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2/18/09
क्या यही है डेस्टिनी?
बात करीब तीन दशक पुरानी है. एक थी माथुर फैमिली. समाज में प्रतिष्ठा थी. लखनऊ में सप्रू मार्ग पर प्राइम लोकेशन पर डाक्टर मुरली मनोहर माथुर का एक बड़ा सा मकान था. उनका भरापूरा परिवार था. एक बेटे का नाम था ब्रिजेश, एक बेटी राधा और एक थी मांडवी. सब पढ़े लिखे सामान्य लोगों की तरह. फिर डा. माथुर की डेथ हो गई. रह गए उनके बच्चे. कुछ सालों बाद उनके एक बेटे ने यह मकान बेच दिया. घर के आगे वाले हिस्से में एक दुकान खुल गई. कुछ दिनों बाद बगल में एक दुकान और खुल गई. फिर एक और. घर बेचने वाला बेटा दिल्ली में सेटल हो गया. इसके बाद ये तीनों भाई-बहन उस घर से बाहर हो गए. वह मकान किसने किसको बेचा, किसने यहां दुकान खोलने का कितना पैसा दिया, यह अलग पेचीदा कहानी है. पर सुना है मुकदमा अभी भी चल रहा है. इधर माथुर सिस्टर्स और ब्रदर सडक़ों पर बेहाल घूमते नजर आने लगे. शुरू में मीडिया ने उनकी कहानी छापी. फिर कहा जाने लगा कि उनकी मेंटल कंडीशन ठीक नहीं. लेकिन इस पर भी डिस्प्यूट है. बाद में मीडिया ने भी उन पर ध्यान देना छोड़ दिया. माथुर सिस्टर्स और ब्रदर अब भी कभी-कभी सडक़ों पर घूमते दिख जाते हैं पहले से कहीं अधिक फटेहाल, पागलों की तरह. जो उन्हें जानते हैं वो ध्यान नहीं देते और जो नहीं जानते वो उन्हें पागल समझ कर आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन सडक़ों पर घूमती माथुर फैमिली पागल नहीं है. कुछ दिनों पहले अचानक माथुर फैमिली दिख गई. सत्तर साल की बहन उतने ही बूढे भाई का हाथ पकड़े थी और पचहत्तर साल की एक बहन थोड़ा पीछे डगमगाती चली आ रही थी. उनसे पूछा आप माथुर फैमिली के हो? हां, आप कौन? मैं रिपोर्टर हूं. आपकी कंडीशन देखी नहीं जाती. कुछ लिखना चाहता हूं. देखिए, कुछ ऐसा वैसा निगेटिव न लिख दीजिएगा जिससे हमारा नुकसान हो जाए. चिंता मत कीजिए, वैसे आपके पास अब खोने को कुछ है भी नहीं. मेरी इसबात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. इसके बाद तीनों भाई-बहनों ने पंडित की दुकान पर खस्ता और गुलाब जामुन खाया और आगे बढ़ गए. यह लखनऊ की सडक़ों पर भटकती वह दास्तान है जिसको हम कहते हैं डेस्टिनी. शायद यही वजह है कि एजूकेटेड और एबल-बॉडीड होते हुए भी ये अपने लिए कुछ न कर पाए.
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यही है भाग्य
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bahut maarmik prasang hai haath ki lakeeron ko koi kahan laangh sakta hai
ReplyDeleteप्रारब्ध के खेल निराले हैं। इसी के चलते लोग अपनी एक दुनियां बुन लेते हैं और समय काटते जाते हैं। "वर्चुअल जिन्दगी" जीते हैं लोग। और शायद ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है।
ReplyDeleteदुखद।
दुखद है सब कुछ ...इन दिनों भाग्य में इंसानी दखल भी नजर आती है
ReplyDeleteदुर्भाग्य ! शायद अनुरागजी वाले इंसानी दखल के साथ.
ReplyDeleteसच में अच्छा नहीं लगा यह पढ़ कर दुखद है यह
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