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7/1/09

किसिम किसिम के एटीएम






छोटा एटीएम, मोटा एटीएम, खोटा एटीएम, सोता एटीएम, रोता एटीएम. एक साल में हर तरह के एटीएम से मेरा पाला पड़ चुका है. ना तो मैं कोई धन्नासेठ हूं ना जालसाज और ना ही चिरकुट लुटेरा. मैं बंधी पगार वाला एक आम नागरिक जो महीने में एटीएम का तीन-चार चक्कर जरूर लगाता है. दरअसल एटीएमीकरण से जो समाजवाद आया, उसी का नतीजा है ये. अब तो सब धान बाइस पसेरी. कोई कार्ड किसी में ढुकाइए (ठेलिए) पैसा बराबर मिलेगा. आपके पास किसी सिटी बैंक का कार्ड हो या घाटे वाले नेशनलाइज्ड बैंक का अब तो सब कार्ड सब में चलता है. जहां तक याद पड़ता है मेरे शहर में टाइम और आईडीबीआई बैंक ने एटीएमए कार्ड सबसे पहले शुरू किए लेकिन इसकी लिए खाते में मिनिमम दस हजार बैलेंस की शर्त थी. लोग एटीएमए कार्ड उसी तरह शान से चमकाते फिरते थे जैसे शुरू में मोबाइल. मैंने भी उस समय हिम्मत कर एक कार्ड बनवाया था. पैसा निकालने से ज्यादा ध्यान इस पर रहता था कि बैलेंस दस हजार से कम न हो जाए. अब तो समाजवाद है. पूरा खंगाल लो, जीरो बैलेंस नो प्राब्लम. जहां मैं रहता हूं वहां दो किलोमीटर के दायरे कम से कम दस एटीएम तो होंगे ही. सब की नब्ज टटोल चुका हूं.
सबसे पहले एक बड़े बैंक के छोटे एटीएम बात करें. मजाल है कभी उसने पूरा पैसा दिया हो. मांगो दस हजार देता है पांच. थोड़ी दूर पर है एक मोटा एटीएमए. केबिन में एक नहीं तीन मशीनें. मस्त एसी. शीशा भी लगा है सूरत देखने के लिए (सुना है शीशे के पीछे खुफिया कैमरा लगा होता है). लेकिन तीनों मशीनें तीन तरह की. एक में टच स्क्रीन, जिसको कई बार अपना पैसा टच कराने में उंगली दुखने लगती है. दूसरे में कार्ड स्वैपिंग सिस्टम है. अक्सर कई बार स्वैप करने पर ही रिसपांस देता है. और तीसरी मशीन तो पूरा कार्ड गड़प कर जाती है. पैसा देने के बाद ही कार्ड उगलती है. कभी कभी ना पैसा देती है ना कार्ड उगलती है. जब नया कस्टमर कार्ड ठेलता है तब जाकर पुराना कार्ड उगलती है. बगल में ही एक खोटा एटीएम है जिसमें कभी पैसा नहीं होता कभी स्टेटमेंट स्लिप. एसी तो शायद ही कभी चलता हो. पास में एक सोता एटीएम भी है. पांच में चार बार आउट आफ आर्डर. कभी चालू मिलेगा तो गारंटी नहीं कि कब बीच में ही ठेंगा दिखा दे, कार्ड बैरंग लौटा दे. और एक है रोता एटीएमए. मैं उस पर अधिक भरोसा करता हूं क्योंकि वो जैसा भी है, दगाबाज नहीं है. उस एटीएमए मशीन की चेचिस तो ठीक है लेकिन भले ही सौ रुपए निकाले, आवाज इजना करता है कि किसी पुरानी एंबेसडर का इंजन अंदर लगा दिया गया हो. बड़ी देर तक खड़ खड़ खड़-घर्र घर्र घर्र जैसे सौ रुपया देने से पहले गुस्से में मशीन बार बार पैसा गिन रही हो और कह रही हो पता नहीं कहां से चले आते हैं कंगाल. कभी लगता है आपनी पूरी थैली खाली कर देगी या नाराजगी में आपका पूरा बैलेंस ही मुहं पर दे मारेगी. लेकिन गनीमत है इन मशीनों ने कभी पैसा कम नहीं गिना और फर्जी नोट नहीं दिए. पड़ोस में एक और नया एटीएम खुल रहा है जल्द ही उस पर भी कार्ड फेरूंगा, देखें किस कैटेगरी में आता है.

5 comments:

  1. सुन्दर व्यथा कथा. प्रारंभिक दौर में तीन कंपनियों के मशीन लगा करते थे. दैबोल्ड, एनसीआर और बुल और सबसे अधिक समस्या मूलक मशीन बुल की हुआ करती थी. सबसे अच्छी एनसीआर की थी.अब तो और भी विदेशी कम्पनियाँ भारत में पैर पसार रही हैं

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  2. ही ही ही
    हे हे ह हा हि हि
    हें हें हें
    हा हा हा . . .

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  3. to aajkal atm ke chakkar khub lagaye ja rahe hain. waise jo bhi kaha sahi kaha, main bhi iska bhugatbhogi raha hu. bahut acha wayang hai.

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  4. हमें एटीएम से भय लगता है। पूरे पैसे देगा कि नहीं। हमारा कार्ड अन्दर ही ले कर तो नहीं बैठ जायेगा। नोट नकली निकले तो...
    कुल मिला कर चेक बुक से कैश निकलवाते हैं। ओल्डफैशन्ड तरीके से!

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  5. @गिरिजेश: ही ही ही
    हे हे ह हा हि हि
    हें हें हें
    हा हा हा . . .लगता है नई एटीएम मशीन ऐसी ही आवाज निकालेगी

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