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4/30/09

लू का संगीत


लू में है लय, लू में है संगीत, लू में है एक अजीब सी रूमानियत. लू में खिलते हैं चटख गुलमोहर और अमलताश. जब छोटा था तो लू पूरे महीने चला करती थी. अब मुश्किल से 15 दिन भी नहीं चलती. पहले गर्मी की छ़ुट्टियों का मतलब होता महीने भर लू में मस्ती. लू भरी दोपहरी हमेशा से लुभाती थी. लू में बर्फ के गोले, कुल्फी और नारंगी आइस्क्रीम वाले की आवाज कोयल की कूक सी लगा करती थी. जब लू चले तो हम चलते थे सुनसान दोपहरी में किसी की बगिया से अमिया तोडऩे. क्या एक्साइटमेंट और थ्रिल था. नमक के साथ टिकोरा (अमिया, केरियां) खाने में जो मजा था वो दशहरी, लंगड़ा और मलदहिया में भी नही मिलता. लू कभी कभी लप्पड़ भी मारती थी. सीजन में कए दो-बार लू जरूर लगा करती थी. डाट पड़ती थी कि बहेल्ला (आवारा ) की तरह दोपहर भर घूमता रहता है लू तो लगेगी ही. फिर उपचार के लिए आम का पना मिलता था. उसके आगे दुनिया की हर कोल्ड ड्रिंक फेल. इसके बाद दो-तीन दिन में सब सामान्य. फिर निकल पड़ते थे लू में. बड़े कहा करते थे कि लू की दुपहरिया में सुनसान बगिया में न जाया करो चुड़ैल या प्रेत भी होते हैं वहां. उसके कई किस्से सुनाए जाते थे कि फलनवां को गूलर के पेड़ पर झूलती मिली थी चुड़ैल. मुझे आजतक न पे्रत मिले न चुड़ैल. नाम के आगे ओझा जुड़ा है शायद इस लिए. हॉस्टल में था तो भी लू रोमांटिक फिल्म का सीन लगा करती थी. ऊपरी मंजिल पर टेन बाई टेन का कमरा खूब तपा करता था. मेरा रूम पार्टनर चाय बनाकर कहा करता था- इसे पीयो लू नहीं लगेगी. लू और भी कई कारणों से अच्छी लगती है. लू में मच्छर कम हो जाते हैं, लू में पसीना नहीं होता, घमौरियां नहीं होती, राते ठंडी होती हैं. लू में मटके के पानी की सोंधी महक अमृत का एहसास कराती है. लू में खरबूजा और तरबूज बहुत मीठा होता है. लू में कोहड़े (कद्दू) की सब्जी, कच्चे आम और पुदीने के चटनी के आगे सब आइटम पानी भरते हैं. पर अब न जाने क्यूं लू कम चला करती है. अब सड़ी गर्मी ज्यादा पड़ा करती है. सुना है लू रूठ कर चली गई है राजस्थान की ओर. लेकिन यदा कदा अब भी कुछ दिनों के लिए आती है. बीते दिनों की याद दिलाती है

4/24/09

ऐज़ डेडली ऐज़ ड्रोन




डंडा, लकड़ी, बांस, बत्ती, अंगुली और मिर्ची, इनका प्रयोग अचानक बढ़ क्यों गया है. हरकोई डंडा, बांस, लकड़ी और मिर्ची लिए घूम रहा है और जरा सी बात पर उसके सदुपयोग पर उतारू हो जाता. कोई डंडा कर रहा है, कोई बांस और किसी को तो लकड़ी करने में ही आनंद आ जाता है. और तो और लोग बात-बात में उंगली करते फिरते हैं. आम आदमी के पास आजकल ये कुछ ऐसे हथियार आ गए हैं जिनका निशाना ड्रोन की तरह अचूक है. एक बार छोड़ दिए गए तो निशाने पर लगते जरूर हैं. जैसे आजकल सबसे निरीह क्षेत्र स्वात वैली है, जिसको देखो वही घुसा जाता है. उसी तरह लोग डंडा, लकड़ी, बांस को शरीर के सबसे निरीह क्षेत्र पर टारगेट किए रहते हैं. फर्क बस इतना है कि स्टील्थ बॉम्बर की तरह यह दिखाई नहीं देता, बस इसका असर महसूस किया जा सकता है. यदाकदा निशाना चूक भी जाता हैं और डंडा करने वाले को जवाब मिलता है 'बत्ती बना लो'. इसका असर लैंड माइन्स की तरह होता है और 'बत्ती' इग्नाइट हो गई तो इम्पैक्ट झेलना ही होता है. इसी तरह मिरची भी मुझे अचानक बहुत खूबसूरत लगने लगी है. पहले सिर्फ खाने में प्रयोग होता था अब गाने और लगाने में भी होता है. इस नाम के एफएम चैनल भी है. आप भले ही मिर्ची ना खाते हो लेकिन मिर्ची लगती जरूर है न लगे तो लोग कह कर लगवा देते हैं और इसका रंग लाल होता है. लाल मिर्ची भी इतने किस्म की होती है यह अब पता चला. पहले कश्मीरी लाल मिर्च और पहाड़ी मिर्च ही सुनी थी, अब देग्गी मिर्च और तीखा लाल भी मैदान में है. इन मिर्चों का खरीदने की जरूरत नहीं है. आपकी जुबान ही काफी है. आप कह भर दीजिए कि मिर्ची क्यों लग रही है? बस दूसरे पर असर तय है. नहीं लग रही हो तो भी लग जाएगी. निश्चिंत रहिए. मेरे पास इस समय ना तो बांस है ना लकड़ी और ना ही मिर्ची. मैं तो बस यूं ही लोगों की बात कर रहा था. वैसे एक राज की बात बताऊं वैसे कोई बांस या लकड़ी का प्रयोग करे तो आप 'बत्ती' वाला अस्त्र चला दीजिए, बिल्कुल 'पैट्रियाट' मिसाइल की तरह हमलावर की मिसाइल पर असर करेगा.

4/23/09

बुरे फंसे दूल्हे राजा


चुनाव में बुरे फंसे दूल्हे राजा। ना कार ना बाजा। खबरें तो कुछ ऐसी ही आ रही हैं. चुनाव वाले जहां कार देख रहे हैं, झट से छीन कर चुनाव ड्यूटी में लगा दे रहे हैं. और अक्षय तृतीया के चलते बैंड बाजे वालों की एक एक दिन में तीन-तीन पारियां बुक हैं. बड़ी मारा मारी है. पॉलिटिकल कैंडीडेट के चक्कर में शादी के कैंडीहडेट्स की वॉट लगी जा रही है. साइत ना निकले इस लिए कुछ तो करना ही है. सो कुछ ने नगाड़ा और पिपिहरी वाले कड़कड़उआ बाजा पार्टी बुक करा ली है. इस क्राइसिस में मुझे एक रेस्क्यू ऑपरेशन याद आ रहा है. मेरे घर नई स्कूटर लैंब्रेटा आई थी. मेरे गांव उपरौड़ा में कजिऩ की शादी थी. मेरा गांव इलाहाबाद से 35 किलोमीटर ही दूर था. बस दाब दी लैंब्रेटा. बराती तैयार, बाजा वाला तैयार लेकिन टैक्सी वाला गच्चा दे गया. समय निकला जा रहा था. दूसरी कार का प्रबंध नहीं हो पा रहा था. किसी ने कहा टेम्पो करो. लेकिन उसमें टाइम लगता सो लोगों की नजर मेरे नए स्कूटर पर पड़ी. तय हुआ दूल्हा इसी पर जाएगा. फिर क्या था मौर (मुकुट) और जोरा-जामा (पादरियों के गाउन की तरह लगने वाला वस्त्र) पहने दूल्हे राजा पिछली सीट पर विराज गए. झोरा-झामा के कारण दूल्हा लड़कियों की तरह एक ही तरफ पैर कर के बैठा था. आगे-आगे कड़कड़उआ बैंड उसके पीछे मेरी मंद गति से रेंगती स्कूटर पर सवार दूल्हे राजा. क्या नजारा था. पट्टीदार इस जुगाड़ से थोड़ा चिढ़े हुïए थे लेकिन उस समय गर्व से मेरा सीना चौड़ा हुआ जा रहा था. अब होता तो ये गाना याद आता...बाराती गारी देवैं, देवरजी स्कूटर खेवैं ससुराल गेंदा फूल...ओए होएं॥ होएं॥ओए होएं..होएं..

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