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5/7/09

तिनका-तिनका, ज़रा-ज़रा






चिडिय़ा, गौरैया, परिंदे, फाख्ता, घोसले, इनकी कहानियां ब्लॉग्स में भरी पड़ीं हैं. ज्यादातर ब्लागरों के परिंदे कल्पना और संवेदना की उड़ान भरते दिखते हैं. आज आपको सुनाता हूं आंखों देखी एक सच्ची कहानी. पहली मंजिल पर मेरे कमरे की खिड़की से सटा हुआ एक आम का पेड़ है. खिड़की और पेड़ की शाखाओं में बस दो हाथ का फासला. उस पर ढेर सारे परिंदे रोज आते हैं. छोटी ललमुनिया, बुलबुल से लेकर बाज, कौवे और उल्लू तक. बात एक साल पहले की है. पेड़ुकी (फाख्ता) के एक जोड़े ने न जाने क्या सोच कर मेरी खिड़की से लगी डाल पर एक घोसला बनाया था एक-एक तिनका जोड़ कर बड़ी मेहनत से. उस डाल पर बैठ फाख्ता घंटों टेर लगाते रहते थे. लगता थे कि आपस में बातें कर रहे हों. उन्हें निहारने को रोज कुछ मिनट निकाल ही लेता था.
खिड़की में जाली थी इस लिए शायद फाख्ता को मुझसे डर नहीं लगता था. फिर एक दिन उसमें दो अंडे दिखे. मेरी रुचि थोड़ी बढ़ गई. फाख्ता बारी बारी से उस पर बैठते थे. फिर एक दिन घोसले से चीं-चीं की आवाज से पता लगा कि अंडों से बच्चे निकल आए हैं. दोनों फाख्ता बारी-बारी से बच्चों को चुगाते थे. बच्चे तेजी से बढऩे लगे और उनके साथ मेरी रुचि भी. अब उनके पंख निकल रहे थे. इस हैप्पी फेमिली को देख कर सारी थकान दूर हो जाती थी. रात को एक फाख्ता जो शायद उनकी मां थी, घोसले में जरूर रहती थी. एक दिन रात दस बजे के करीब कमरे में बैठा टीवी देख रहा था कि पत्तों की तेज खड़खड़ाहट और पंखों की फडफ़डा़हट ने चौंका दिया. कुछ अनिष्ट की आशंका से खिड़की के बाहर देखा तो अंधेरे में कुछ नजर नहीं आया. घोसले पर टार्च डाली तो दोनों बच्चे सहमें से दुबके थे लेकिन फाख्ता गायब थी. सुबह भी सिर्फ बच्चों को दख कर चिंता बढ़ गई. थोड़ी देर में फाख्ता दिखी लेकिन शायद वह बच्चों की मां नहीं पिता था. कुछ देर घोसले में बैठने के बाद उड़ गया. अगली रात भी घोसले में सिर्फ बच्चे ही दिखे. शायद किसी बाज या उल्लू ने उनकी मां को निवाला बना लिया था. अगली सुबह घोसले में सिर्फ एक बच्चा था और कोई फाख्ता नहीं. दो दिन बाद वह भी नहीं दिखा. घोसला सूना हो गया था. बचे थे सिर्फ तिनके. धीरे-धीरे कर कौवे और कबूतर उन तिनकों को ले गए अपना घोसला बनाने. इस तरह एक घोसला उजड़ता देख मन भारी हो गया. कुछ दिनों बाद एक सुबह उसी दरख्त की किसी डाल पर फाख्ता के एक जोड़े की टेर सुनाई दी. कहीं कोई परिन्दा फिर से घोसला बना रहा था. पास ही फोन के खंभे में लगे जंक्शन बाक्स में गौरैया दाना लेकर आ- जा रही थी अंदर उसके बच्चे शोर मचा रहे थे. वो सहर मुझे कुछ खास लगी, रात के बाद उम्मीदों की सुबह फिर अंगड़ाई ले रही थी.

10 comments:

  1. परिवार यूं ही नहीं बसते। तिनका तिनका मेहनत होती है उसके पीछे। घर अपना उजड़े या औरों का, संवेदनाएं हरी न हों तो लानत है इन्सानियत पर।

    बहुत खूब पोस्ट...

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  2. बहुत अच्‍छी कहानी .. सुंदर पोस्‍ट।

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  3. यही ज़िन्दगी की कहानी है ..आते जाते यूँ ही जीवन चलता है ..सुन्दर कहानी

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  4. बहुत मार्मिक! मेरे दफ्तर में कई दिन से एक नर गौरैया अकेला दीखता है। बड़ा दुख होता है कि उसकी पत्नी जाने कहां गई। उदास सा लगता है।

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  5. bahut khoobsurat rachna! ye parinde jeevan ke prarna srot hain. Ek marmik vyakhyan ke liye shubhkamnaye

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  6. ujadne walon ko kya pata ki ujadne walon ka dard kitna gahra hota hai...
    Jab aapko likhkar aur mujhe padhkar itna dard hua to unka dard sochkar ajeeb sa lagta hai.

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  7. गौरैया की प्रजाति लुप्त होने के कग़ार पर है. गिद्ध के विलोपन के कारण को तो ढूढ लिया गया लेकिन गौरैया की किसी को फिक्र है क्या?

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  8. eesi ka nam to jiwan hai chaurasi lakh stain par duti jo lagani hai
    bhagyoday organic.spotblog.com

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  9. aap bhi bahut hi bhawok hain...aapne is kahani ko likh ker logo me ummeed ka sath na chodne ka sabak diya hain....apki isi tarah ki predna se ham logo ko himmat milti hai

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