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2/22/09

देर से आने के दस बहाने


देर से आने के दस बहाने





सोमवार यानी हफ्ते का पहला वर्किंग डे. बड़े-बड़े कर्मठ और वर्कोहलिक भी इस दिन अलसिया जाते हैं. जो अल्कोहल नहीं लेते वो भी. सुबह मीटिंग में देर से आने के दस बहाने. शुरू में गुस्सा आता था. अब मजा आता है. मैंने वाइफ से शर्त लगाई कि आफिस जाने के ठीक पहले आने वाले पांच फोन या मैसेज में चार देर से आने की सूचना देने वाले होंगे और मैं शर्त जीत गया. वैसे रेग्युलर देर से आने वाला कोई आडेंटिफाइड नहीं है. हर दिन नया शख्स नॉमिनेट होता है. मैंने सोचा एक महीने का रिकार्ड रखें कि सबसे ज्यादा किस वजह से लोग आफिस लेट आते हैं. जानते हैं पहले नंबर पर कौन सा बहाना था? लूजमोशंस? नहीं. सबसे बड़ा बहाना गाड़ी पक्ंचर हो गई है...घसीट कर ला रहा हूं. आसपास पंक्चर जोडऩे वाला नही है सर. दूसरे नंबर पर है ...जाम में फंस गया हूं लेट हो जाउंगा. अरे मार्जिन रख के क्यों नहीं चलते? जी बहुत तगड़ा जाम है. लूजमोशंस का बहाना तीसरे नंबर पर था. लेकिन खास बात ये थी कि जिसे सुबह की मीटिंग स्किप करनी होती है वह इस बहाने का आइटम नंबर बजाता है. रात को ऑफिस से भले चंगे जाते हैं और सुबह पेंचिस पडऩे लगती है. कुछ पर प्रकोप इतना ज्यादा होता है कि पूरे दिन की छुट्टी. लेकिन अगले दिन भले चंगे हाजिर हो जाते है. इस बीमारी की पेचीदगी आज तक नहीं समझ आई शायद तभी इसका नाम पेंचिस पड़ा होगा. जो एक दो दिन की छुट्टïी चाहते हैं वो वायरल की सूचना फोन पर देते हैं. बॉस घुडक़े ना इस लिए वाइफ से फोन कराते हैं. और भी कुछ फुटकरिया बहाने हैं जैसे वाइफ को डाक्टर को दिखाना है, पैरेंट-टीचर मीटिंग है, गइया तुड़ा कर भाग गई है, बिल ठीक करवाते आउंगा.. वगैरह वगैरह .. अच्छा आप क्यों ब्लॉग में सर खपा रहें हैं. निकलिए नहीं तो आपको भी बहाना बनाना पड़ेगा.

2/18/09

क्या यही है डेस्टिनी?



बात करीब तीन दशक पुरानी है. एक थी माथुर फैमिली. समाज में प्रतिष्ठा थी. लखनऊ में सप्रू मार्ग पर प्राइम लोकेशन पर डाक्टर मुरली मनोहर माथुर का एक बड़ा सा मकान था. उनका भरापूरा परिवार था. एक बेटे का नाम था ब्रिजेश, एक बेटी राधा और एक थी मांडवी. सब पढ़े लिखे सामान्य लोगों की तरह. फिर डा. माथुर की डेथ हो गई. रह गए उनके बच्चे. कुछ सालों बाद उनके एक बेटे ने यह मकान बेच दिया. घर के आगे वाले हिस्से में एक दुकान खुल गई. कुछ दिनों बाद बगल में एक दुकान और खुल गई. फिर एक और. घर बेचने वाला बेटा दिल्ली में सेटल हो गया. इसके बाद ये तीनों भाई-बहन उस घर से बाहर हो गए. वह मकान किसने किसको बेचा, किसने यहां दुकान खोलने का कितना पैसा दिया, यह अलग पेचीदा कहानी है. पर सुना है मुकदमा अभी भी चल रहा है. इधर माथुर सिस्टर्स और ब्रदर सडक़ों पर बेहाल घूमते नजर आने लगे. शुरू में मीडिया ने उनकी कहानी छापी. फिर कहा जाने लगा कि उनकी मेंटल कंडीशन ठीक नहीं. लेकिन इस पर भी डिस्प्यूट है. बाद में मीडिया ने भी उन पर ध्यान देना छोड़ दिया. माथुर सिस्टर्स और ब्रदर अब भी कभी-कभी सडक़ों पर घूमते दिख जाते हैं पहले से कहीं अधिक फटेहाल, पागलों की तरह. जो उन्हें जानते हैं वो ध्यान नहीं देते और जो नहीं जानते वो उन्हें पागल समझ कर आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन सडक़ों पर घूमती माथुर फैमिली पागल नहीं है. कुछ दिनों पहले अचानक माथुर फैमिली दिख गई. सत्तर साल की बहन उतने ही बूढे भाई का हाथ पकड़े थी और पचहत्तर साल की एक बहन थोड़ा पीछे डगमगाती चली आ रही थी. उनसे पूछा आप माथुर फैमिली के हो? हां, आप कौन? मैं रिपोर्टर हूं. आपकी कंडीशन देखी नहीं जाती. कुछ लिखना चाहता हूं. देखिए, कुछ ऐसा वैसा निगेटिव न लिख दीजिएगा जिससे हमारा नुकसान हो जाए. चिंता मत कीजिए, वैसे आपके पास अब खोने को कुछ है भी नहीं. मेरी इसबात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. इसके बाद तीनों भाई-बहनों ने पंडित की दुकान पर खस्ता और गुलाब जामुन खाया और आगे बढ़ गए. यह लखनऊ की सडक़ों पर भटकती वह दास्तान है जिसको हम कहते हैं डेस्टिनी. शायद यही वजह है कि एजूकेटेड और एबल-बॉडीड होते हुए भी ये अपने लिए कुछ न कर पाए.

2/6/09

सफलता की डायरी

न्यू ईयर के बसंत को हम पार कर गए हैं लेकिन इस बार डायरी की बहार नहीं है. सुनते हैं इसकी फसल बहुत अच्छी नहीं हुई है. थोड़ी बहुत जो फसल है, उसे भी रिसेशन के कारण कॉस्ट कटिंग का छिडक़ाव कर बड़ी सावधानी से काटा जा रहा है. इन सबके बावजूद उन लोगों के हाथ में नई डायरी दिख रही हैं जो आज के दौर में सक्सेसफुल हैं. उनकी सफलता का एक अहम कारण उनका वेलआर्गेनाइज्ड होना है और इसमें डायरी का रोल महत्वपूर्ण है. जी हां, डायरी का सीधा संबंध इंगेजमेंट्स और शेड्यूल से है. शेड्यूल, सलीका और सफलता में गहरा संबंध है. प्रेशर में ाी पेस के साथ परफार्म करने वाले ही आजकल सफल कहे जाते हैं. जो जितना सफल है उसका शेड्यूल उतना ही हेक्टिक है और जिसका शेड्यूल हेक्टिक है वह उतना ही आर्गेनाइज्ड है. लाख प्रेशर के बावजूद उनकी लाइफस्टाइल में एक सलीका होता है. आजकल डायरी तो डेली लाइफ का एक अहम हिस्सा है. क्या हमसब डायरी की अहमिय समझते हैं? ढेर सारे लोगों के लिए तो डायरी न्यू ईयर के आसपास गिफ्ट के रुप में बांटने की वस्तु भर है. कुछ के लिए ये ओबलाइज करने का माध्यम है. ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो खुद तो डायरी नहीं रखते लेकिन डायरी की डीलिंग में माहिर होते हैं. ये डायरी न तो खरीदते हैं और न ही छपवाते हैं. ये तो सिर्फ बांटते या बंटवाते हैं. यानी इधर की डायरी उधर. डायरी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका संकट मोचक की है. जो डायरी मेंटेन करता है, डेली रुटीन की जरूरी बातों को दर्ज करता है, उसे डायरी कभी धोखा नहीं देती. उनके लिए तो डायरी एक पोर्टेबल इंसाइक्लोपीडिया होती है. जिनकी मेमोरी शार्प है और जो भुलक्कड़, दोनों के लिए डायरियां कंप्यूटर की भाषा में एक्स्ट्रा हार्ड डिस्क की तरह काम करती हैं. इनमें न तो वायरस आने का खतरा होता है और नहीं ये अधिक लोड पडऩे पर कंप्यूटर की तरह हैंग करती हैं. डायरी मेंटेन करके तो देखिये, आपका मेंटल प्रेशर कई गुना कम हो जाएगा.

2/1/09

राजाबाबू नहीं मरते

लांग लिव राजा बाबू.
राजाबाबू की तो डेथ हो गई. सुन कर विश्वास नही हुआ. कैसे हुई डेथ, किसने बताया? कोई कह रहा था. कौन? ठीक से याद नहीं. अरे वही राजा बाबू न जो ई टीवी में था. हां वही मथुरा वाला. सुन कर मन भारी हो गया. राजा बाबू कोई रॉयल फैमिली से नहीं था. राजाबाबू तो बस राजाबाबू था. हर कोई राजाबाबू थोड़े ही होता है. एक न्यूज चैनल का डिस्ट्रिक्ट करेस्पॉडेंट. लेकिन थोड़ा अलग था राजाबाबू. वही राजा बाबू जिसने हेड फोन लगा कर अपनी पी-टू-सी भेज दी थी. इसके पीछे उसका अपना तर्क था- कैसे पता चलता कि रिकार्डिंग सही हो रही या नहीं. वही राजा बाबू जिसको एक बार भू- माफिया ने धमकी दी तो वो तीन दिन की छुट्टी लेकर घर अलीगढ़ चला गया और अपना बीमा करा कर लौटा. माफिया से बोला अब मार भी दोगे तो घर वालों को पांच लाख मिलेंगे. घर वालों ने मेरी पढ़ाई पर इससे ज्यादा नहीं खर्च किया है. भू- माफिया ने हाथ जोड़ लिया, कहा अब कुछ भी लिखो कोई नाराजगी नहीं. आज से आप मेरे छोटे भाई. ऐसा राजाबाबू कैसे मर सकता है. एकबार डीएम ने उसे अपने कमरे के बाहर कुछ ज्यादा ही इंतजार करवा दिया. नाराज राजाबाबू एक चिट छोड़ गए-डीएम साहब मेरा वक्त भी कीमती है मुझे भी ऊपर से अफसरों की डाट पड़ती है. डीएम ने एक अफसर को भेज कर उसे वापस बुलाया. एकबार उसे फोन किया तो गलत नंबर लग गया. किसी महिला ने उठाया. मैंने कहा राजाबाबू से बात कराइए. महिला ने खिलखिलाते हुए फोन अपने हसबैंड को थमा दिया. तब पता चला कि नंबर गलत था. फिर राजाबाबू से मेरा सम्पर्क टूट गया. एक बार चेन्नै से उसका फोन आया था. वह किसी मैगजीन में था. फिर कुछ दिन पहले किसी ने बताया कि राजाबाबू नहीं रहे. फिर कल किसी ने बताया कि नहीं राजा बाबू तो अलीगढ़ में हैं. उन्होंने फोन नंबर देने का वादा किया है. मैं खुश हूं नंबर भले ही न मिले लेकिन राजाबाबू अलीगढ़ में खुश रहें. राजाबाबू ऐसे थोड़े ही मरते हैं. लांग लिव राजाबाबू.

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