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5/22/10

ब्लॉगिंग में ब्रेक



ब्लॉगिंग में भी ब्रेक होते हैं. ब्रेक लेना तो जैसे फैशन हो गया है. थोड़ा काम किया नहीं कि ब्रेक, थोड़ा बात की नहीं कि ब्रेक, मूड बना तो ब्रेक, नहीं बना तो भी ब्रेक. बिना रुके कोई अगर सरपट भागा जा रहा है तो वो बैकवर्ड है. मार्डन कहलाना है तो भागिए मत ब्रेक लीजिए. और बौद्धिक लोगों को तो ब्रेक की कुछ ज्यादा ही जरूरत हेाती है. थोड़ा सा ज्ञान बघारिए फिर लंबी सांस लेकर कहिए, ‘आई एम टायर्ड नॉव, लेट्स हैव कॉफी’. अब कॉफी बिना तो ब्रेक बनता नहीं. ब्लॉक जगत में तो घुसते ही बौद्धिकता का ठप्पा लग जाता है. जैसे आज के जमाने में अगर आपका ई-मेल आईडी नहीं है, आप ट्विटर या फेसबुक पर नहीं है तो निहायत ही पिछड़े किस्म के व्यक्ति हैं और अगर आपका ब्लॉग नहीं है या ब्लॉगर नहीं हैं तो प्रबुद्ध नहीं. प्रबुद्ध नहीं तो ब्रेक कैसा.
ब्लॉग जगत में भी ऐसे लोगों की भरमार है जो फैशन के तौर पर ब्रेक लेते हैं. उसी तरह जैसे किसी बारात या जनवासे में दूल्हा या उसका जीज्जू नाराज हो जाए और पूरे घराती-बाराती उसे मनाने में जुट जाएं. ये लोग बीच-बीच में जायजा लेने के लिए कि कहीे ब्लॉगरों में उनका महत्व कम तो नहीं हो रहा, रिसियाने का नाटक करते हैं. ये किस बात पर तुनक जाएं कहा नहीं जा सकता. बस अचानक घोषणा कर डालते हैं कि आज से ब्लॉग लिखना बंद. कुछ नियमित ब्लॉगर पूरी तरह ‘कपाट’ बंद नहीं करते. नाराजगी जताने के लिए बस इतना कह देते हैं कि पोस्ट की फ्रीक्वेंसी कम कर रहा हूं. इसके बाद कपाट की झिरी से कनखिया कर देखते रहते हैं कि उसके ‘गोल’ के लेागों पर इसका कैसा असर हुआ और विरोधी खेमे में कैसी प्रतिक्रिया है. रिसपांस जबर्दस्त हुआ तो नाराजगी थोड़ा लम्बी चलती है और रिसपांस फीका हुआ तो किसी बहाने झोला-झंडा लेकर फिर वापस आ जाते हैं.
लेकिन ऐसे ब्लॉगर भी कम नहीं जो बीच बीच में टीवी चैनल्स की तरह अपनी टीआरपी टेस्ट करने के लिए दूसरे ‘गोल’ के छत्ते को छेड़ देते हैं. फिर तो एक-दूसरे को डंक मरने का जो युद्ध शुरू होता है वो एक दो हफ्ते बाद ही शांत होता है. ब्लॉगरों का एक तीसरा गोल भी है जिसके डंक विषैले नहीं होते लेकिन ‘ये क्या हो रहा है’ स्टाइल में व्याकुल हो कर ब्लॉग से विरक्ति का भाव दर्शाने लगते हैं. हिन्दी ब्लॉग्स पर नियमित नजर रखने वाले समझ गए होंगे कि यहां किन ब्लॉगरों और उनके ‘गोल’ की बात हो रही है लेकिन यहां उनका नाम लेकर एक और ‘ब्लॉगर बलवा’ शुरू नही करवाना चाहता. अंत में एक बात और, कोई भी ब्लॉगर कितना भी अच्छा क्यों ना लिखता हो कभी ना कभी उसकी पोस्ट में मोनोटॅनी आ ही जाती है. इस एकरूपता को तोडऩे के लिए भी बीच-बीच में ‘ब्लॉगर बलवा’ जरूरी है. इतने डंक झेलने के बाद ब्लॉगर्स के लिए ब्रेक तो बनाता ही है. तो, मिलते हैं छोटे से ब्रेक के बाद.

9 comments:

  1. जो(हमारे जैसे ) इसमें से एक भी टाइप के नहीं है ....बौद्धिक नहीं है ...या ...ब्लॉगर नहीं हैं ...

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  2. राजीव ओझा जी क्या छुटकू जार्ज बुश को पता है कि सद्दाम की शक्ल आपसे मिलती थी ? बुश बेचारा नाहक़ आपकी शक़्ल सपनों में देख डर कर उठ बैटता होगा...
    :)

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  3. अरे भई, घर में भी तो लोग गुस्सा/रिसिया जाते हैं फिर मान मनुव्वल करते हैं कि नहीं. बस्स!! वैसे ही.

    अब ब्रेक ले लूँ..टाईप करए हुए टायर्ड हो गया इस टिप्पणी में. कॉफी पी जाये.

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  4. ओह! पूरा पढ़ा तो जान में जान आई। शीर्षक देख लगा कहीं टंकी पर चढ़ने का मामला तो नहीं है।

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  5. सृजनात्मकता लगातार नहीं रहती है इसलिये ब्रेक तो बनता है पर ब्रेक का महिमामंडन उचित नहीं ।

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  6. yes break & brake dono banta hai :-)

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  7. हम्म, आपका लेख पढ़कर हमारा भी ब्रेक लेने का मन हो रहा है। वैसे हम लगभग बहुत समय से ब्रेक ही लिये बैठे हैं।

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  8. ब्रेक से लौटा तो आप मिले।

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  9. मैं तो आज कल हूँ ही लम्बे ब्रेक पर. पर टीवी पर जब ब्रेक होता है तो विज्ञापन के जरिये पैसा बरसता है, हमारा ब्रेक भी काश वैसा ही होता.

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