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8/8/17

चोटी कटवा को बाहर नहीं घर में तलाशिये !

कैसा विरोधाभास है 4जी और 5जी युग में अंधविश्वास लोगों के सर चढ़ बोल रहा है। इस समय उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश, हरियाना और पंजाब के ग्रामीण इलाकों में चोटी काटने वाली महिला का खौफ है। आगरा में तो चोटीकटवा महिला के शक में एक वृद्धा को लोगों ने पीटकर मार डाला । वेब और टीवी पत्रकारिता के युग में इस तरह की अफवाह सोशल मीडिया में ईंधन का काम करती हैं। हर दिन नए मामले आ रहे हैं। मीडिया उन्हें चटपटे ढंग से परोस रहा है। ख़ास बात है कि किसी भी मामले में चोटी काटने वाली तथाकथित महिला को पकड़ा नहीं जा सका। छोटी कटाई का शिकार होने वालों में ज्यादातर युवा लडकियां हैं। घटना के बारे में शिकार लड़की को कुछ याद नहीं रहता। बस उसको चोटी कटी मिलती। घटना के कुछ चश्मदीद के अनुसार एक महिला अचानक प्रगट हुई। छोटी काटने के बाद वो बिल्ली बन गयी और खिड़की से कूद कर भाग गयी। चश्मदीद के चेहरे से उसका झूठ साफ़ नजर आ रहा था। लेकिन सावन में मीडिया को ऐसी सनसनीखेज ख़बरें मिलें रहीं हैं तो वो देखा रहा है। कुछ समझदार मीडिया वाले इसे संतुलित ढंग से दिखा रहे और लोगों को समझाने की कोशिश भी कर रहे कि यह अफवाह मानसिक बीमारी की उपज है जिसे आप हिस्टीरिया भी कह सकते हैं। यह समाज में अशिक्षा का भी नतीजा है। कोई अपनी चोटी को बुरी नजर से बचाने के लिए मिर्ची नीम्बू बांध रहा तो कहीं महिलाएं हेल्मेट पहन कर सो रहीं।

अलग अलग रूप में प्रगट होता अंधविश्वास

वैसे तो भूत पिशाच हर काल में चर्चा का विषय रहे हैं। पिछले 17 साल में इसके किरदार नए नए रूप में प्रगट होते रहे हैं। 2001 में दिल्ली और आसपास के क्षेत्र में मंकीमैंन का जलवा कुछ महीनो तक था। वो रात में छत पर, गली में अचानक प्रगट होता और लोगों को नोच कर भाग जाता। शिकार, घटना के बाद लोगों को जख्म दिखात और सब दहशत में आ जाते। रात रात जागते रहो चिल्ला कर पहरा देते। यह सब कुछ महीनो तक चला। मंकीमैंन नहीं पड़ा गया। कुछ दिन बाद वो गायब हो गया । इसके बाद 2002 में मुहंनोचवा उत्तर भारत के ग्रामीण इलाको में प्रगट हुआ। वो लोगों का मुहं नोच भाग जाता था। किसी ने उसे रोबोट की तरह बताया किसी ने उड़नतश्तरी से आया एलियन बताया। कुछ ने कहा उसकी ऑंखें लाल लाल थी और मोटर साइकिल के इंजन की तरह आवाज करता आता था। वह बरसात के मौसम में प्रगट हुआ और दर्जनों का मुंह नोच कर गायब हो गया। तब उसपर गाना भी बना था - लाल लाल चोंचवा से मुह नोच लेई मुंह नोचवा, बच के रहा चाची बच के रहा बचवा। 2-3 महीने सनसनी फैलाने के बाद मुंहनोचवा भी गायब हो गया। अब 2017 में मंकी मैंन या मुंह नोचावा, बाल काटने वाली महिला का रूप धरकर आया है। मीडिया इस अफवाह को सावन में गरम पकोड़े की तरह बेच रहा है। संयोग से इस बार भी बारिश के मौसम में ही चोटी चोर आंटी आई है। देखना है चोटी चोर कितने दिनों तक लोगों की नीद चुराती है ।

चुड़ैल नहीं मास हिस्टीरिया

इस तरह की अफवाह, मानसिक रूप से बीमार लोगों को सबसे पहले चपेट में लेती। हिस्टीरिया और मनोविकार के शिकार लोगों में यह अफवाह तरह तरह का आकर ले कर प्रगट होती रही है। जैसे इस बार चोटी काटने वाली महिला के रूप में। कुछ लोग मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए भी मनगढ़ंत किस्से सुना इस तरह की अफवाह को हवा देते। अब तक न मंकीमैंन पकड़ा गया न मुंहनोचावा, इसी तरह चोटी काटने वाली चुड़ैल भी कभी नहीं पकड़ी जाएगी। कुछ दिनों बाद इस चुड़ैल का गायब होना तय है। लेकिन अफवाह के चक्कर में कुछ निर्दोष लोगों की जान और अमन चैन खतरे में है। यह चिंता का विषय है। दरअसल यह अशिक्षा और विवेकशून्यता का नतीजा है। मीडिया और प्रशासन का फोकस लोगों में जागरूकता बढाने पर होना चाहिए। बेहतर होगा ऐसी अफवाहों की अनदेखी की जाये । जब ऐसी खबर नहीं होगी तो लोगों को हिस्टीरिया के दौरे भी नहीं पड़ेंगे। तब न चोटी कटेगी न चोटी काटनेवाली महिला दिखेगी। इन मामलों में सबसे जरूरी है शिकार लड़की या महिला का मानसिक इलाज क्योंकि छोटी काटने वाली महिला कहीं बहार नहीं उनके अन्दर ही मौजूद है।

3/2/17

फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी..

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी.. फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी.. निदा फाजली की ये लाइनें कितनी ही सटीक हैं आज के शहरों पर। ध्यान से देखिए भीड़भाड़ वाले शहर आगरा के बीचोबीच एक खंडहर सी अनजान कोठरी में छह महीने से पड़े इस कंकाल को। ताजमहल के शहर में अपनी ही लाश का खुद मजार कैसे बनता है आदमी, यह पता चला उस खंडहर की दूसरी कोठरी में २० दिन से पड़ी लाश से।

 यह कंकाल एक करोड़पति परिवार की बेटी का है, यह कंकाल एक अरबपति परिवार की बहू का है। २० दिन से पड़ी लाश एक टूटे हुए अरमानों की है। सुना है वो खूबसूरत थी, संस्कारी थी, जो अपनों के लिए तिल-तिल कर मर रही थी, जो भूखी-प्यासी मर गई लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। यह कंकाल ७० साल की विमला अग्रवाल का है और २० दिन से पड़ी लाश उनकी बेटी वीना का है। विमला के पिता गोपाल दास अग्रवाल की गिनती अपने जमाने के बड़े सेठों में होती थी। आगरा रावतपाड़ा में आलीशान मकान था उनका। विमला की ससुराल दौलत और शोहरत के मामले में मायके से भी आगे है। उनका विवाह इलाहाबाद के बेहद प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। पति कैलाश चंद बड़े गल्ला व्यापारी थे। जेठ बालमुकुंद इलाहाबाद के सिरसा नगर पंचायत के चार बार चेयरमैन रहे। उनके बाद भतीजे भानू प्रकाश दो बार चेयरमैन रहे। यह जानकारी उनके दूसरे भतीजे एवं बाल मुकुंद के बेटे श्यामकांत अग्रवाल ने दी है।
उन्होंने बताया कि विमला की शादी १९५५ में हुई थी। ससुराल इलाहाबाद के मेजा में है। भवन पीली कोठी के नाम से जाना जाता है। तीन साल बाद ही उनके पति कैलाश चंद का बीमारी से निधन हो गया। उनकी एक ही बेटी थी वीना। उसे लेकर विमला आगरा आ गईं। उन्होंने ससुराल में आना जाना भी नहीं रखा। विमला की ससुराल अरबपति मानी जाती है। मायका भी करोड़पति था। लेकिन उनकी जिंदगीआगरा के उस मकान में कटी जिसमें खाने का एक दाना तक न था, बिजली का कनेक्शन महीनों से कटा हुआ था। सुना है वीना खूबसूरत और संस्कारी थी। उसे किसी डाक्टर से प्यार हो गया था। जो शादी का वादा कर आगे की पढ़ाई करने विदेश गया तो फिर कभी वीना से नहीं मिला। और वीना उसका इंतजार करते करते मर गई। वीना की कहानी गुलजार की फिल्म मौसम से काफी कुछ मिलती जुलती है। अब क्या क्या लिखें, विमला और वीना की दर्दनाक दास्तान चार दिन से आगरा के अमर उजाला और दूसरे पेपरों में लगातर छप रही है लेकिन ऐसी खबरें तूफान नहीं खड़ा करतीं। आजकल छद्म आजदी के लिए हंगामा करने वालों का है। सोशन मीडिया पर मैनेज्ड लाइक्स और हिट्स का है। मन करे तो निदा फजली की ये लाइने भी सुन लीजिएगा..
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नयी दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आखिरी साँस तक बेक़रार आदमी .....
-निदा फाजली
जरा फासले से म‌िला मिला करो..‌
ऐसे ही क खबर करीग डेढ़ साल पहले नोएडा से आई थी। क्या बड़े शहरों में बड़े बड़े लोग इतने अकेले हो जाते हैं? नोएडा के सेक्टर ५९ के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली ने आखिर सात महीने से अपने को क्यों कैद कर रखा था? इनमें एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थी और दूसरी टेक्सटाइल डिजायनर. कुछ सालों से उनके पास जॉब नहीं थी लेकिन इतनी भी कडक़ी नहीं थी कि भूखों मरने की नौबत आ जाए. फिर उन्होंने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया? हालत इतनी खराब हो गई कि बुधवार को अनुराधा की मौत हो गई और सोनाली की हालत भी खराब है. इसका रेडीमेड उत्तर है-दोनों डीप डिप्रेशन में थीं. लेकिन जवाब इतना आसान नहीं है. एक कर्नल की पढ़ी-लिखी बेटियां, जिनका एक सगा भाई और दूसरे रिश्तेदार भी हों वो क्यों नोएडा की व्यस्त लोकैलिटी के एक फ्लैट में अपने को कैद कर लेती हैं और पूरे सात महीने इसकी खबर किसी को नहीं होती. ये पॉश सी लगने वाली कौन सी जंगली बस्ती हैं जिसके उलझे हुए रास्तों पर कब कोई अकेला दम तोड़ दे, पता ही नहीं चलता. शहर जैसे-जैसे बड़ा और मॉर्डन होने लगता है तो क्या फैमिली, लोकैलिटी और शहर को जोडऩे वाला इमोशनल फाइबर कमजोर पडऩे लगते हैं? बशीर बद्र की ये लाइंस आज बार- बार याद आ रही हैं... कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो... लेकिन क्या शहरों में ये फासले इतने बड़े हो जाते हैं कि अपनों के एग्जिस्टेंस को ही भुला दिया जाता है.? यहां सवाल छोटे या बड़े शहर का नहीं है, सवाल हमारी परवरिश, संस्कारों और पर्सनॉलिटी का है. सवाल इसका है कि हमारी इमोशनल और सोशल बॉन्ड्स कितनी स्ट्रॉंग हैं. स्कूलों में तो मॉरल वैल्यूज के बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन हम इमोशनली कितने स्ट्रांग हैं ये तो हम परिवार में ही सीखते हैं. अनुराधा और सोनाली अपनी इस कंडीशन के लिए खुद जिम्मेदार हैं तो उनका भाई, रिश्तेदार और पड़ोसी भी कम जिम्मेदार नहीं. ये सबको सोचना होगा कि हमारे इर्दगिर्द के फासले इतने बड़े ना हों जाएं कि इंसानों की बस्ती में सब अजनबी ही नजर आएं.

2/27/17

गर्दभ शक्ति बोले तो ASS power ..!

गधे को लेकर बीच बाजार में लट्ठम- लट्ठा।  किसने सोचा था कि भारत में इतने बड़े पैमाने पर गदहा युद्ध छिड़ जाएगा। गुजरात में कच्छ के गधे दुर्लभ हैं उनको जाने दें , आपके शहर में भी ओरिजनल गधे अब आसानी से कहां दिखते हैं। वैसे नकली गदहों की भरमार है।
पहले तो गधे और गदहे (मूर्ख) में अंतर समझ लीजिए गधा जैसा मेहनती, बुद्धिमान, नेक, डेडिकेटेड और क्यूट जानवर दूसरा है क्या। जो वास्तव में मूर्ख हैं लेकिन अपने को सयाना समझते वो सबसे बड़े गदहे (मूर्ख) हैं। किसी का सीधा-मासूम होना मूर्खता का प्रतीक कब से हो गया। गधे तो सिर्फ चींपों-चींपों करते, लेकिन कभी इंसानों के बारे में चीप बातें नहीं करते। गधों के बारे में बार-बार चीप बातें कर मजाक उड़ाने वालों के लो आईक्यू पर तरस आता है। गधे का आईक्यू , भैंस से कहीं बेहतर होता। भैंस के आगे बीन बजाते रहिए वो मूढ़ों की तरह पगुराती रहेगी। लेकिन गधे के आगे सारंगी बजा के देखिये वो तुरंत चींपो चींपो कर रिसपांस देगा। ज्यादा परेशान करेंगे तो मारेगा दुलत्ती। बताइए भैंस मूर्ख या गधा। गधे की ताकत समझने वाले ही गदहे (मूर्ख)हैं।
     सोचिए घोड़़ा मेहनत करे तो उसे हार्सपावर बोलते और गधा धोबी के घर से घाट तक दिनभर लादी ढोता फिरे तो बोला जाता - धोबी का गधा घर का घाट का। गधे को लेकर कितनी निगेटिवटी भर दी गई हैं हमारे मन में किसी की किस्मत साथ नहीं देती तो वो कहता फिरता .. हमारी किस्मत तो गधे के ..फलां से लिखी गई है। अब आपकी किस्मत खराब है तो इसमें गधा बेचारा क्या करे। किसी को अपमानित करना हो तो उसे गधे पर बैठाकर घुमाया जाता। इससे गधे की इमेज पर असर नहीं पड़ता लेकिन उसकी पीठ पर बैठकर जिसको घुमाया जाता वो मुंह दिखाने लायक नहीं रहता। अब गर्दभ शक्ति को पहचानने का समय गया लेकिन गधे की ताकत समझने वाले नादान हैं। गधे की पीठ हो या पिछाड़ी उसके अंगों में जितनी पावर है उतनी घोड़ों में कहां। तभी हमेशा गधे की दुलत्ती से बचने को कहा जाता, घोड़े की नहीं।
    बचपन में पढ़ा था फॉर ऐस, ऐस माने गधा, डी फॉर डंकी, डंकी माने भी गधा। लेकिन बाद में पता चला कि अंगे्रजी में ऐस का एकऔर मतलब पिछाड़ी भी होता है। सावधान किया जाता है कि अफसर की अगाड़ी और गधे की पिछाड़ी से दूर रहना चाहिए। ये कहावत भी गधे की दुलत्ती की पावर के कारण बनी है। समय के साथ गधे की पिछाड़ी, शक्ति का प्रतीक बन कर उभरी हैं गधे को सम्मान देने के लिए ही पिछाड़ी को अंग्रेजी ऐस भी बोला जाता। और बात - बात पर चुनौती दी जाती है कि अगर तुम्हारी पिछाड़ी में दम है तो फलां चीज कर के दिखाओ। यानी मूंछों का ताव और  पिछाड़ी का भाव समान है।
   तुम्हारे पिछवाड़े लात पड़ेगी, यह सुनते ही लोग बुरा मान जाते हैं। यह अंग्रेजी में भी उतना ही असरकारी है जैसे - आई विल किक योर ऐस.. वो तुरंत पलट कर जवाब देगा - किस माई ऐस। किसी को ऐसहोल बोल कर देखिए वो आपको गाली देने लगेगा। ये है ऐस पावर। गधा शालीन है, गधा धैर्यवान है बस कभी कभार चींपों-चींपों कर कहता - माइंड योर बिजनेस यू ऐसहोल..!


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