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9/16/09
बंदर, गुरुवा और भांग के लड्डू
मेरे अजीज ज्ञानदत्त जी प्रकृति प्रेमी हैं. उन्हें पशु-पक्षियों, वनस्पति और नदियों से उतना ही लगाव है जितना मुझे. एक कुक्कुर उन्होंने पाल रखा है. उस जीव ने पिछले जन्म में कुछ पुण्य किया होगा जो पांडे जी जैसे सात्विक और संस्कारी परिवार की सेवा कर रहा है या उनसे करवा रहा है. बाकी पशु-पक्षी तो वहां आते जाते हैं. जैसे पिछले दिनों एक बंदर कही से आ गया था. लहट ना जाए इसके लिए उसे डायजापॉम की गोली खिलाकर काशी छोड़ आने की योजना बनी लेकिन वह परिस्थिति भांप कर खिसक लिया. हो सकता है जल्द ही लौटे. इस घटना से मुझे अपने काशी के अपने मित्र तुलसीदास मिश्र का किस्सा याद आ गया. वही तुलसी गुरू जिनका जिक्र काशीनाथ सिंह ने अपनी किताब 'देख तमाशा लकड़ी का' में किया है. बात उन दिनों की है जब मैं और तुलसी गुरू काशी में एक ही अखबार में काम करते थे. तुलसी बीएचयू की रिपोर्टिंग करते थे. वे यूनिवर्सिटी के हास्टल रीवा कोठी में रहते थे. रीवा कोठी अस्सी के घाट पर एकदम गंगाजी के ऊपर बनी कोठी है जिसे फाइन आट्र्स, स्कल्प्चर और म्यूजिक के छात्रों के हास्टल में कनवर्ट कर दिया गया है. वहां छात्रों के साथ ढेर सारे बंदर भी रहते हैं. वहीं तुलसी गुरू का एक और दोस्त रहता था. नाम तो ठीक से याद नहीं लेकिन सब उसे गुरुवा कहते थे. एक बार गुरुवा घर से लौटा था. मां ने देसी घी के लड्डू दिए थे. गुरुवा एक दिन रूम बंद करना भूल गया. लौटा तो कई बंदर लड्डू की दावत उड़ा रहे थे. उसे देख बंदर तो भाग गए लेकिन बचे लड्डू बिखेर गए. आहत गुरुवा ने ठान लिया कि इनको सबक सिखाना है. वह चुपचाप अस्सी से भांग की गोलियां ले आया और बचे लड्डुओं में मिला कर छत पर रख आया. काशी के लंठ वानर इस साजिश को भांप नहीं सके और फिर लड्डू की दावत उड़ाई. करीब एक घंटे बाद गुरुवा छत पर पहुंचा. वहां कई बंदर भांग के लड्डू खा कर लोटे पड़े थे. फिर क्या था गुरुवा ने उन्हें जी भर कर लठियाया और उतर आए. तुलसी गुरू रात को लौटे तो देखा गुरुवा बाल्टी में पानी और लोटा लेकर छत पर जा रहा था. तुलसी भी पीछे हो लिए. छत पर अभी भी वानर लोटे हुए थे और गुरुवा उन पर लोटे से पानी डाल रहा था. माथा ठनका. गुरुवा थोड़ा परेशान था. उसने कहा गुरू दिनवा में जी भर के लठियउलीं. रात हो गई पर इनकर भांग नाही उतरल. डेरात हईं कि एकाक मिला मर गइलन त पाप लगी. लेकिन गुरुवा के जान में जान आई जब देखा कि थोड़ी देर में सब बंदर गिरते पड़ते चले गए. अब रीवा कोठी में ना गुरुवा है ना वो बंदर लेकिन उनके वंशज अभी वहां धमाचौकड़ी मचाते हैं. कहानी नहीं सच घटना है. तुलसी गुरू इस समय काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाते हैं.
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देख तमाशा अस्सी का
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Gyan Pandey : वाह, हम भी ऐसी सी बात सोच रहे थे बन्दर पांडे के लिये, पर इतनी अंग्रेजियत आ गयी है कि भांग याद न आई, डायजापाम याद आया!
ReplyDeleteइस बन्दर की फोटो मस्त है - भांग के पहले है या भांग के बाद! @Gayan Pandey:यह बंदर देसी के लड्डू खाने के बाद खीस निपोर रहा रहा. फोटो पिटाई के पहले की है
hahaha
ReplyDeletebahut khub bade bhai, ye kissa pad kar to muje apne college k din yaad aa gaye
बन्दर तो हमारे कॉलेज में भी थे. और धामा चौकडी भी खूब मचाते थे. लेकिन ये आईडिया तब देने वाले आप नहीं मिले वर्ना हम भी जरूर ट्राई करते :)
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteमैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
आप का स्वागत है...
बन्दर और भांग के लड्डू का यह संस्मरण रोचक रहा ...कही मेनका गाँधी ना पढ़ ले ..!!
ReplyDeleteमैं कई वर्ष वाराणसी में संकट मोचन के निकट रहा हूँ. वानर सेना वहाँ भी खूब है. पर एक अंतर देखा है उनके व्यवहार में, वे गुरुवा के बंदरों जैसे उद्दंड नहीं थे. मैंने कभी उन्हें किसी से कुछ छीनते नहीं देखा. हो सकता लोग उन्हें स्वयं ही इतना अर्पित करते हैं कि उन्हें किसी के लड्डू, चाहे देशी घी के ही क्यों न हों, आकर्षित नहीं करते. लेकिन मुझे तो वे हनुमान के तरह धीर लगे. कभी कभी वे हमारे घरों की ओर भी आते थे पर बस विचरण करने.
ReplyDeleteबालक बानर एक सुभाऊ -अच्छी रही यह कथा !
ReplyDeleteवानर तो स्वभाव से ही लंठ होते हैं लेकिन लंठ आदमी से पाला पड़ जाय तो ऐसा ही कुछ होता है। पंकज जी के पास मैं भी रहा हूँ लेकिन मेरे घर पर तो वानर उद्दण्डई करते थे।
ReplyDeleteपंकज जी के यहाँ नहीं करते थे-इस सूचना से अनुमान लगा रहा हूँ कि कहीं पंकज जी की यारी तुलसी गुरु से तो नहीं थी !
रोचक घटना की जानकारी देने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteई बनरवा हमऊं के थप्पड़ मरले रहल पर ई अक्किल अब आयल कि कैसे इनकर होश ठिकाने आई।
कल मेरे घर पर भी 8-10 वानरों ने हमला किया था । मंगल का दिन था इसलिये मैं ज्यादा कुछ नहीं बोला । सिर्फ डंडा लेकर घदेड़ दिया । हां, बिल्लियों से मेरी नहीं पटती । मेनका गांधी माफ करें, कई बार बुरी तरह धोया है बिल्लियों को । साली सोफे पर हग जाती हैं । (उवाक्क) ।
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