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12/20/10

चिरकिन और विकिलीक्स


चिरकिन और विकिलीक्स
सब विकिलीक्स-विकिलीक्स चिल्ला रहे हैं. कुछ समय पहले तक इसका नाम भी नहीं सुना था. पूरी दुनिया विकिलीक्स की लीक ’ से दहली हुई है. इसके करता-धरता असांजे तो रातों रात सुपर स्टार बन गए हैं. ये भी कोई लीक है. लीक तो इंडिया के चिरकू किया करते हैं।असांजे इनफारमेशन हैक करके लीक करता है लेकिन विकीलीक्स के इंडियन वर्जन, जनता के पैसे को हैक कर डकार जाते हैं. नीरा राडिया, राजा बैजल, लाली और भी ना जाने कितने इंडियन वर्जन हैं विकीलीक्स के यानी चिरकू. पैसा डकारने के बाद इन चिरकुओं को कब्जियत हो जाती है उसको दूर करने के लिए सीबीआई एनीमा लगाती है. लेकिन हम भारतीय तो अपनी चीजों की कीमत ही नहीं समझते. असांजे हैं क्या? एक इंटरनेशनल चिरकू भर. अपने देश में तो ऐसे चिरकू की भरमार है. यहां के चिरकिन शायर तो विकिलीक्स के बाप थे. जैसे विकिलीक्स का खुलासा सब पर भरी पड़ रहा है उसी तरह शायर चिरकिन का शेर सब शायरों पर बीस पड़ता था। तभी तो उनके लिए कहा जाता था ‘चिरकिन ने चिरक दिया गुलाब के फूल पर, बाकी सब शायर उनके ठेंगे पर.’
चिरकिन का एक शेर अर्ज है:-

चिलकन --महफिल में
इस कदर आना हुआ
पहले थोड़ी ऐंठन हुई
फिर जम के पखाना हुआ
समझ गए ना, चिरकू कहते हैं चिरकने वाले को . अब ये मत पूछिएगा चिरकना क्या होता है. कोई भी इलाहाबादी इसके अलग अलग मायने विस्तार से समझा सकता है. वैसे जब साफ सुथरी जगह कोई गंदगी कर दे तो समझिए किसीने चिरक दिया है. जैसे साफ दीवार पर पीक करने वाले भी एक तरह से चिरकते ही हैं, बस ‘आउटलेट’ का फर्क होता है. चिरकना एक ऐसी कला है जो गॉड गिफ्टेड होती है जिसको चिरकू कंट्रोल करने की लाख कोशिशों के बाद भी कट्रोल नहीं कर पता. चिरकू यानी एक ऐसा शख्स, जो हमेशा अगड़म-बगड़म खाता रहता है और इस वजह से ज्यादातार उसका मेदा आउटऑफ कंट्रोल रहता है. उसमें हमेशा मरोड़ होता रहता है. उसे पता ही नहीं चलता कि कब कब्जियत दस्त में बदल जाती है और वो जहां-तहां चिरक देता है.
इलाहाबाद जीआईसी में छात्रों की एक चिरकू जमात भी थी जो चिरकू के रूप में आडेंटीफाइड थे. खर्च करने के मामले में भी उनको कब्ज रहता था. पत्रकारों में भी चिरकुओं की कमी नहीं. कोई खबर ठीक से लिखने को कहो तो संक्षिप्त में चिरक देते हैं और जब संक्षिप्त कहो तो पसेरी भर गोबर भांट देते हैं. अब बटोरिए देर तक.
वैसे चिरकुट और चिरकू दो अलग तरह के प्राणी हैं. जरूरी नहीं कि चिरकुट , चिरकू भी हो लेकिन हर चिरकू चिरकुट होता है. चिरकने पर अच्छा खासा शोर मचता है चिरकने वाले को कोई फर्क · नहीं पड़ता.
अब असांजे को ही लीजिए, उन्होंने भी भरतीय चिरकुओं से प्रेरणा लेकर ही चिरकने वाले संगठन का नाम विकिलीक्स रखा है. वो किस देश और व्यक्ति पर चिरक दे, कहा नहीं जा सकता. अभी भी उसका चिरकना जारी है. उनकी ताजी चिरक के लपेटे में आए हैं अपने राहुल भाई. आगे देखिए किसकी बारी है.

12/18/10

मार्निग वॉकिंग


आजकल वॉक का मौसम है. क्रॉनिक वॉकर्स यानी बारहमासी वॉकर्स तो आलू की तरह कहीं भी मिल जाएंगे लेकिन मौसमी वॉकर्स दिसंबर में ज्यादा पाए जाते हैं. सुबह-शाम धुंध के बीच घूमने का मजा ही कुछ और है. वॉक करते समय दूसरे वॉकर्स को वॉच करने में घूमने का मजा बढ़ जाता है. इस बार एक बनारसी अड़ीबाज के ब्लॉग की चर्चा करेंगे. ब्लॉग का नाम है बेचैन आत्मा. रचयिता देवेंद्र पांडे बनारस में रहते हैं. किसी बडे़ शहर के मॉर्निग वॉकर्स और छोटे शहर के वॉकर्स में काफी फर्क होता है. बड़े शहर के वॉकर्स ब्रैंडेड स्पो‌र्ट्स शूज और ट्रैक सूट में नजर आते हैं, तो छोटे शहरों में पीटी शू, धोती, पजामा, चप्पल कुछ भी पहने नजर आ सकते हैं. तोंदियल वाकर्स दोनों जगह पाए जाते हैं. जो वॉक के बाद अक्सर दही-जलेबी उड़ाते हैं. देवेंद्र की नई पोस्ट मेरी पहली मार्निग वॉकिंग.. में बात हो रही है एक छोटे शहर बस्ती की. देवेंद्र लिखते हैं.छोटे शहरों की एक विशेषता होती है कि आपको कुछ ही दिनों में सभी पहचानने लगते हैं. इस शहर में नौकरीपेशा लोगों के लिए जीवन जीना बड़ा सरल है. 4-5 किमी लम्बी एक ही सड़क में दफ्तर, बच्चों का स्कूल, अस्पताल, सब्जी मार्केट, डाकखाना, बैंक, खेल का मैदान सभी है. एक पत्‍‌नी और दो बच्चे हों और घर में टीवी न हो तो कम कमाई में भी जीवन आसानी से कट जाता है. एक दिन कद्दू जैसे पेट वाले वरिष्ठ शर्मा जी मेरे घर पधारे और मॉर्निग वॉक के असंख्य लाभ एक ही सांस में गिनाकर बोले, पांडे जी आप भी मार्निग वॉक किया कीजिए आपका पेट भी सीने के ऊपर फैल रहा है. घबराकर पूछा,सीने के ऊपर फैल रहा है, क्या मतलब? शर्मा जी ने समझाया, सीने के ऊपर पेट निकल जाए तो समझना चाहिए कि आपके शरीर में कई रोगों का स्थाई वास हो चुका है. हार्ट अटैक , शुगर, किडनी फेल होने आदि की प्रबल संभाना हो चुकी है. डरते-डरते पूछा, कब चलना है? शर्मा जी ने कप्तान की तरह हुक्म दिया, कल सुबह ठीक चार बजे हम आपके घर आ जाएंगे.तैयार रहिएगा. आगे क्या हुआ, इसके लिए क्लिक करिए http://devendra-bechainaatma.blogspot.com

12/11/10

एल्युमनी मीट सी कुछ रातें


इस बात को दो दशक से ज्यादा हो गए लेकिन अभी भी किसी मीठी नींद वाली रातों में क्यूं दिखाई देता है कांफ्रेंस रूम में मेजर का वो चेहरा, कांफिडेंस से भरा जिंदगी में हार ना मानने की नसीहत देता हुआ. सामने चेस्ट नंबर वाले वो चेहरे धडक़ते दिल से अपनी बारी के इंतजार में- सेलेक्शन होगा, नहीं होगा, होगा, नहीं होगा..अब भी क्यूं दिखते हैं कुछ चेहरे, याद आने लगतीं हैं कुछ पुरानी बातें. यादे हैं तो सपने हैं और सपने तो आएंगे ही. माना कि सपने टूटते हैं लेकिन तभी तो हम सपने बुनते हैं. ना जाने क्यूं एल्युमनाई मीट सी लगती है कुछ रातें.
चलिए हो जाए एल्युमनाई मीट जरा हट के. क्यों होती है एल्युमनाई मीट? पुरानी यादों को रिफ्रेश करने के लिए, पुराने दोस्तों को खोज निकालने के लिए, उनसे मिलने और साथ ठहाके लगाने के लिए, नोस्टेल्जिक होने के लिए. एल्युमनाई मीट में ऐसा लगता है कि ढेर सारी विंटेज कारें जमा हों और उनके इंजन शोर मचा रहे हों, इतरा रहे हों. आप भी शामिल हुए होंगे ऐसी किसी किसी मीट में. पता चलता है कि फलां तो बड़ा नेता बन गया, अरे वही चिरकुट दोस्त जो दीवाली के एक हफ्ते पहले से हॉस्टल में जुआ खेलने लगता था. खेल-खेल में एक बार उसका दूसरे हॉस्टल के एक लडक़े से झगड़ा हो गया था और उसने हाथ में काटने की कोशिश की तो उसके सामने के सारे दांत हिल गए थे और सब उसे लेकर भागे तो चीनी डाक्टर के पास. तब पता चला कि ये चीनी डाक्टर दांत पर भी प्लास्टर चढ़ा देते हैं. दो दशक बाद टीवी पर एक चेहरा दिखा मीडिया से मुखातिब. नाम जाना पहचाना, ध्यान से देखा तो याद आ गया...अरे ये तो एंडी राबट्र्स है. पहले तो इसके खूब घुंघराले बाल थे अब तो मैदान साफ है. जीआईसी में साथ पढ़ता था. उसके कैरेबियंस की तरह घुंघराले बाल थे बिल्कुल एंडी राबट्र्स की तरह. कॉलेज के बाद कभी मुलाकात नहीं हुई लेकिन टीवी पर देख सबकुछ याद आ गया. किसी ने बताया कि आर्मी में चला गया था फिर आर्मी छोड़ इंडियन पुलिस सर्विस में आ गया.
आर्मी से याद आया कि एसएसबी एल्युमनाई तो मैं भी हूं. एसएसबी समझ गए ना, डिफेंस सर्विसेज के अफसर बनाने वाला सर्विस सेलेक्शन बोर्ड. मुझे भी झक सवार हुई थी फौजी अफसर बनने की. रिटेन तो हर बार क्वालिफाई कर जाता लेकिन एसएसबी में गाड़ी अटक जाती थी. लेकिन पॉजिटिव सोच और जोश इतना कि ताबड़तोड़ फेस कर डाले कई एसएसबी बोर्ड. इलाहाबाद, बनारस, देहरदून, भोपाल, बेंगलुरू सब. आर्मी, एअरफोर्स, नेवी, कोई भी ब्रांच नहीं छोड़ी. इस दौरान ढेर सारे दोस्त बने. पता नही क्यों अब भी सपनों में कभी दिख जाता है सर्विस सेलेक्शन बोर्ड. याद आ जाते हैं एक मजेदार लमहे और शुरू हो जाती है एल्युमनाई मीट.
एसएसबी के लिए कॉल किए जाने वाले कुछ कैंडीडेट स्मार्ट होते और कुछ नमूने. ऐसा ही एक नमूना भोपाल के एसएसबी बोर्ड में था. चेस्ट नंबर और बेड एलॉट होन के बाद एक चुटई वाले साथी ने अपना बैग खोला तो उसमें एक छोटा प्रेशर कुकर और बड़ी सी कैंडल भी थी. ..अबे खाना तो यहां मिलेगा फिर कुकर क्यों ले आए, और ये कैंडल? ...कॉल लेटर देखो साफ लिखा है ट्रवेल बिद लाइट लगेज. सो लाइट के लिए कैंडल और राशन? आर्मी वाले तो राशन देते हैं सो पकाने के लिए कुकर. अगले दिन ग्रुप टॉस्क में जब उसकी कमांडर बनने की बारी आई तो वो एक कोने में खड़ा हो अपने ग्रुप को भाषण देने लगा ..साथियों मुझे लैंड माइंस से भरी इस खाई पार करने की टास्क दी गई, मैं तुम्हारा कमांडर हूं, इस खाई को पार करने का आर्डर देता हूं, कैसे? ये तुम्हारा काम है. कुछ साथी अवाक थे और कुछ लोटपोट हुए जा रहे थे.
एसएसबी बोर्ड बैंगलुरु. जज एडवोकेट जनरल ब्रांच के लिए हम सब वहां थे. मेरे स्कूल दिनों का एस साथी मेरे बैच में था. सब को किसी टॉपिक पर तीन मिनट का एक्सटेम्पोर लेक्चर देना होता था इंग्लिश में. हम सब हिन्दी मीडियम. यस को ‘या’ बोलने वाले को अंग्रेजीदां समझते थे. उसकी बारी आई तो पता नहीं क्यों वो हर सेंटेंस के बाद बोलता था-या.. जेंटिलमैन ..आज भी जब कोई येस को ‘या’ कहता है तो वो दोस्त याद आने लगता है. पास्ट जैसा भी हो अच्छा लगता सो सेलेक्शन भले ही ना हुआ हो लेकिन एसएसबी बोर्ड जब कभी सपनों में दिखता है तो मैं भी नॉस्टेल्जिक हो जाता हूं एल्युमनाई मीट के साथियों की तरह.

12/6/10

जीयो जी भर के!


जिंदगी है तो ख्वाहिशें हैं और ख्वाहिशें होती हैं हजार. कुछ होती है पूरी और कुछ रह जाते हैं ख्वाब. काश ये होता, काश वो होता. काश, ऐसा हमारे जमाने में होता. जिंदगी के उजाले में जीने के बाद कौन देखना चाहता है अंधेरी रात. लंबी उम्र की तमन्ना किसमें नही होती. सब चाहते हैं कि वक्त गुजरता रहे लेकिन उम्र थम सी जाए. उम्र के हर पड़ाव पर दिल धडक़ता रहे, मचलता रहे, बहकता रहे, कभी बच्चों की तरह कभी युवाओं की तरह. साइंस ने हमारी कितनी ही ख्वाहिशें पूरी की हैं. इसकी बदौलत हम चांद-सितारों तक पहुंचने में कामयाब हुए. तो फिक्र मत कीजिए, साइंस अब हम सब को चिंरजीवी बनाने में जुटा है. आज इसी पर थोड़ी गम-शप हो जाए.
आपको मिलवाते हैं एक खास तरह के ‘एडिक्ट’ से. इनका नाम है प्रवीण साह. जैसे कोई अल्कोहलिक होता और कोई वर्कोहलिक, उसी तरह प्रवीण ‘सा’ साइंसकोहलिक हैं. यानी जो सांइटिफिकली प्रूव किया जा सके वो सच, बाकी सब झूठ. जो तर्कसंगत है वही सच है. इनके ब्लॉग का नाम है ‘सुनिए मेरी भी’. प्रवीण कहते भी हैं कि सुनिए सब की लेकिन विश्वास उसी पर करएि जो साइंस कहे. अपनी ताजा पोस्ट ‘ फिकर नॉट! अब आप रहेंगे ‘जवान’ हमेशा-हमेशा...पर, बच के रहना इस बंदूक से... प्रवीण लिखते हैं- मेरे चिर-यौवन-आकांक्षी मित्रों, एक बड़ी अच्छी खबर है. संभावना व्यक्त की गई है कि अगले दस सालों में ऐसी दवा खोजी जा सकती है जो एजिंग को रोक ही नहीं बल्कि रिवर्स भी कर सके. अब देखिए कितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है विज्ञान...क्लोनिंग, स्टेम सेल रिसर्च से खुलती अपार सं भावनाएं, अॅार्गन हारर्वेस्टिंग, टिशू कल्चर, एंटी एजिंग रिसर्च, जीन मैपिंग, जेनेटिक इंजीनियरिंग एक तरफ, दूसरी तरफ यह सभावना भी कि शीघ्र ही मानव मस्तिष्क की सारी इंफारमेशन (एक्सपीरिएंस, रिफ्लेक्सेस, लर्निंग एंड बिहेवियर पैटर्न को) नैनो चिप्स में स्टोर व ट्रांसफर किया जा सकेगा...यानी साफ साफ संकेत हैं कि अमरत्व अब दूर नहीं. आंखें बंद कर सोचिए कि किस तरह का होगा मानव समाज आज से डेढ़-दो सौ साल बाद का.
अब इसी समय एक खबर.. यह भी है..एक्सएम 25 राइफल या यों कहें कि वेपन सिस्टम के बारे में. किसी भी युद्ध में होता क्या है कि योद्धा दीवार, मिट्टïी का टीले या सैंड बैग के पीछे ‘कवर’ लेता है, थोड़ी सी देर के लिए अपना सिर उठाता हैऔर विरोधी पर फायर करता है. यह राइफल सामान्य लड़ाई में कवर लेने को एकदम बेमानी कर देगी..इसको चलाने वाला अपने विरोधी को हर आड़ के पीछे मार सकता है. यानी अब हो गई अफगानिस्तान में तालिबानियों की छुट्टïी. मैं तो आज दिन भर यही सोचूंगा कि मानव जाति पहले क्या पाएगी, कहां पहुंचेगी? अमरत्व या महाविनाश. praveenshah.blogspot.com/2010/12/blog-post_03.html पर क्लिक कर आप भी सोचिए न...

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