनिटी और ट्रेडिशन तो साथ-साथ चलते हैं सो अभी भी ढेर सारे 'कॉमनमैन ' पुराने वाले फॉरमैट में जी रहे हैं जो कानून को मानते है, नियमों का पालन करते हैं और उनको ऐसा करते देख सयाना कॉमनमैन बोलता है..ओ त्तेरी की...

10/26/12

ना.. लो ‘यूथ’ के प्राण रे....
आज बात करते हैं यूथ सिंड्रोम की. यानी यूथ के नाम पर आप जो करते हैं,
खाते, पीते, पहनते और बोलते हैं, वही सही है. जो
जरूरत से ज्यादा टेक्नो सैवी है, गैजेट के चक्कर में क्रेजी-वेजी है वही
यूथ है. वही यूथ है जिनका  बिहेवियर हॉस्टल रूम और पब्लिक प्लेस पर एक
जैसा होता है, स्लैंग और एब्यूसिव लैंग्वेज जिनकी जुबान पर और दुनिया
ठेंगे पर होती है. जो टीन एज में तोरई, लौकी और कद्दू से 'हेट' करता है,
दूध से दूर  भागता है पर
कोल्ड ड्रिंक का वेट करता है. वो अक्सर पैटीज से पेट  भरता है. बर्गर,
बिरयानी और पास्ता से है उसका वास्ता.
      माना कि इंडिया में आधी आबादी युवा है लेकिन जिसको देखो वही
'यूथ' को डिफाइन करने पर तुला है. जब  खास किस्म का 'स्टेट ऑफ माइंड'
बुद्धि और विवेक पर डॉमिनेट करने लगता है तो वो 'सिंड्रोम' बन जाता है.
यूथ सिंड्रोम से ग्रस्त बंदा हमेशा अपने को युवा और दूसरों को अंकल या
आंटी समझता है  भले ही वो उससे
पांच-छह साल ही बड़े हों. ये सिंड्रोम बड़ा इंफेक्शियस होता है. वैसे तो
अंकल-आंटी बड़ा सम्मान सूचक शब्द है लेकिन आजकल जिस तरह से इस बाण का
प्रयोग हो रहा, उससे तो अच्छे  खासे यूथफुल लोगों के प्राण  भी बॉडी से
निकलने को आते हैं. अगर नहीं निकले तो वो ना चाहते हुए  भी 'अंकल-आंटी
सिंड्रोम' से ग्रस्त हो जाते हैं. सब्जीवाला, दूधवाला, कबाड़ीवाला,
परचूनिया उम्र
में बराबर या बड़ा होने पर  भी आपको आंटी बोले तो चलता है लेकिन कोई
हमउम्र यंग सेल्समैन, बैंक एग्जीक्यूटिव या कोई हैंडसम 'गाय' या गर्ल
आपको अंकिल बोले तो..?
बची खुची कसर टीवी पर तरह-तरह के ऐड ने पूरी कर दी है. जैसे ग्रे हेयर
वाले को एक लड़की अंकल बोलती है तो वो डिप्रेशन में आ जाता है और अगले
दिन हेयर डाई लाकर उसी लड़की को रिझाता है. इसी तरह स्मार्ट फोन वाली
लड़की, पुराना फोन यूज कर रहे एक
सज्जन को 'अंकल' कह कर चिढ़ाती है. जब रिस्पेक्ट वाली 'आंटी' युवाओं के
लिए चिढ़ाने वाली 'आंटी' बन जाए तो इसे सिंड्रोम ही कहेंगे. यूथ जब
उम्रदराज हो जाता है तो यूथफुल जाता है. इसकी वजह से 'यूथ' और 'यूथफुल'
में एक तरह का पर्सनालिटी क्लैश शुरू
हो गया है. यूथ, यूथफुल लोगों को युवा मानने को तैयार नहीं और यूथफुल
अपने को बजुर्ग मानने को तैयार नहीं. इसी क्लैश का नतीजा है 'डीके बोस'
और अब 'तेरी मां की यूथ'.
क्या जिसकी जुबान पर बात बात पर गॉली या डबल मीनिंग वाले वड्र्स हों वही
यूथ है? और जवाब में सफेद बालों के बावजूद अपनी हेयर स्टाइल और टैटू
जडि़त शरीर के कारण यूथफुल दिखने वाली सपना
 भवनानी जब सलमान  खान को 'तेरी मां की यूथ लिखा' टी-शर्ट  भेंट करती है
तो इसे क्या माना जाए? वो यूथ को क्या मैसेज देना चाहती हैं?
पहले इस तरह के द्विअर्थी शब्द गली मोहल्ले में सुनाई पड़ते थे. लोग
उन्हे इग्नोर कर जाते थे. लेकिन अब ये अपमार्केट और ग्लोबल हो गए हैं. अब
इग्नोर नहीं कर सकते. सुन कर हूट या ट्वीट नहीं किया तो आउट फैशन्ड और
स्टीरियो टाइप माने जाएंगे. ये स्टीरियो भी अजब बला है स्टीरियोफोनिक हुए
तो मार्डन और स्टीरियो टाइप हुए तो बोरिंग. सब बजाने और सुनने का फर्क
है. सिचुएशन बड़ी का प्लेक्स्ड है और इसमें नुकसान सबका हो रहा
है. कभी सोचा है कि जिन्हें हम 'यूथ' कह कर डिफाइन कर रहे हैं वो रूरल और
सेमी अर्बन को जाने दें, खालिस अर्बन यूथ के एक चौथाई हिस्से को  भी
रिप्रेजेंट नहीं करते. क्या शहरों में रहने वाले बाकी तीन चौथाई युवा,
यूथ नहीं हैं. जो शालीन, संजीदा और करियर को लेकर कांशस हैं. वो भी
मार्डन है और आगे बढऩे की सोचते हैं. जो सोचते हैं अपने देश और सिस्टम के
बारे में, करप्शन उन्हें परेशान करता है. लेकिन वो 'यो-यो'
टाइप नहीं या बियर कैन लेकर पब्लिक प्लेस पर हुल्लड़ नहीं मचाते,
लड़कियों को नहीं छेड़ते, तोडफ़ोड़ नहीं करते. वो  भी नेट सैवी हैं, नए
गैजेट-शैजेट पसंद करते हैं, पार्टी में जमकर इंज्वाय करते हैं लेकिन
दूसरों की कीमत पर नहीं. ढिंडोरा पीटने, स्लोगन लिखने या चीखने से कोई
युवा या यूथफुल नहीं हो जाता. ये भी एक स्टेट ऑफ माइंड है. इस 'यूथ
सिंड्रोम' के शोर में आपके शहर का दो तिहाई यूथ क्या चाहता है इसकी फिक्र
किसी को नहीं.

8/2/12

आज कुछ तूफानी करते हैं



'वेरी सिम्पल '  कितना सरल है कहना और कितना कठिन है करना. जिसे देखो जुटा है कुछ तूफानी करने में. आखिर ये तूफानी कहां से आया? सिम्पल..ये तो ऐड का स्लोगन है. ऐसे ही कुछ दूसरे स्लोगन भी याद हैं...ठंडा मतलब... डर के आगे जीत है... दाग अच्छे हैं..और भी पता नहीं क्या-क्या. आखिर इनमें ऐसा क्या खास है कि हजारों स्लोगंस के बीच कुछ खास लाइंस हमारी जुबां से चिपक जाती हैं. इनमें एक बात कॉमन है वो है सिम्प्लीसिटी. लेकिन सिम्पल उतना सिम्पल होता नहीं. एक सज्जन से पूछा, यार ये तूफानी करना क्या होता है? उन्होंने झट से मोबाइल स्क्रीन सामने कर दिया और संता-बंता के कई तूफानी जोक सामने आ गए. समझ गए ना, उन्हें सबके सामने शेयर किया तो तूफान खड़ा हो जाएगा.
        कुछ लोग सेलफोन और नेट पर तूफानी करना ज्यादा पसंद करते हैं. जैसे नोमान नाम के एक जनाब अपना मोबाइल सेट जितनी तेजी से बदलते हैं उससे कही तेज गति से उनकी रिंग और कॉलर टयून बदलती है. उनको तूफानी कॉलर ट्यून लगाने का बड़ा शौक है. एक  से एक इनोवेटिव और नॉटी. स्टूडेंट्स और टीन्स में तो ये चलता है लेकिन अगर आप किसी कॉरपोरेट ऑफिस में काम करते हैं तो तूफानी करने में थोड़ा सावधानी बरतनी चाहिए वरना बॉस तूफानी मोड में आ जाते हैं. हुआ ये कि उन्होंने एक कॉलर ट्यून लगाई जिसमें कॉल करने पर उधर से लड़की की आवाज कुछ यूं आती थी...अरे पहले मुझसे बात करो ना..पॉज के बाद वो फिर कहती..अरे मुझसे बात करो ना प्लीज, मेरा मन कर रहा है तुमसे बात करने का, बहुत सताते हो. उनके कई दोस्त इस ट्यून के झांसे में आ गए और कुछ सेकेंड्स तक खीसें निपोर कर बातें भी की. लेकिन दो दिन भी नहीं बीते थे कि उनके बॉस का फोन आ गया. पहले शांति से ट्यून को सुना फिर उन्होंने नोमानी के साथ जो तूफनी किया, उसके बाद से तो नोमानी के फोन पर कुछ दि जय अंबे.. जगदंबे मां.. वाली कॉलर टयून ही सुनाई पड़ी. 
     वैसे 'चलो आज कुछ तूफानी करते हैं ' ..यह स्लोगन कोल्ड ड्रिंक लेने वालों से ज्यादा दूसरे ड्रिंक्स लेने वालों को हिट करता है. झाग वाला कोई भी ड्रिंक हो, पहले वो जिगर में झाग और आग पैदा करता है फिर बाहर आता है तूफान बन कर फिर लोग सड़कों पर तूफानी करने लगते हैं. अगर सन्नाटे में कोई कार डिवाइडर तोड़ कर दूसरी साइड चारों टांगे ऊपर कर पलटी मिले तो समझ लेना चाहिए कि ड्राइवर ने झाग वाला ड्रिंक लेकर तूफानी किया है. कभी-कभी दो झाग वाले जब आमने-सामने होते हैं तो वहां उठे तूफानी में गरजने और कड़कने की आवाजें भी आती हैं. उस कड़क से किसी की कार का शीशा टूटता है और किसी का सिर फूटता है. इसके बाद पुलिस वालों को तूफानी करने का मौका मिल जाता है. ऐसे ही कुछ लोग ड्रिंक्स लेने के बाद गटर या नाली के पानी के साथ तूफानी अवतार में नजर आते हैं. 
 सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो तूफानियों की भरमार है. वो साधारण सी फोटो या घटना में अपनी क्रिएटिविटी डाल कर उसे तूफानी बना देते हैं. कुछ दिन पहले फेसबुक वॉल पर एक छोटे बच्चे की तस्वीर देखी. गली की नाली में गिरने से ऊपर से नीचे तक कीचड़ में सना हुआ. वैसे तो वो रो रहा था. लेकिन वो ऐसे पोज में खड़ा था और उसके फोटो पर किसी ने स्लोगन लिख दिया था 'आज कुछ तूफानी करते हैं ' , इनसब से उस फोटो को देखने का नजरिया ही बदल गया था. एक साधारण सी फोटो तूफानी फोटो बन गई थी. तूफानी करने में महिलाओं को भी उतनी ही महारत हासिल है. जैसे कई महिलाएं मई में तूफानी होने इंतजार करती थी कि एक-दो तूफाननुमा अंाधी के दौर हो जाएं तो कच्चे आम सस्ते हों और तूफानी गति से अचार बनने में जुटें. लेकिन जून भी खत्म होने को है, तूफान की जाने दें ठीक से आंधी भी नहीं आई इस बार. कच्चे के बजाय पके आमों से पट गए हैं बाजार. जो चलिए पके आमों से ही कुछ तूफासनी करते हैं.

4/8/12

कोटि कोटि परनाम चल गयी दूकान


इन दिनों काफी एनर्जाइस्ड महसूस कर रहा हूं. अरे बसंत-वसंत का चक्कर या
व्रत का कमाल नहीं है. लेकिन बात कुछ खास है कि रात बारह बजे के आसपास
अचानक मूड फ्रेश हो जाता है, सारी थकान दूर हो जाती है और पूरे शरीर में
करेंट सा दौडऩे लगता है. ये सब होता है बिल्कुल फ्री. न, न आप बिल्कुल
गलत समझ रहे हैं. ना मैं किसी मसाज पॉर्लर में जाता हूं ना ही बॉर में.
सामने टीवी और हाथ में रिमोट. दिन में खबरों का लेकर चीखने वाले कुछ
खबरिया चैनल रात होते ही तरह-तरह की ऊर्जा वाले 'प्राश' बेचने लगते हैं.
'प्राश' समझ गए होंगे, अरे वही च्यवनप्राश का कजिन. हमने तो बचपन में
बहुत च्यवनप्राश खाया है. लेकिन अब तो नए पैकेज वाले एनर्जी पैक्ड
'प्राश' आ गए हैं. किसी में सोना, किसी में चांदी का भस्म. अब समझ में
आया कि सोना- चांदी के दाम क्यूं बढ़ रहे हैं. मिडनाइट बाजार के इन
प्रॉडक्ट्स में एक और खास बात होती है कि हमेशा अपने एक्चुअल प्राइस से
काफी कम दामों में उपलब्ध रहते हैं. इन 'प्रॉश' का प्रजेंटेशन इतना
शानदार होता है कि नजरें प्रॉडक्ट से शिफ्ट होकर प्रेजेंटर के
'पावरप्वाइंट' पर जा टिकतीं हैं. इनमें ह्यूमर भी होता है. बस आपको
थोड़ा एमैजिनेटिव होना पड़ेगा.
रात होते ही टीवी शो एकदम पावर पैक्ड हो जाते हैं. जड़ी-बूटी का कमाल तो
देखिए कि लाठी टेक कर चलने वाले लोग टेनिस खेलने का दावा करने लगते हैं.
चाहे 'प्रॉश' हो या बूटी, सबका प्रजेंटेशन एक जैसा- आगे की लाइन में बैठे
जाने-पहचाने स्टार और सेलेब्रिटी टाइप पेशेंट. सब के पास चमात्कारिक
क्योर की कहानी. वैसे रात के पैकेज में और भी बहुत कुछ है- रहस्य-रोमांच,
रुहानी ताकतों से रूबरू कराने वाले ताबीज, शैतानी शक्तियों से बचाने वाले
कवच, तरह तरह के यंत्र और मंत्र.
आधी रात को अलग अलग चैनल्स पर अलग डॉक्टर अपनी-अपनी माइक्रसकोप लिए आपकी
'पावर' को परखते मिल जाएंगे. तम्बाकू से काले पड़ गए दांत लिए जबरन
अंग्रेजी बोलने की कोशिश करने वाले ये डाक्टर पहले आपको किसी 'सब्जबाग'
में घुमाएंगे और बताएंगे कि कैसे आपकी 'पावर' बढ़ाने वाली जड़ी-बूटियों
को उनकी देखरेख में निजी बगीचे में उगाया जाता है. वो बार-बार माइक्रसकोप
से क्या देखते हैं पता नहीं. लेकिन ऐसा हर डाक्टर अपने ग्राहकों से
बार-बार ये तस्दीक जरूर करता है कि असली डाक्टर वही हैं बाकी सब नकली
हैं. वो ये भी बताते हैं कि 24 घंटे उनकी एम्बुलेंस स्टेशन के बाहर खड़ी
रहती है ग्राहकों, सॉरी पेशेंट्स की ताक में. अब सोचिए कीजिए जरा. स्टेशन
से निकल रहे किसी अजनबी को एम्बुलेंस वाले कैसे पहचानते होंगे कि गुरू,
बस यही है यौन रोगी, दगोच लो. और अचानक नीलीबत्ती चमकाते, सायरन बजाते
एम्बुलेंस उसके सामने आ रुकेगी, स्ट्रेचर लिए दो लोग उसमें से कूदेंगे और
उस अजनबी को हाथ-टांग पकड़़ स्ट्रेचर पर लिटाया जाएगा और सर्र से
एम्बुलेंस दौड़ पड़ेगी क्लीनिक की ओर जहां एक डाक्टर माइक्रसकोप लिए उसके
इंतजार में बैठा होगा. वो उसकी बेल्ट खुलवाएगा, कुछ टटोलेगा और फिर गंभीर
होकर माइक्रसकोप में कुछ देखने लगेगा.
इसी तरह आपको याद होगा कि कुछ महीनें पहले तक सर्वे कंपनियों की भरमार
थी. जिसे देखो सर्वे भर रहा था और साथियों को बता रहा था कि तुम भी भरो,
हमने तो इतना कमाया. लोगों ने बिना सोचे-समझे गाढ़ी कमाई लगा दी और अचानक
सब कंपनियां फरार. टीवी चैनल्स पर आजकल ऐसे ही कुछ प्रोग्राम्स चल रहे
हैं. दिन-रात और शाम के प्राइम टाइम में भी. खचाखच भरा बड़ा सा हाल,
सिंहासन पर विराजमान बाबा. भक्त बीच-बीच में खड़े होकर अपनी समस्या बताते
हैं. कुछ फिर ये भी बताते हैं कि बाबा की कृपा से वो मालामाल हो गए. बाबा
बीच-बीच में प्रवचन औश्र आशीर्वाद देते रहते हैं. शो के दौरान टीवी
स्क्रीन पर मैसेज आता है कि आप किस खाते में पैसा जमा कर इस जमात में
शामिल होने के लिए अपनी बुकिंग करा सकते हैं. साथ में ये भी मैसेज चलता
है कि चार महीने तक बुकिंग फुल है और आप अगर टीवी पर भी बाबा का
प्रोग्राम देखेंगे तो भी कल्याण होगा. ये है पैसे के साथ टीआरपी का भी
जुगाड़. भविष्य में बाबा के प्रोग्राम में कमर्शियल ब्रेक भी आने लगे तो
आश्चर्य नहीं. इस मिडनाइट बाजार से आपको पावर, प्लेजर या इंटरटेनमेंट में
से क्या मिलता है, ये इस बात पर डिपेंड करता है कि आप विवेक का इस्तेमाल
कितना करते हैं. ..तो समझने वाले समझ गए हांगे, जो ना समझे वो अनाड़ी है.


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1/9/12

चिकनी चमेली वाला पौव्वा


वाह क्या बात है फिर 31 दिसंबर. कुछ मीठा तो एक जनवरी बहुत हुआ चलो गुरू बात करते हैं 31 दिसंबर को क्या हुआ. आज थोड़ा चिकनी चमेली वाला पौव्वा, सॉरीक्वार्टरहो जाए. बहुत लोग 31 दिसंबर को इसी के जुगाड़ में थे . पौव्वा तो थोड़ा डाउन मार्केट है, यहां बातक्लास’ ·की हो रही है. हर अच्छी ब्रांड ·का अलग केमिकल लोचा होता है पर लगता है एक ही ब्रांड का अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग असर होता है. आपने भी पार्टी-शार्टी में देखा होगा, लोग कैसे चीयर्स करते हैं. कुछ साथी पूरी बाटली के बाद भी एकदम सिगरेट सुलगा थिंकर -फिलॉस्फर की तरह बिलकुल धीर-गंभीर और कुछ दो पेग में बाद ही केश्टो मुकर्जी.. आंख की दोनो पुतलियां बीच में और चावल-सब्जी सूट पर दाएं-बाएं. कुछ पार्टी एनिमल तो बिल्कुल खुली किताब होते हैं कि वो क्या ·रेंगे..·कुछ तीन पेग के बाद गाना गाने की जिद करेंगे और ·कुछ दो पेग के बाद ही अपनेहरी साडुओंडीके बोसकी उपाधि से नवाजने लगेंगे. लेकिन असर खत्म होते ही वो बन जाते हैं एकदम भीगी बिल्ली... याद ही नहीं रहता. ऐसे टल्ली साथियों का भूत उतारने और उन्हें घर तक पहुंचाने ·का जिम्मा अक्सर मेरा होता है. एक जनाब पार्टी में हाई होने ·के बाद उल्टी जरूर करते हैं. एक दोस्त ऐसे हैं जो इतना पी लेते हैं कि अगले दिन ऑफिस आने कि हालत में नहीं रहते, कभी हैंगओवर से कभी ठोकाई की वजह से. पार्टीज में ऐसे वेटरन बूजर्स भी होंते हैं जिनकी सोशल रिस्पासिंबिलीटज भी होती हैं. जैसे साथयों ·की पसंद माफि· पेग बनाना, किसे ऑन रॉक्स चाहिए, किसे विद सोडा और कौन खालिस पानी से चाहता है. खास कर बॉटम्स अप वालों पर नजर रखनी होती है क्योंकि सबसे पहले ऐसे ही लोग आउट होते हैं. इनमें से ही कुछ पार्टी बिगाड़ू का भी रोल अदा करते हैं, हंगामा करने वाले लोगों को संभालना भी सोशल रिस्पांसिबिलिटी है. ऐसे ही एक वेटरन बूजर को जानता हूं जो हर पार्टी में चुपचाप ड्रिंक्स वाला कोना पकड़ कर उसी तरह बैठ जाते हैं जैसे किसी प्याऊ पर ·पर सोशल वर्कर . लेकिन लोगों कि प्यास बुझाने के साथ-साथ वो अपनी भी प्यास बुझाते चलते हैं पर क्या मजाल कि बहक जाएं.
पार्टीज में बहकता तो मैं भी नहीं क्योंकि मैं ड्रिंक नहीं करता लेकिन हॉस्टल लाइफ में कोई भी ऐसी प्रीमियम ब्रांड नहीं बची थी जिसे टेस्ट नहीं ·किया हो. लोग ·हते हैं हर ब्रांड किक अलग होती है लेकिन रम से लेकर स्कॉच तक तक सब ने मुझे एक जैसी ही किक लगाई. इसी टेस्ट के चक्कर में एक बार तो मेरे ·कान में जिन घुस गया था. बात कई साल पहले है, वो भी ऐसे ही 31 दिसंबर की रात थी. न्यू इयर ईव पर हॉस्टल में साथियों ने व्यवस्था की साथी कहीं से जिन ले आया था. बोला थोड़ा ले लो जुकाम ठीक हो जाएगा. लाओ देखें जरा.. स्टाइल में मैंने भी थोड़ी जिन ले ली. पता नहीं क्या हुआ कि गले 15 दिन तक मेरा सीना जकड गया, सूंघने और सुनने की क्षमता जाती रही, लोग कुछ बोलते थे तो मैं कान के पास हाथ ले जाकर आंय-आंय करता था. जब दोस्तों को पता चला कि ये जिन का नतीजा है तो सब ने खूब मजा लिया. बात पूरे हॉस्टल में फैल गई कि ·अबे.. ओझवा के कान में जिन्न घुस गया है. उसे सुनाई नही पड़ रहा है. बाद में यह जिन एंटीबायटि· लेने से ही भागा. उस दिन से कान पकड़ा .तो दोस्तों पार्टी होती ही मस्ती के लिए. पार्टी ऐसी हो जो बार-बार याद आए. जम कर मस्ती करिए लेकिन इतना टल्ली ना हो जाएं कि घर ना पहुंचने पर आप· अपने घबराएं. बार-बार फोन आएं और अगले दिन लोगग खिल्ली उड़ाएं.


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