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3/26/09

स्लम डॉग ओसामा




पूरी दुनिया के लिए लादेन भले ही खतरा हो लेकिन मीडिया के लिए बड़े काम का है. टॉप रैंकिंग चैनल्स के पास जब कुछ नहीं होता तो उन्हें लादेन याद आता है. वही बलूचिस्तान की गुफाओं और अफगानिस्तान की पहाडिय़ों में लकड़ी लिए घूमता लादेन, ओबामा और कियानी को बीच बीच में लकड़ी करता लादेन. असली स्लम डॉग मिलिनेयर तो ओसामा बिन लादेन है. अरबपति होते हुए भी कुकुरों की तरह खोह में लुका हुआ है. वह रात में कभी कभी लुक्कारी खेलता है जैसा कि मेरे गांव उपरौड़ा और ससुराल शुकुलपुर में रात में भूत लोग आग से लुक्कारी खेलते हैं. चैनल वाले तो रोज ही रात को ओसामा को लेकर लुक्कारी खेलते हैं. वैसे ओसामा मीडिया फ्रेंडली है. कुछ भी दिखाओ बुरा नहीं मानता. बीच बीच में ई-मेल भेजता रहता है और कभी-कभी बाइट के साथ वीडियो फुटेज भी. उसे लेकर चैनल्स में सिर फुटौवल होती है कि सबसे पहले मेल उसे भेजा. सुना है इंडिया टीवी के रजत शर्मा के पास ओसामा का लेटेस्ट मेल आया है. रजत जी ने ओसामा के कहने पर अपना हेयर स्टाइल थोड़ा बदला है और रजत जी के कहने पर ओसामा ने अपनी लाइफ स्टाइल बदली है
मुझे लगता है लादेन किसी दिन रजत शर्मा की आपकी आदलत में बैठा मिलेगा और अदालत के जज होंगे नरेंद्र मोदी. वैसे लादेनवा मीडिया वालों के लिए बड़े काम की चीज है. जब कोई खबर न हो तेा चला दो लादेन को. कुछ भी दिखाओ बुरा नहीं मानता. ना ही कोई कंट्राडिक्शन भेजता है. सुना है लादेन ने अब रामदेव के योगा शिविर में ज्वाइन किया है. बाबा उसे गुफा में कपाल भाती और मुल्ला उमर को अनुलोम विलोम सिखा रहे हैं

3/24/09

जैसा बोया वैसा काटा

जैसा बोया वैसा काटा ये रेशिसन मिसमैनेजमेंट का ही परिणाम है. मंदी हमारी ही करनी का फल है. यही तो मौका है इनोवेटिव और क्रिएटिव होने का. डिलिवर मोर फॉर लेस.हाल ही में एक सेमिनार में यूपीटीयू के वाइस चांसलर प्रो. प्रेमव्रत ने कुछ ऐसा ही कहा था. करीब एक हजार स्टूडेंट्स की गैदरिंग में प्रो. प्रेमब्रत एक घंटे धाराप्रवाह बोले. पूरे हाल में सन्नाटा फिर जोरदार तालियां. ये न तो किसी नेता का भाषण था ना ही बात बात पर ताली बजाने वाले लम्पट श्रोता. कहा जा रहा है कि हम कठिन दौर से गुजर रहे हैं. आगे का टाइम शायद और टफ हो. लेकिन एक बात तय है इस टफ टाइम से निकल कर अगर कोई चमकेगा तो वो इंडिया ही होगा. ऐसा यंग जेनरेशन को देख कर लगता है. इस समय दुनिया के कई डेवलप्ड कंट्रीज में आधी से ज्यादा आबादी बूढ़े और थक चुके लोगों की है तो दूसरी ओर इंडिया की आधी से ज्यादा पॉपुलेशन यंग है. एंड दिस यंग पापुलेशन इज रेयरिंग टू गो. वो सीख रहे हैं कि आग के दरिया को कैसे पार करना है. इस समय इंडियन यूथ सपने देख रहा है, डरने के लिए नहीं कुछ करने के लिए. समय के साथ उसकी सोच में जबर्दस्त बदलाव आया है. दे आर टाकिंग नो नॉनसेंस, दे मीन बिजनेस. कहा जा रहा है कि इस दौर में अगर आगे बढऩा है तो ज्यादा इनोवेटिव और क्रिएटिव होना होगा, नए आइडियाज पर रिसपांसिबल मैनर में काम करना होगा. टाई लगाए, लैपटॉप लिए अर्बन यूथ हों या बैग लटकाए हाथ में कॉपी लिए गंाव से शहर की ओर भागते यंगस्टर्स, सब की आंखों में सपना है आगे बढऩे का, सब में दिखती है ग$जब की पॉजिटिवटी. अपने इर्दगिर्द इन युवा चेहरों पर नजर डालिए. इन्हें पॉकेटमनी पेरेंट्स से न लेकर खुद अर्न करने की चिंता है. अब यंगस्टर्स लर्निंग विद अर्निंग का तरीका सीख रहे हैं. उन्हें पता है कि परफार्म नहीं किया तो पेरिश होने से कोई बचा नही सकता. उन्हें पता है कि जॉब क्रंच में 'क्रशÓ होने से बचना है तो इंटरप्रन्योरशिप के बारे में सोचना होगा, अपने को सेल करना है तो इनोवेटिव होना होगा, उन्हें पता है कि स्लोडाउन में सूख रही विदेशी धरती पर भटकने से बेहतर है कि अपने देश में रिर्सोसेज के भंडार को एक्सप्लोर कर उस पर अपने महल बनाए जाएं.

3/20/09

बोतल का जिन



मैं दारू नहीं पीता लेकिन ऐसी जमात के बीच काम करता हूं जहां ज्यादातर लोग शराब खूब पीते हैं. पार्टी शार्टी में जब साथी लोग पीकर टल्ली हो जाते हैं तो उनका भूत उतारने और घर तक पहुंचाने का जिम्मा मेरा होता है. कल भी एक पार्टी थी. उसमें कइयों का भूत झाडऩा पड़ा. टल्ली भी अलग अलग किस्म के होते हैं. मेरे एक साथी दारू पीकर बॉस को जरूर गरियाते हैं और नशा उतरने पर उन्हे कुछ नहीं याद रहता. एक साथी पार्टी में पीने के बाद उल्टी जरूर करते हैं. और एक साथी ऐसे हैं जो इतना पी लेते हैं कि अगले दिन आफिस आने की हालते में नहीं रहते. ऐसा भी नहीं कि मैने शराब चखी नहीं है. जब हास्टल में था तो 'लाओ देखें जरा स्टाइल में कभी रम, कभी व्हिस्की, कभी स्काच तो कभी जिन का एक-आध पैग ले लेता था फिर पछताता था. इस लिए नहीं कि कोई पाप किया बल्कि इस लिए कि अगले दिन खोपड़ी जरूर भन्नाती रहती थी. एक बार न्यू इयर ईव पर मुझे थोड़ा जुकाम था. एक मित्र ने जबरन थोड़ी जिन पिला दी. पता नहीं क्या हुआ कि गले 15 दिन तक मैं कफ से जकड़ गया. मेरी सूंघने और सुनने की क्षमता जाती रही. लोग बोलते थे तो मैं कान के पास हाथ ले जाकर आंय-आंय करता था. दोस्तों ने खूब मजा लिया कि अबे ओझवा के कान में जिन घुस गया है. यह जिन एंटीबायटिक लेने से ही भागा. उस दिन से कान पकड़ लिया.

3/8/09

फर्क सिर्फ नजरिए का


आज महिला दिवस है. मीडिया में आज महिलाओं पर ढेर सारी सामग्री है. बातें लगभग एक जैसी कहीं सबला, कही अबला. कहीं अत्याचार तो कहीं आत्म विश्वास की कहानी. मेरी कहानी थोड़ा फर्क है. कहानी है ब्रा या कस्बाई भाषा में बाडी की. कई दिनों से सोच रहा था कि लिखूं या न लिखूं. लेकिन आज एक बड़े इंग्लिश डेली में ब्रा का एक बड़ा सा ऐड देखा जिसमें एक माडल ने इसे पहन रखा है. बस तय कर लिया कि बाडी पर चर्चा हो जाए. पहले साफ कर दूं यह कोई अश्लील बातें नहीं हो रहीं. मैं महिलाओं का बहुत सम्मान करता हूं. ...तो कहानी कुछ यूं है कि एक बाडी कई दिनों से मेरे आफिस जाने के रास्ते में पड़ी है. बिल्कुल मैली-कुचैली. लेकिन देख कर लगता है कि कभी किसी कोठी में रही होगी. फिर पुरानी पड़ गई होगी. इस पर शायद होली भी खेली कई होगी और फिर इससे डस्टर का काम लिया गया और अब यह लावारिस पड़ी है मेरे रास्ते में. सडक़ के किनारे घास में पड़ी इस बाडी पर आफिस जाते समय मेरी नजर पड़ ही जाती है. हिन्दी में अंग वस्त्र या चोली और अंग्रेजी में ब्रेजियर या ब्रा तो समझ में आता है लेकिन इसका नाम बाडी कैसे पड़ा पता नहीं. गांव-कस्बों में यही नाम ज्यादा प्रचलित है. साप्ताहिक हाट मेले में ढेर सारी बाडी टंगी मिल जाएंगी दुकानों में. ब्रा या बाडी हमेशा चर्चा में रहती हैं. कभी महिला मुक्ति के प्रतीक के रूप में तो कभी पुरुष वर्चस्व वाले समाज में सस्ते मनोरंजन के माध्यम के रूप में. सुना है कि नारी अधिकारवादी महिलाएं इसे नहीं पहनती. गांव में तो महलाएं इसे अकसर नहीं पहनतीं? मेरी मामी भी नहीं पहनती थीं. प्राइमरी मेंं था तो एक दोस्त ने रुमाल से ब्रा बनाना सिखा दिया. उत्साह में रुमाल की ब्रा बना कर मैं घर में घूम गया. तुरन्त मुझे दो थप्पड़ मिले. तभी से बाडी के मसले पर काफी सतर्क रहने लगा. ननिहाल में कई मामा-मामी थे. गर्मी की छुट्टियां वहीं बीतती थी. वहां नाना का हुक्म चलता था. उनसे सब बच्चे डरते थे. मैं नहीं डरता था. ननिहाल में दो बातें अटपटी लगती थीं. एक- नाना और बड़े मामा को देख मामियां एक हाथ का घूंघट खींच लेती थी लेकिन ऐसा करते समय अक्सर वे ब्लाउज भी नहीं पहने होती थीं. दो- आंगन के किनारे रसोईं थी. वहां बैठी मामियों के सामने ही मामा लोग लंगोट पहने आंगन में गगरे से नहाते थे. लंगोट ऐसी कि पीछे से मामा लोगों को देख कर पूर्ण नग्नता का आभास होता था. मेरा बाल मन तब इस पर्दे और नग्नता को समझ नहीं पाया था. अब समझ में आता है. अब समझ में आता है कि ब्रा पहन कर ऐड में खड़ी नारी और बिना ब्रा और ब्लाउज के घूंघट काढ़े मामी में फर्क सिर्फ नजरिए का है. आखों में अश्लीलता है तो बाडी बेचारी क्या कर लेगी भले ही यह लोहे के बख्तरबंद की क्यों न हो. फिलहाल समस्या रास्ते में पड़ी बाडी की है. सोचता हूं कि इसे खुद हटा दूं लेकिन किसी ने देख लिया तो किस-किस को सफाई देता फिरूंगा. इसका नाम बाडी कैसे पड़ा, हो सके ता बताइयेगा.

3/5/09

'छोटा मुंह बड़ी बात'

आजकल ग्रैंड फिनाले का दौर चल रहा। बच्चों से लेकर बड़ों तक. कहीं बोर्ड तो कहीं एनुअल एग्जाम्स. सब परफार्म करने में जुटें हैं. बेहतर कॅरियर और फ्यूचर के लिए दे आर बाउंड टू परफार्म. सो उन पर प्रेशर तो रहेगा ही. कहते हैं कि बचपन में प्रेशर नहीं होता है. थोड़ी सी लर्निंग, थोड़ी सी डिस्पिलिन और ढेर सारी मस्ती. लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? बेहतर परफार्म करने के लिए बच्चे भी बड़ों की तरह प्रेशर में हैं. लगातार. ये पे्रशर बड़ों ने यानी पैरेंट्स ने ही डाला है. रियलिटी शोज और सीरियल्स में अचानक बच्चों की फौज कूद पड़ी है. सोचिए बच्चे बड़ों की तरह क्यूं बिहेव कर रहे हैं. किसी बच्ची के दूध के दांत टूटे हुए हैं तो किसी के टूटने के बाद फिर से उगे हैं. इनमें कोई अनारकली बना है तो कोई मेच्योर लेडी की तरह बिहेव कर रहा है. कहीं सामाजिक कुरीतियों से लडऩे के बहाने जीवन की सच्चाई को कुछ ज्यादा ही विस्तार से दिखाया जा रहा है. इसमें किरदार निभा रहे हैं बच्चे. छोटे मुहं बड़ी बात कर रहे हैं बच्चे और उस पर ताली बजा रहे हैं बड़े. बजाएं भी क्यों ना, उनसे काम भी ते बड़े ही करा रहे हैं. अपने लाडलों को चंद दिनों का स्टार बनाने के लिए कहीं उनके सितारों को गर्दिश में तो नहीं डाल रहे हम. बच्चों के जिस डॉयलाग और जिस फरफारमेंस पर लोग मुग्ध होते हैं उसे याद करने और रिहर्सल में कितना प्रेशर पड़ता है पर इसका अंदाज नहीं है लोगों को. कहीं यह चाइल्ड लेबर का 'माइल्ड वर्जनÓ तो नहीं. निसंदेह ये बच्चे टैलेंटेड हैं. रियलिटी शो हों या रियल लाइफ, बच्चों को बच्चे के ही रोल में रहने दें. 'छोटा मुंह बड़ी बातÓ के नए ट्रेंड से कहीं ये बूमिंग टैलेंट बोंसाई ना बन जाएं.

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