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8/15/09

Stupid common man


देशभक्त कैसे होते हैं पता नहीं लेकिन आम आदमी के ढेर सारे गुण अपने में पाता हूं. तभी तो इंडिपेंडेंस डे पर ना तो प्रधान मंत्री का भाषण मुझे बांध सका ना ही देश भक्ति के गाने और फिल्में. १५ अगस्त को छुट्टी थी. बाहर बूंदाबांदी हो रही थी सो घर में बैठे- बैठे टीवी पर कुछ मनपसंद देखने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता था. ढेर सारे चैनल्स में भटकने के बाद एक लोकल चैनल पर रिमोट अटक गया. उस पर फिल्म 'वेडनस डे' शुरू ही हुई थी. क्या गजब की फिल्म थी. पॉवरफुल स्क्रिप्ट, डायलॉग और शानदार डायरेक्शन. डेढ़ घंटे की फिल्म सांस रोके देखता रहा. उसमें नसीरुद्दीन शाह का डायलॉग था, 'आई एम जस्ट स्टुपिड कॉमनमैन'. बस मेरे अंदर कामन मैन जाग उठा. पिछले दो दिनों में क्या हुआ, एक कॉमनमैन के नजरिए से जस का तस रख रहा हूं . ना कोई पूर्वाग्रह न दुराग्रह. इसमें एक-एक घटना और कैरेक्टर रीयल हैं लेकिन नाम जानबूझ कर नही दे रहा हूं, क्योंकि किसी को अनजाने में भी आहत करने की मंशा नहीं है.
मेरे एक करीबी मित्र के निकट संबंधी का अचानक निधन हो गया. उनको मैं भी जानता था, एक-दो बार मिला था. खबर सुन कर दुख हुआ कि जब कोई अपने कॅरियर के सर्वोच्च पद पर आसीन होने जा रहा हो और उसके जस्ट पहले अचानक चल बसे. मित्र का संदेशा आया कि फलां तारीख को तेरही है बनारस में. लखनऊ में कुछ और कॉमन मित्रों के पास भी संदेशा आया. पांच मित्रों ने तय किया कि साथ चला जाए. इत्तफाक से अगले दो दिन छुट्टी भी थी. पांच मित्रों में मुझे लेकर तीन जर्नलिस्ट थे, एक बिजनेसमैन और एक बड़े अधिकारी. अधिकारी ने बड़ी एसी कार का इंतजाम किया और हम सुबह ही निकल पड़े बनारस की ओर. योजना बनने लगी कि तेरही के बाद बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए जाएं फिर लौटा जाए. ये सब काम शाम छह बजे तक हो जाएगा. मित्रों में मुझे छोड़ सब सोमरस के प्रेमी थे सो किसी ने सलाह दी कि यार जल्दी क्या है इसके बाद कहीं 'बैठा' जाए. कल तो छुट्टी है. अधिकारी मित्र बोले अरे मेरा बैचमेट जिले में... है, तीन महीने पहले ही पोस्टिंग हुई, अभी फैमिली नहीं लाया है. मित्र ने अपने बैचमेट को फोन कर शाम छह बजे का टाइम फिक्स कर लिया. साथियों की संख्या भी बता दी. इसके बाद तो सब जोश में आ गए. यात्रा के शुरू में पान मसाले के पाउच खरीदे गए. एक बार में सौ का पत्ता खर्च होते देख मैं थोड़ा और दुबक कर बैठ गया. क्योंकि उस गुट में आर्थिकरूप से सबसे नीचे मैं ही था. पत्नी ने कुछ पैसे दिए थे इस हिदायत के साथ की संभाल कर खर्च करना. इस लिए पेमेंट का इनिशिएटिव नहीं लिया और ना ही किसी ने कहा. अब सब को भूख भी लग गई थी. एक बढिय़ा से ढाबे पर रुके. शरीर से खाते-पीते घर का लगता हूं लेकिन वास्तव में मेरी डायट बहुत कम है. थोड़ी सी पकौड़ी, चौथाई आलू के पराठे के एक गिलास लस्सी के बाद मुझे लगा कि अब तेरही भोज में क्या खाऊंगा. और भाई लोग मक्खन मार के पूरा का पूरा पराठा चांप रहे थे. तीन बजे करीब हम लोग बनारस पहुंच गए. वैसे 74 की उम्र में जिनका निधन हुआ था वो भरापूरा परिवार छोड़ गए थे. हम रास्ते भर ठहाका लगाते आए थे लेकिन तेरही में आए थे इस लिए गंभीरता ओढ़े श्रद्धांजलि अर्पित कर चुपचाप बैठ गए. मेरे करीबी मित्र जिनके संबंधी का निधन हुआ था, वो पंाच मिनट से ज्यादा गंभीर नहीं रह सकते. वही हुआ जिसका डर था. बैठक में बड़ी बड़ी डिग्निटरीज और लाल बत्ती वाले लोग बैठै थे. मित्र ने बारी बारी से लखनऊ से पहुंची हमारी मंडली का परिचय कराया. फिर वहीं पर बैठे एक सज्जन का परिचय हास्य कवि के रूप में कराते हुए उनसे एक-दो कविताएं सुनाने का अनुरोध कर डाला. कवि भी लोकल लंठ किस्म के थे सो दनादन सुनाने लगे लंठई भरी कविता. इसके बाद तो बैठक में गुलाब की माला में लिपटी दिवंगत शख्सियत की मुस्कराती तस्वीर के साथ बाकी लोग भी मुस्करा रहे थे. यही है जिंदगी का सच.
खैर आगे बढ़ते हैं. अब हमारी मंडली को बाबा विश्वनाथ के दर्शन से ज्यादा जल्दी शाम को 'बैठने' में थी. हमने फटाफट बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए और पहुंच गए होस्ट अधिकारी के यहां. वो बनारस प्रशासन में बहुत ही सीनियर पोस्ट पर थे. बड़ी आत्मीयता से मिले लेकिन उनकी हालत देख दिल बैठने लगा. छह बजे के पहले ही लगता था पूरी बोतल उतार चुके थे. प्लेट में फ्राइड फिश के कुछ अस्थि पिंजर पड़े थे. हम लोगों देखते ही चपरासी फ्राइड फिश और भुने हुए काजू रख गया. फिर निकली महंगी बोतल. मैं अंदाज लगाने लगा कि बोतल कितने की होगी और काजू का क्या भाव चल रहा. शायद कामन मैन के आधे महीने की पगार के बराबर. लोग स्माल और पटियाला पैग की नापजोख में उलझे थे और मेरा सारा कंस्ट्रेशन भुने हुए काजू पर था. होस्ट अधिकारी में गजब का स्टेमना था देखते ही देखते आधी बोतल गटक गए. फिर तय हुआ कि अब देर ज्यादा हो गई है. सुबह लखनऊ लौटा जाए. रुकने के लिए होस्ट अधिकारी ने कहा फलाने क्लब में चलते हैं वहां 'बैठने' ,खाने और ठहरने का इंतजाम हो गया है. सब लोग जा पहुंचे क्लब में. क्लब के पदाधिकारी ने इतनी गर्मजोशी से स्वागत किया किया जैसे कोई दामाद की करता है. लगता है होस्ट अधिकारी से उसकी गोटी जरूर फंसी होगी. लेकिल वो मेहमाननवाजी (या चापलूसी) इतने भौंडे ढंग सें कर रहा था कि बार- बार एक्सपोज हो रहा था. क्लब का वो पदाधिकारी भी सरकार से वेतन ले रहा था, शहर में कारोबार कर रहा था और क्लब का पदाधिकारी भी था. खैर, एकबार फिर से चला पैग का दौर. मैं नहीं लेता सो मेरे लिए पहले फ्राइड शाही पनीर टाइप की कोई चीज आई स्प्राइट के साथ. बाकी लोग चिकन और मटन पीसेज ले रहे थे. मेरे लिए फिर वेज सूप आया. प्याज के साथ पीनट्स भी रखे थे. इसके बाद क्लब के पदाधिकारी ने डिनर की जिद की. अपनी मंडली की डाइट देख दंग रह गया. मैंने दो चम्मच चावल खा कर हाथ खड़े कर दिए. अब तक कामनमैन के पेट में लस्सी, पराठे, पकौड़ी (तेरही में ग्रहण किए गए गुलाब जामुन, पूड़ी, रायता बूंदी) काजू, पीनट्स, स्प्राइट और सूप में घमसान मचा हुआ था. लेकिन बाकी लोग चांपे जा रहे थे. रात में एसी कमरे में ठीक से नींद नही आई. सुबह तय किया कि चाय के अलावा किसी चीज की तरफ देखूंगा भी नहीं. भाई लोगों ने सुबह फिर टोस्ट बटर चांपा. लखनऊ लौटते समय मेरा पेट जलोदर के मरीज की तरह तन गया था. टोली सुल्तानपुर में फिर उसी ढाबे पर रुकी और फिर चला मक्खन मार के आलू पराठे और पकौड़ी का दौर. दोपहर घर पहुंचा. दिन भर कुछ नहीं खाया. पत्नी ने ताना मारा - ज्यादा भकोस लिया होगा. सोचने लगा इस ट्रिप में अगर हर चीज के पैसे देने पड़ते तो कितना खर्च होता? शायद एक मिडिल क्लास कॉमनमैन की एक महीने की पगारके बराबर. मैं खुश था कि पत्नी ने जो पैसे दिए थे वो बचे हुए थे. अब इसे आप इसे स्टुपिड कामनमैन मेंटेलिटी कहें या मिडिल क्लास का संत्रास.

8/7/09

इंटेलिजेंट कलुआ



इधर कई दिनों से खबरें आ रहीं है कि शहर में आवारा कुत्तों ने गदर काटा हुआ है. जिसे देखो उसे काट खाते है. इसी संदर्भ में कलुआ और उसके बाऊ के बारे में बताता चलूं. कलुआ का बाऊ हमारे मोहल्ले का कुत्ता था. दिन में दुम हिलाता रात में गुर्राता. कलुआ का बाऊ गुजर गया. अब उसके स्थान पर बेटा कलुआ है. उसे आवारा इस लिए नहीं कहेंगे क्योंकि वह मेरे ब्लॉक के आसपास ही रहता है. मेरी कालोनी में और भी ढेर सारे डॉगी रहते हैं. कुछ सो काल्ड विदेशी ब्रीड के और कुछ क्रास ब्रीड के हैं. इनमें ज्यादातर एसी में रहने के आदी हैं. कुछ फस्र्ट फ्लोर और कुछ सेकेंड फ्लोर पर रहते हैं. समय समय पर कार से घोड़ा अस्पताल इंजेक्शन लगवाने जाते हैं. इधर उधर मुंह नहीं मारते. उन्हें साहब या उनका चपरासी सुबह शाम फारिग कराने के लिए कालोनी में टहलाते हैं. मिसेज खोसला कह रहीं थी कि उनका जर्मन शेफर्ड तो बहुत इंटेलिजेंट है उसे घर के ट्वायलेट को यूज करना आ गया है. वैसे कलुआ भी इनसे कम इंटेलिजेंट नहीं है. उसने फिलहाल मोहल्ले के किसी बाशिंदे को नहीं काटा है. ज्यादा शोर भी नहीं मचाता. कालोनी के अप मार्केट डागी से पंगा भी नहीं लेता. सुना है कि पामेरियन और इसी तरह के दूसरे डागी को ट्र्रेंड करने के लिए लोग बड़ी मेहनत करते हैं, ट्रेनर भी रखते हैं. लेकिन कलुआ तो सेल्फ ट्रेंड है. आपके मन की बात जान लेता है. जुगाड़ू भी नंबर वन. तेज धूप में पेड़ की छांव उसे उतना सुकून नहीं देती जितना मेरे ब्लॉक की सीढिय़ों की ठंडी फर्श. लेकिन कलुआ को पता है कि सीढ़ी पर लेटा वो मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता. सो उसने जुगाड़ खोज लिया है. मेरे आफिस जाने के बाद ही वो सीढ़ी पर अड्डा जमाता है. मेरे स्कूटर की आवाज पहचानता है. स्कूटर की आवाज सुनते ही सीढ़ी से उतर कर बाहर खड़ा हो जाता है. मेरे घर के दरवाजे की आवाज भी पहचानता है और कुंडी खड़कते ही मेरे आगे आगे धीरे धीरे सीढ़ी उतरने लगता है और मेरे जाते ही फिर सीढ़ी पर विराजमान. ब्लॉक में और किसी का लिहाज नहीं करता. एक-आध बार उसने मुझसे भी लिबर्टी लेते हुए ढिठाई दिखाने की कोशिश की और दुम हिलाता हुआ वहीं लेटा रहा लेकिन एक भरपूर लात खाने के बाद अब मेरी इज्जत करता है और सम्मान में बाहर आ कर खड़ा हो जाता है. कई बार डाग कैचिंग स्क्वाड वाले आ चुके हैं. कलुआ उनके हाथ कभी नहीं लगा. उनको देखते ही सट से सेकेंड फ्लोर की सीढ़ी पर दुबक गया. डेस्परेट डाग कैचर्स बाहर फारिग होने निकले एक पट्टे वाले पालतू डागी को ही उठा ले गए. बड़ा हंगामा मचा. अब आप ही बताइए इन टफ कंडीशंस में कलुआ अगर सर्वाइव कर रहा है तो वो इंटेलिजेंट तो होगा ही.

8/2/09

तन डोले मेरा मन डोले




सावन मतलब पवन करे शोर, सावन मतलब नागपंचमी, सावन मतलब सांप सपेरे मेले-ठेले. सावन जाने को है तो जाते जाते थोड़ा नागिन डांस की बात हो जाए. आज कल फिर बीन की धूम है. एक तो सावन का महीना और दूसरे लव आजकल में सैफ अली खान और दीपिका पाडुकोण का मस्त नागिन रीमिक्स डांस. कुछ दिन पहले नागपंचमी भी थी. सड़कों पर सांप-संपेरे और बीन की धुन कम सुनाई पड़ी लेकिन टीवी चैनलों ने कसर पूरी कर दी. एक चैनल ने बीन बजाई तो देखादेखी दूसरे चैनल भी नागिन डांस करने लगे. फिल्म नागिन में ...तन डोले मेरा मन डोले... ये कौन बजाए बांसुरिया.. गाने में जो बीन बजी वो आधी सदी बाद आज भी हिट है. उसकी धुन पर आज भी लोग झूम रहे हैं. अब ना तो उतने सांप रहे ना ही सपेरे लेकिन बीन की धुन का नशा बरकरार है. बीन की धुन पर नागिन डांस हिट होने की गॉरंटी है. इसी लिए तो मधुमती फिल्म के गाने... दैया रे दैया चढ़ गयो पापी बिछुआ... में बिच्छू के डसने पर भी बीन की धुन ही बजी. और अब लव आजकल में फिर इसी धुन की धूम है. लोक कथाओं में इच्छाधारी सांपों के बारे में पढ़ा था जो किसी का भी रूप धारण कर सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं. सांपों पर बनी फिल्मों में कभी जितेन्दर, कभी रीना राय तो कभी श्रीदेवी इच्छाधारी नाग और नागिन का किरदार निभा चुके हैं. लव आजकल फिल्म सांप-सपेरों पर नहीं है लेकिन जब इसके म्यूजिक डायरेक्टर इच्छाधारी हो सकते हैं यानी बीन की धुन बजा सकते हैं तो मैं 'इच्छाधारी' क्यों नहीं बन सकता?
पता नहीं क्यों छुट्टी के दिन मैं 'इच्छाधारी' बन जाता हूं. कुछ भी सोचने सोचते कहीं भी पहुंच जाता हूं. छोटी-छोटी बातें और यादें मन को उसी तरह हल्का कर देती हैं जैसा कि ध्यान या योगा के बाद महसूस होता है. ये बचपन की यादें भी हो सकती हैं और एक दिन या हफ्ते पहले घटी कोई घटना भी. जैसे बात सावन के पहले की है. एक दोस्त के रिश्तेदार की बारात में गया था. बारात दरवाजे पर पहुंचते ही नागिन धुन बजने लगी. अचानक देखा कि चमकीली पगड़ी और शेरवानी पहने दूल्हे राजा भी दोनों हाथ ऊपर किए मगन हो नागिन डांस कर रहे हैं. पहली बार दूल्हे को लड़की वालों के दराजे पर डांस करते देखा तो पक्का विश्वास हो गया कि बीन की धुन में कोई जादू है.
समय के साथ भागते और बदलते रहने की जद्दोजहद के बीच पुरानी रेल, कारें, कोठियां, दरख्त, फिल्म, म्यूजिक, गाने और यादों के झोंके रोमांच और रूमानियत से भर देते हैं. कुछ लोग मार्डन कहलाने के चक्कर में पुराने की तारीफ करने में पता नहीं क्यों हिचकिचाते हैं. वे भूल जाते हें कि पुराने की नींव पर ही मार्डनिटी की इमारत खड़ी होती है. आज जो बेहतरीन है वो पुराना होने पर क्लासिकल बन जाती है. क्लासिकल और मार्डनिटी में एक फ्यूजन है जिसे अलग नहीं किया जा सकता. इस फ्यूजन में एक खास तरह का नशा है. इसी लिए तो पुराने गानों और थीम को बार बार नई फिल्मों में लिया जाता है और लोग उसे बड़े चाव से देखते -सुनते हैं. मैं अक्सर रात को पुराने फिल्मी गाने सुन कर सोता हूं. ये मन को सुकून देते हैं. कुछ लोग छुट्टी में पूरे हफ्ते का पेंडिंग घरेलू काम निपटाते हैं, कहीं आउटिंग पर जाते हैं, कुछ बढिय़ा खाते हैं और कुछ चादर तानकर सोते हैं. छुट्टी का असली मजा लेना हो तो आप इच्छाधारी बन अपने तन और मन को बिल्कुल छुट्टा छोड़ दें, बिंदास. तन डोलाने का मन ना हो तो मन डोलाएं फिर देखिए अगले दिन कैसे रिचार्ज होते हैं.

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