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12/29/09

मार देब चोट्टा सारे...


मेरे पड़ोस में एक अधिकारी रहते थे. आजमगढ़ के रहने वाले थे. छुट्टियों में कभी-कभी उनका एक भतीजा आता था नाम था बंटी. उम्र यही कोई आठ-नौ साल. खाने पीने में थोड़ा पिनपिनहा. मैं और अधिकारी का बेटा अक्सर बंटी को छेड़ते थे, कुछ यूं- बंटी, दूध पी..ब ? नाहीं.. बंटी, बिस्कुट खइब..? ना...हीं... बंटी, चाह पी ब... ना..आं... दू घूंट मार ल...मार देब चोट्टïा सारे. इतना कह बंटी पिनपिनाता हुआ उठ कर चला जाता था. कुछ दिन पहले एक वाक्या बंटी की याद दिला गया.
मैंने सोचा कुछ ब्लॉगर्स जो अच्छा लिखते हैं, उनकी काबिलियत का फायदा अपने पेपर के लिए उठाया जाए. दो-तीन लोग शार्ट लिस्ट हुए. इत्तफाक से सभी हाईफाई प्रोफाइल, हाई सैलरी वाले थे. ब्लॉग में पूरा पुराण लिख मारते हैं तो एक पेज पेपर के लिए लिख ही देंगे. ब्लॉग से शायद ही पैसा मिलता हो लेकिन इन लोगों से अनुरोध कर लिखवा रहा था इस लिए शिष्टाचार में जो टोकन पारिश्रमिक दिया जाता है वो भेजने के लिए उनका पता मांगा गया. कुछ पारिश्रमिक भेज रहे हैं, यह कहने पर एक ने विनम्रता पूर्वक मना कर दिया- इट डज़न्ट मैटर, दूसरे ने चुपचाप रख लिया और दो अच्छे लेख और भेज दिए. लेकिन तीसरा, ब्लॉगरों में 'बंटी' निकला. बड़े मनुहार के बाद लिखा. लेकिन जब पैसे का चेक पहुंचा तो दिन में दो बार फोन किया. पहले कहा कि इसमें से सौ रुपया तो टैक्स कट जाएगा. मैंने कहा ज्यादा सैलरी वालों का तो कटता ही है. शाम को फिर फोन आया. अब गोलबंद प्रवक्ता की तरह, इतना तो मिस्त्री-प्लंबर की एक दिन की पगार है.
अब 'बंटी'नहीं खिसियाने की बारी मेरी थी. कहा, अरे पान में चूना समझ कर चबा जाइए. तो ही ही करने लगे जनाब, अरे मैं तो मजाक कर रहा था. दिन में दो दो बार फोन कर कोई पिपिनाए और फिर कह दे मैं तो मजाक कर रहा था. ऐसे में 'बंटी' तो याद आएगा ही.

12/25/09

डा. कलाम और अनुष्का



आज आपको अनुष्का के बारे में बताते हैं. अनुष्का लखनऊ के लामार्टिनियर गल्र्स स्कूल में पढऩेवाली एक बच्ची है. आम बच्चों की तरह वो भी उन लोगों से मिलना चाहती है, उनके आटोग्राफ लेना चाहती है जो उनके रोलमॉडल हैं. पिछले कुछ दिनों से बीमार होने की वजह से अनुष्का स्कूल नहीं आ रही थी. उसे पता चला कि पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम मंगलवार को लामार्टिनियर आ रहे हैं बच्चों से मिलने. तो बीमार होने के बावजूद वह भी ड्रेस पहन कर पहुंच गई स्कूल उनसे मिलने. हाथ में एक छोटा सा बुके और खुद बनाया गया ग्रीटिंग कार्ड. लेकिन मिलने वाले बच्चों की लिस्ट में उसका नाम नहीं था और सुरक्षा कारणों से उसे डा. कलाम से मिलने की इजाजत नहीं मिली. मायूस अनुष्का स्कूल केबाहर ही अपनी मां के साथ खड़ी हो गई कि डा. कलाम जब बाहर निकलेंगे तो शायद हाथ मिलाने का मौका मिल जाए. लेकिन पुलिस वालों ने वहां भी ज्यादा देर नहीं खड़े होने दिया. मायूस मां-बेटी काफी दूर मोड़ पर अकेले खड़ी थीं. हमारा प्रेस फोटोग्राफर विकास बाबू ठिठका सूनसान रोड पर एक बच्ची को बुके लिए खड़े देख. अनुष्का और उसकी मां के आंखों में अपने रोल मॉडल से ना मिल पाने के कारण आंसू थे. उसने सलाह दी कि अब डा. कलाम गवर्नर हाउस जाएंगे. वहां कोशिश कर लीजिए. फोटोग्राफर भी राजभवन पहुंचा तो वहां भी मां-बेटी बुके लिए खड़ी मिली. राजभवन के गेट पर सेक्योरिटी वाले ने साफ मना कर दिया कि अप्वाइंटमेंट नही है तो नहीं मिल सकते. अनुष्का ने कहा प्लीज मरो कार्ड और बुके ही पहुंचा दीजिए अंदर. सब ने हाथ खड़े कर दिए. अनुष्का गेट पर खड़ी फिर रोने लगी. बच्ची को देख फोटोग्राफर भी परेशान था. इसके पहले डा. कलाम यूपीटीयू कैम्पस में थे और फाटोग्राफर विकास वहां भी था. उसने डा. कलाम के देर तक फोटो खीचे थे. लेकिन यहां वह कुछ मदद नहीं कर नही पा रहा था. तभी वीवीआईपी सिक्योरिटी में लगा एक सीनियर अफसर विकास को देख कर रुक गया. अरे, आप तो यूपीटीयू में भी थे. आपको अभी और फोटो चाहिए. विकास ने उनसे अनुष्का का बात बताई. अधिकारी ने कहा कि डा. कलाम अभी लंच कर रहे हैं फिर दिल्ली लौट जाएंगे. मुश्किल है मिल पाना. फिर भी कोशिश करते हैं. मायूस अनुष्का लौटने जा रही थी. तभी अंदर से मैसेज आया, मां-बेटी को अंदर भेजिए. डा. कलाम ने प्यार से अनुष्का को पास बैठाया, आटोग्राफ दिए, उसकी पढ़ाई के बारे पूछा, फोटो खिंचवाई. डा. कलाम ने अपने सेक्रेटरी की हिदायत दी कि ये फोटो अनुष्का को जरूर भिजवा दें. अनुष्का खुशी- खुशी बाहर आई. उसका चेहरा फूलों की तरह खिला हुआ था. तो ऐसे डा. कलाम और ऐसे हैं आजकल के बच्चे. इस जज्बे को सलाम.

12/24/09

हम सब में है एक मंजुनाथ



खबर आई है कि मंजुनाथ पर फिल्म बनेगी. आजकल के यंगस्टर्स मंजुनाथ की तरह ही हैं. हंसमुख, फिल्मी गाना गुनगुनाते अपने में ही मगन. मंजुनाथ जब आईआईएम लखनऊ में थे तो उन्होंने अपना एक रॉकबैंड ग्रुप बनाया था नाम था 3.4 केएम. क्योंकि मेन रोड से आईआईएम की दूरी इतनी ही थी. यही पैशन अब युवाओं के सर चढ़ बोल रहा है.
दो दिन पहले एक सर्वे आया था. यह दख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि चीन की तुलना में भारत कहीं ज्यादा यंग है. इंडिया का यूथ ड्रीमिंग, डेयरिंग, क्रिएटिव और कांशियस है. यंगस्टर्स का नजरिया अपने भविष्य को लेकर साफ है. आज का यूथ केवल सपना ही नही देखता है, उसे पूरा करने के लिए जोखिम उठाने को भी तैयार है. उसे पता है कि यंग होने का मतलब कम उम्र का होना ही नहीं, नया सोचना भी है. तभी तो उसने आपने रोल मॉडल्स में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को अमिताभ बच्चन से ऊपर रखा है. डॉ. कलाम यूं ही नहीं 2020 तक एक बेहतर भारत का सपना देखते हैं. संयोग से हाल ही में डॉ. कलाम लखनऊ में थे. उनका जोर यंगस्टर्स को सही दिशा देने पर था. उन्होंने एक बार फिर युवाओं को उनकी ताकत का एहसास कराया. चार महीने पहले भी उन्होंने यही बात कही थी कि हम अपनी ताकत को समझें, अपनी पहचान बनाएं. हम क्या ऐसा नया करें जिससे लोग हमें याद करें. इसी विजन ने डॉ. कलाम को बुलंदियों पर पहुंचाया और मिसाइलमैन की पारखी नजर अगर यंगसटर्स में 2020 के वल्र्ड चैम्पियन्स देख रही है तो इसमें गलत क्या है.
एक और बात. मंजुनाथ षणमुगम पर फीचर फिल्म बनाई जाएगी. सवाल उठता है मंजुनाथ ही क्यों? दरअसल आज हर संजीदा यंगस्टर में एक मंजुनाथ सांस लेता है. देखने में सीधासाधा, जॉली और बात-बात पर फिल्मी गाना गुनगुनाने वाला लेकिन करप्शन और अन्याय के खिलाफ लड़ाई में जान की बाजी तक लगा देने वाला. डॉ. कलाम ने युवाओं की आखों में यही तूफान देखा है. तभी तो वो कहते हैं 2020 हमारा है.
अगली कड़ी में डा. कलाम और अनुष्का.

12/20/09

याद आएंगे रामलाल


अखबार में काम करता हूं. हत्या, हादसा और भी तमाम बुरी खबरें आती रहती हैं. हम बिना विचलित हुए अपना काम करते रहते हैं. लेकिन कभी कभी कोई खबर दुखी कर जाती है. संडे रात खबर आई कि पुलिस हेड कांस्टबल की कार्बाइन छीन कर उसकी हत्या कर दी गई. मरने वाले का नाम था रामलाल.
सुन कर जैसे झटका लगा. वही राम लाल तो नहीं जिससे हर दूसरे -तीसरे दिन स्कूल के गेट पर मुलाकात हो जाती थी. वही रामलाल जिसने दो दिन पहले ठेले से अमरूद छाटने में मेरी मदद की थी, वही रामलाल जो सोने के दाम बढऩे परेशान था. उसे अपने छोटे बेटे की शादी करनी थी और गहने के लिए पैसे कम पड़ रहे थे. वही रामलाल जिसे देख कर लगता था कि इतना सज्जन व्यक्ति पुलिस में क्यों है. वही रामलाल जो मुख्यमंत्री के ओएसडी की सुरक्षा में तैनात था, वही रामलाल जो ेहमेशा कार्बाइन अपने साथ रखता था. वही राम लाल जो स्कूल के माली की हार्टअटैक से मौत पर दुखी था कि उसकी उम्र तो ज्यादा नही थी.
नहीं पता था कि वीवीआईपी की सुरक्षा में तैनात रामलाल खुद इतना असुरक्षित था. दूसरों के प्रोटेक्शन के लिए जिस कार्बाइन को वो हमेशा अपने साथ रखता था वही उसकी मौत का कारण बन गई. रामलाल से बस थोड़ी दिनों की इतनी सी जान पहचान थी. मेरी ओर से उसे छोटी सी श्रद्धांजलि.

12/13/09

मेरा पहला प्यार!




पिछले हफ्ते की ही तो बात है, अपनी प्रिया की सर्विर्सिंग कराई थी. उसका टायर बदलावाया था. नया सीट कवर लगवाया था. कितनी फ्रेश फ्रेश लग रही थी अपनी प्रिया. कुछ यंग सी, कुछ इठलाती सी. एक बार फिर फिर फिदा हो गया था उस पर. मैकेनिक से पूछा आयल-वायल तो चेक कर लिया है ना, कारबोरेटर साफ किया कि नहीं. अरे साहब गाड़ी बिल्कुल मक्खन है. फिर ना जाने क्या सूझा कि उससे पूछ बैठा, अच्छा बताओ कितने में बिकेगी. अरे साहब, बेचने की बात मत कीजिए, बेचना ही होगा तो मुझे दे दीजिएगा. अब ऐसी गाड़ी बनती कहां है. अरे हां, प्रिया का बनना तो कई साल पहले ही बंद हो चुका है. अब खबर आई है कि बजाज कंपनी मार्च के बाद स्कूटर बनाना बंद कर देगी. वेस्पा, लैम्ब्रेटा, प्रिया, बजाज 150, सुपर, चेतक, और इलेक्ट्रानिक, सब बंद हुईं बारी-बारी. अब बजाज कंपनी स्कूटर ही बनाना बंद कर देगी. सुन कर कुछ अच्छा नहीं लगा. इस लिए नहीं कि बाइचांस मेरे पास शुरू से प्रिया ही रही है, बल्कि इस लिए कि वेहिक्ल्स की भीड़ में एक जाना पहचाना चेहरा अब दिखना बंद हो जाएगा. वैसे भी धीरे-धीरे सड़कों पर स्कूटर दिखने कम हो गए हैं. प्रिया और बजाज तो वैसे भी बहुत कम दिखती हैं. लेकिन उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी उसे अलविदा कहने का समय आ जाएगा. अचानक मुझे प्रिया पहले से ज्यादा प्रिय, क्यूट और इनोसेंट लगने लगी. याद नही पड़ता कि इसने कभी निराश किया हो. प्रचंड गर्मी, आंधी-पानी, तूफान या वाटर लागिंग, कहीं भी कभी धोखा नहीं दिया, शिकायत नहीं की, कोई डिमांड नहीं की.

मेरे लिए तो खबर बहुत बड़ी थी. पूरा एक जमाना आंखों के सामने घूम गया. स्कूटर से जुड़ी कितनी खट्टïी-मीठी बातें याद आने लगी. कैसा संयोग है कि स्कूटर चलाना मैंने लैम्ब्रेटा से सीखा लेकिन दिल दे बैठा प्रिया को. लैम्ब्रेटी भी लाजवाब थी लेकिन उस समय भी मुझे प्रिया अधिक स्लिम, शोख, चुलबुली और स्मार्ट लगती थी. क्या गजब का पिकअब था. कालेज डेज में दोस्त की बजाज पर ट्रिपलिंग करना तो जैसे आम बात थी. कभी कभी तो शरारत में चार लोग भी लद जाते थे. लेकिन कोई फर्क नही पड़ता था. किसी भी शहर में बजाज स्कूटर पर पूरी फैमिली दिखना आम बात थी. अभी भी याद है कि एक दिन बगल में रहने वाले अंकल कुछ परेशान से आए. उनके बेटे का एग्जाम था और मोटरसाइकिल स्टार्ट नहीं हो रही थी. मैंने कहा था, बस दो मिनट अंकल अभी छोड़ता हूं. ठीक से दो किक भी तो नहीं मारनी पड़ी थी अपनी प्रिया में और गड्डी चल दी थी छलांगा मार दी. इस स्कूटर ने हर परीक्षा की घड़ी को पास किया. कितने ही मौके आए जब वह सिर्फ सवारी नहीं सहारा भी बन कर खड़ी थी. बेटी को स्कूल छोडऩे जा रहा था. रास्ते में पिछला पहिया पंक्चर हो गया. बेटी के चेहरे पर परेशानी के भाव थे. मैंने एक ईंट उठाई, गियरबाक्स के नीचे लगाई स्कूटर टेढ़ी की, बेटी से कहा, बस जरा सा सहारा दिए रहो. सिर्फ दो मिनट लगे थे पहिया बदलने में. अगले पल दौड़ रही थी प्रिया फर्राटे से. बेटी के चेहरे पर मुस्कान थी. ऐसे लम्हे तो कई हैं जब हम कभी प्रिया पर इतराए, कभी मुस्कराए तो कभी शरमाए. बात कुछ साल पहले की है. स्कूटर की डेंटिंग-पेंटिंग और ओवरहालिंग कराई थी. बिल्कुल नई नवेली दुल्हन की तरह लग रही थी. स्कूल में बच्चों की छुट्टी होने वाली थी. गेट के पास ही मेरी स्कूटर के पास आर्मी ट्रक भी खड़ा था. बच्चों के साथ लौटा तो फौजी ड्रेस में चार-पांच सरदारजी उसे घेरे खड़े था. मैंने संभल कर पूछा, क्या हुआ? उनमें से एक बोला, सर जी आपकी स्कूटर तो गजब की मेंटेन्ड है, इसके आगे मेरे सीओ साहब की स्कूटर भी फेल है.
एक बार स्कूटर से जा रहा था. पीछे से हार्न बजाते एक्टिवा पर सवार एक 'स्मार्टी' अचानक बगल में आकर बोली, अंकल साइड क्यों नहीं देते? इसके बाद वो ये गई-वो गई. क्रासिंग और मोड़ पर तो ऐसा तो अकसर होता है कि बड़ी सी बड़ी चेकिंग में भी पुलिस वाला प्रिया और बजाज की तरफ देखता तक नहीं. मैं मुस्कराता हुआ धीरे से निकल जाता हूं. कहते हैं अब बजाज स्कूटर की सेल बहुत घट गई है इसी लिए इसके प्रोडक्शन को बंद करने का फैसला लेना पड़ा. यंगस्टर्स को तो अब एक्टिवा, काइनेटिक या स्कूटी पंसद है. फ्यूल इफिशिएंसी को जाने दें तो लो मेंटिनेंस प्रिया और बजाज की खासियत इसकी सिम्प्लीसिटी ही थी. लेकिन इस सिम्प्लीसिटी की काम्प्लेक्सिटी को समझना आसान नहीं. फिलहाल इस पोर्टिको के कोने में धूल खाती स्कूटर को चमकाइए और निकल जाइए ज्वायराइड पर.

12/9/09

ब्लॉगर्स नैनो मीट



आज कल ब्लॉगर्स मीट का फैशन सा चल पड़ा है. तीन-चार ब्लॉगर्स एकजगह जमा हुए और हो गई मीट. कॉफीहाउस, होटल किसी के घर की बैठक, चौपाल, खटाल, कहीं भी हो सकती है ब्लागर्स मीट. पिछले हफ्ते ऐसी ही एक मीट हमारे यहां भी हुई. सुना है कि छह-सात लोगों की दो-तीन घंटे चकल्लस को संक्षिप्त मीट कहते हैं तो तीन लोगों की एक घंटे की गप को अति संक्षिप्त मीट. एक नैनो मीट का भागीदार पिछले संडे को मैं भी बना.
सोचा नहीं था कि ब्लॉग पर बतकही करने वाले घर पर भी आ धमकेंगे. पहले कभी न देखा ना मिला, लेकिन सुबह सुबह पहुंच गए. नेट पर एक हैट लगाए रहता है और दूसरा बहुरूपिया है. अपनी तस्वीर की जगह कभी गोभी तो कभी कनैल का पेड़ टांग देता है. हैट वाला तो सातै बजे आने को तैयार था. टिका तो फाइव स्टार होटल में था लेकिन कास्ट कटिंग के चक्कर में बिना चाय पिए चला आया. दूसरका भी छुच्छै चला आया था. उसने बिना चाह पानी किए आने के कई कारण बिना पूछे ही बता दिए. हैट वाले को मैंने ही सजेस्ट किया था कि शहर में नए हो आटो वाले ठग लेंगे इस लिए कनैल वाले के साथ आओ. उसके पास कार है इसका पता एक दिन पहले ही चला था जब फ्री के चक्कर में ओस में बैठ कर सूफी संगीत सुनने लखनऊ विश्वविद्याल कैंपस चले आए थे महराज. तब उनसे पहली बार मुलाकात हुई थी. लंठ इतने बड़े कि पूरा यूपी घूम लिया है लेकिन लखनऊ विश्वविद्यालय का रास्ता नहीं जानते. हैट वाला अपनी टोपी पुणे में छोड़ कानपुर आईआईटी गया था स्टूडेंट को टोपी पहनाने. लौटते समय मिलने का मौका मिल गया.
संडे को मेरी छुट्टी नहीं होती है सो किसी तरह सुबह एक घंटा मैनेज किया. आठ बजे के बाद मेरे घर में मिलना तय हुआ. सवा आठ के करीब फोन की घंटी बजी और नीचे ट्रैक्टर जैसी आवाज सुनाई दी. नीचे एक कार आगे-पीछे हो रही थी. लंठाधिराज को एक बार फिर फोन पर घर का पता बताया. हम तीनों गर्म जोशी से मिले. जैसा कि तय था चाय बनने लगी. पत्नी को न जाने क्या सूझा , गोभी के पकौड़े भी बना दिए. कुछ अमरूद भी बचे थे सो काट कर रख दिए गए. बात चल निकली, वही सब जो ब्लॉगर्स बतियाते हैं. पकौड़ी की पहली खेप ठीक ठाक मात्रा में थी और गर्म थी, सो सब चट कर गए. आदतन मैंने कहा और लाओ. लेकिन किचेन में तो मैदान साफ. अंदर जा कर मैं फुसफुसाया क्या करती हो, बेज्जती कराओगी.
लौट कर मैने उन्हें बातों में ऐसा उलझाया कि पकौड़े का ध्यान ही नहीं रहा. आधा घंटा बीत चुका था. अब तक पत्नी ने फटा फट सिंघड़े काट कर तल दिए थे. मैंने पूछा काफी चलेगी? दोनों पहली बार में ही तैयार हो गए. मैंने विजयी भाव से कहा सिंघाड़े खाते हैं, दोनों ने दांत दिखा दिए. सो सिंघाड़े भी आ गए. फिर पता ही नही चला एक घंटा कैसे बीत गया. हैट वाले के दोस्त का फोन आ रहा था और मेरे आफिस का भी वक्त हो चला था. मुझे लगा कि हम पहली बार नहीं मिल रहे. जैसे समझा था दोनो वैसे ही निकले शरीफ, सरल बहुत कुछ आम भारतीयों जैसे. एक का नाम था अभिषेक ओझा और दूसरे का नाम गिरिजेश राव. तो ये थी ब्लागर्स की नैनो मीट.

11/27/09

कुछ जज्बात जंगली से!


कुछ जज्बात जंगली से!
चलिए आज आपको सच का सामना कराते हैं झूठ की स्टाइल में. मैं आज आप से एक शर्त लगाता हूं. आपने अब तक कम से कम एक हजार बार झूठ जरूर बोला होगा, छोटा या बड़ा और आपकी लाइफ में हजार बातें ऐसी होंगी जिसे आप आजीवन किसी से शेयर नही करेंगे, अपने डियरेस्ट और नियरेस्ट से भी नहीं. ये झूठ-सच किसी पाप या अपराध की श्रेणी में नहीं आते. इनको शेयर ना करने से किसी का भी नुकसान नहीं. ये हमारी लाइफ के ऐसे छिपे ट्रेजर हैं जो हमें डिप्रेशन और लोनलीनेस से बचाते हैं. ये कभी खुशनुमा एहसास हैं, कभी मुस्कान हैं, कभी मीठी चुभन हैं, कभी अधूरे अरमान हैं और कभी बस ऐसी यादे हैं जो हमें एनर्जी से भर देती हैं और एहसास कराती हैं कि जिंदगी का सफर अभी जारी है.

ढेर सारे सच और उन्हें छिपाने के लिए बोला गया झूठ हमारे जीवन की ऐसी हिडेन फाइल्स हैं जो सामने आ जाएं तो हो सकता है हंगामा खड़ा हो जाए और ये भी हो सकता है कि बेस्ट सेलर बन जाएं. आप ही बताएं बेस्ट सेलर क्या होता है? कुछ ऐसा जो हर पढऩे वाले को अपना लगे. उसे लगे कि अरे...ये तो मेरी कहानी है, ऐसा तो मैंने भी किया है, ऐसा तो मेरे साथ भी हुआ है. किसी भी किताब के ऑथर को किताब लिखते समय क्या पता होता है कि वो धमाल मचा देगी. कभी कोई कांट्रोवर्शियल बात, कोई रहस्योद्घाटन, कोई सच या कोई फैंटसी किसी बायोग्राफी, नॉवेल या बुक को बेस्टसेलर बना देती है.


हमेशा कहा जाता कि सच का सामना करो, सच बोलो लेकिन अप्रिय सच मत बोलो. तो क्या झूठ बोलो, प्रिय झूठ बोला? थोड़ा दार्शनिक अंदाज में कहें तो सच का वजूद ही झूठ पर टिका है जैसे अंधेरे के बिना प्रकाश का वजूद नहीं है. गम है तभी खुशियों का मतलब है.
शरारत के बिना शराफत को एक्स्प्लेन नहीं किया जा सकता. बचपन में ही क्यों इंसान तो जिंदगी भर शरारत करता रहता है, बचपन में खुलेआम तो बड़े होने पर चोरी छिपे या शराफत से. जरा याद कीजिए, आप अब भी ऐसे छोटे-मोटे झूठ जरूर बोलते होंगे, बेवजह. उससे ना उससे आपको कोई फायदा हुआ ना दूसरे को कोई नुकसान. लेकिन कई ऐसे मौके भी आए होंगे जब आप सच बोलते तो आपको या किसी दूसरे को नुकसान हो जाता. सो ऐसा झूठ बोलने में मेरे हिसाब से कोई हर्ज नहीं है जो प्रिय है और उससे किसी का नुकसान नहीं होता. याद कीजिए किसी डिसट्रेस्ड की काउंसिलिंग के समय या किसी परेशान को ढ़ाढस बंधाते समय हम कई बार ऐसे झूठ का सहारा लेते हैं, कभी किसी को ट्रॉमा से उबारने के लिए झूठा दिलासा देते हैं. और तो और हम कभी कभी अपनेआप से झूठ बोलते हैं. ऐसा करते समय हम अक्सर फैंटसी की दुनिया में चले जाते हैं उन सपनों को पूरा करने जो रीयल लाइफ में पूरे होते नहीं लगते. कुछ ऐसे सवाल होते हैं जिसका जवाब इमैजिनेटिव वल्र्ड में ही पाया जा सकता है. तो आइए इस संडे थोड़ी शरारत हो जाए लेकिन शराफत से.


पहले आपकी हिडेन फाइल्स से झेड़छाड़ करते हैं. आपको पता है कि उन फाइलों को हैक करना सबसे आसान है जो आपने अपने मन की हार्ड डिस्क में छिपा कर या सहेज कर रखी हैं. वैसे इनका पासवर्ड एक की होता है-कुछ कुछ होता है. एडॉलिसेंस, टीन एज, ग्रोनअप एज और उसके बाद की उम्र में भी हमें कुछ-कुछ होता रहता है और हम सब कुछ ना कुछ करते हैं. ये सब गुड ब्वॉय और गल्र्स ने भी किया है और बैड गॉइज और रोडीज तो करते ही हैं. स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी कैंपस और फिर वर्किंग प्लेस हर जगह लोग बड़े चाव से अपने या अपने किसी साथी के बारे में बताते फिरते हैं कि कितने अफेयर्स थे, मैंने कितनों के साथ फ्लर्ट किया है, कितनों के साथ स्टडी डेज में 'गोइंग स्टडी' चला है. पिक्चर हॉल में क्या हुआ जब आपको किसी प्रिटीगर्ल के बगल में सीट मिल गई थी, क्या निहायत शरीफ बने बैठे आप के मन में शरारत नहीं सूझ रही थी.
घर में अकेले हों और कोई आ जाए. शालीन, पोलाइट और आइडियल होस्ट बने आपके मन में अचानक वाइल्ड थॉट नहीं आए थे क्या? भले ही आप उस समय उसे दबा ले गए हों और ये भी हो सकता है कि फैंटसी की दुनिया में आपने वो सब किया हो जो उस समय नहीं कर पाए थे. आप लाख ना कहें इसका उत्तर हमें पता है कल्पना लोक में आप जो भी करते हैं, उससे हमें संतुष्टिï मिलती है लेकिन दूसरों को कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर ऐसा ना हो तो अराजकता फैल जाए. फैंटसी, समाज को बहुत बड़े संकट से बचाए हुए है. अच्छा पिंकी, प्रियंका, नेहा, प्रिया या सुप्रिया, या आप जो भी हों बताएं, आपको 'वो' अच्छा लगता था ना, 'उसके' बारे में आप ये सब ... सोचतीं हैं ना. आपका भी मन करता है ना शरारत करने को...कभी-कभी फ्लर्ट करने को...एटलीस्ट फैटसी की दुनिया में. अच्छा आपको टाइट जींस और ब्लैक टाप पहनना अच्छा लगता है, क्यों? टीन एज का वो वाकया आप या हम कैसे भूल सकते हैं जब में पड़ोस की ... को देख कुछ हो जाता था. आप कल्पना की दुनिया में क्यों चले जाते थे. उपमन्यु चटर्जी की एक किताब पढ़ी थी - 'इंग्लिश अगस्त, ऐन इंडियन स्टोरी'. किताब के पन्ने पलटते हुए लग रहा था कि ऐसा ही कुछ तो हम भी सोचते हैं और हमारे साथ भी होता है. फिर आपके साथ क्यों नहीं होता होगा.

अगर आप हेल्दी हैं, एनर्जेटिक हैं, आपकी हारमोनल ग्रोथ ठीक है तो अपोजिट सेक्स के प्रति अट्रैक्शन नेचुरल है. याद रखिए इमैजिनेशन, क्रिएशन की नींव है, वाइल्ड इमैजिनेशन भी. अगर ऐसा नहीं होता है तो कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. आपके घर के पास वो शोख लड़की रहती थी ना जिसे आप चुपके से निहारते थे. आपके दोस्तों के बीच रोज उसकी चर्चा भी होती थी ना. आखिर उसमें ऐसा क्या था कि रोज एक से एक मसालेदार किस्से... मोहल्ले की उस 'बब्ली' की चर्चा में वो 'बंटी' भी शामिल थे जिनकी छवि पढऩे वाले राजा बेटा वाली थी. और 'बब्लीÓ भी कभी-कभी मुस्करा देती थी. बाकी काम तो आपके वाइल्ड थॉट्स करते थे. अगर ऐसा ना हो तो सब बावले हो जाएं. सो नो टेंशन सच-झूठ के इस खेल में कितनी ही बातें, कितने ही फसाने हैं, इस शहर में तुम जैसे हजारों हैं.

नाट्य रूपांतर 26/11



हम... हम... सिर्फ हम! सबसे पहले, सबसे बेहतर, सबसे तेज. तुम कौन? अच्छा तुम्हारा कोई अपना शहीद हो गया था 26/11 को. चच्च... अफसोस की बात है...लेकिन मैं बता दूं कि सबसे पहले ये खबर मेरे चैनल ने ब्रेक की थी कि ये आतंकी हमला है. एक साल हो गए 26/11 को. जख्म गहरे हैं. जिनके अपने मारे गए उनके लिए भी और जिन्होंने देखा और सुना उनके लिए भी. लेकिन कुछ लोग इस दिन भी नौटंकी से बाज नहीं आए. कुछ अलग, कुछ हटके नहीं दिखाया तो टीआरपी गई. टीआरपी गई तो नौकरी गई...भोंडा, हास्यास्पद, नाट्य रूपांतर कुछ भी दिखाओ. स्टेज पर रिपोर्टर बात कर रहे हैं...यार याद है ना उस दिन यहीं हम लोग मोर्चा लिए हुए थे तभी दो गोली कान के बगल से निकल गई और दीवार से टन्न से टकराई...अरे मैं तो और भी बाल बाल बचा... एक गोली मेरी टांगों के बीच से निकल कर डिवाइडर से टकराई..तब मुझे अहसास हुआ कि मेरी टांगों का डिवाइडर कितना साफ बचा है. ..एक मिनट आपको रोकना चाहूंगा...एक अहम खुलासा.. इस समय मैं जिस सड़क पर आगे बढ़ रहा हूं एक साल पहले कसाब और उसका साथी यहीं से गूजरे थे. ग्रेनेड और एम्युनिशन के अलावा कसाब के बैग में पिश्ता-बादाम और चिलगोजे भी थे. ये जानकारी सिर्फ हमारे चैनल के पास है...
तभी दूसरे चैनल में रनिंग कमेंट्री शुरू हो जाती है..एक कंट्रोल रूम में कंप्यूटर के सामने वाकी टाकी लेकर थर्ड अंपायर की मुद्रा में बैठे तीन चार दढिय़ल. जबरिया कश्मीरी, पंजाबी एक्सेंट में हुक्म देते हुए..बोलें जनाब... क्या कहा कमांडो...करें करें...क्या करें चचा...फायर करें...मेरे बच्चे अपने को बचाओ...जो भी सामने आए खतम कर दो...ग्रेनेड फेकें...अच्छा अच्छा.. मैंने सोचा ग्रनेड बचा के वापस लाने हैं...चिलगोजे और पिश्ते खाते रहें..ताकत बचा के रखनी है...लेकिन चचा उसके पहले गोली खा गए तो? ..तो जन्नत मिलेगी मेरे बच्चे...अब दो तरफ से फायर आ रहा है...ग्रेनेड से जवाब दें...जनाब मुश्किल आ रही है...एक ही बैग में ग्रेनेड और चिलगोजे नहीं रखवाने थे. ग्रेनेड की जगह पिश्ते आ रहे हैं, जनाब मैंने तो हड़बड़ी में दीवार पर मुट्ठी भर पिश्ता दे मारा..कोई बात नहीं मारें-मारें सब को मारें...तड़ तड़ तड़...!
अब और नहीं..एनफ इज एनफ...मैं...अमिताभ बच्चन...मैं रजा मुराद...और मैं एक आम आदमी...आइए वापस चलते हैं स्टूडियो. अगले साल फिर मिलेंगे इसी चैनल पर इसी समय..कही जाइएगा नहीं..
..

11/20/09

शुष्क शौचालय!


मैं भारतीय हूं. मुझे भारतीय होने पर गर्व है. लेकिन मुझे उन ढेर सारे भारतीयों पर गर्व नहीं हैं जो अपनी संतुष्टि के लिए मुंह में शौचालय चला रहे हैं. शायद शुष्क शौचालय. पता नहीं आम भातीय इतना क्यों थूकता है. कहीं भी कभी भी. जो पान और पान मसाला खाते हैं वो भी और जो नहीं खाते वो भी. जैसे कुत्ता दीवार देख कर पेशाब किए बिना नही रह सकता वैसे ही कुछ लोग दीवार और कोना देख कर थूके बिना नहीं रहते. लिफ्ट तक को नही छोड़ते लोग. पहले मैला ढोने वाली भैंसा गाड़ी आगे जारही होती थी तो हम लोग रुक जाते थे या रास्ता बदल देते थे. लेकिन अब किस किस से बचेंगे. लोग तो मुंह में मैला लिए फिरते हैं. कौन कब आगे निकल कर पिच्च से कर देगा और उसकी फुहार आपके तन मन को पीकमय कर देगी, पता नहीं. और आप का भी मन करने लगेगा कि पीक से भरी बाल्टी और पिचकारी लेकर उसके पूरे खानदान के साथ फागुन खेल आएं. पान और मसाला जिसको खाना हो खाए लेकिन दूसरों का जीवन क्यों नर्क बना रहे हैं ये पीकबाज. अच्छे खासे मुंह को शौचालय बना रखा है. मुंह में मसाला डाला, जरा सी नमी आई तो पिच्च. फिर मुंह शुष्क. फिर मसाले का एक और पाउच, फिर नमी फिर पिच्च. अब ऐसे लोगों का मुंह शुष्क शौचालय नहीं हुआ तो और क्या हुआ. पान और मसाले खाने वालों से कोई नाराजगी नहीं, नाइत्तफाकी है तो बस उसके डिस्पोजल के तरीके से.

11/18/09

'बिंदास हिन्दी अच्छी'






ये हैं जार्जिआ ड्वेट. वैसे तो डच हैं लेकिन रहने वाली हैं बेल्जियम की. उनकी मातृभाषा डच है. फिर भी 'बिंदास' हिन्दी बोलती और लिखती हैं. बिंदास इस लिए कि जार्जिआ को उतनी हिन्दी आती है जितनी कि आम भारतीय को अंग्रेजी आती है. उन्होंने हिन्दी और संस्कृत की पढ़ाई बेल्जियम में की. बेल्जियम, जहां बहुत कम लोग हिन्दी जानते हैं. लेकिन इंडिया उन्हें एक इंटरेस्टिंग कंट्री लगता है. बेल्जियम गवर्नमेंट भारत से व्यापारिक रिश्ते बढ़ाना चाहती है. जार्जिआ, इंडिया एक मिशन पर आई हैं. घबराइए मत, हैडली जैसा मिशन नहीं. इनके इरादे नेक हैं. वो हिन्दी को भारत में घूम कर समझना चाहती हैं. चौंकने की बारी मेरी थी जब उन्होंने कहा कि इंडिया में खास कर उत्तर भारत में लोग जिस तरह की हिन्दी बोलते हैं वैसी तो उन्होंने नहीं पढ़ी. उन्होंने तो शुद्ध हिन्दी पढ़ी है. हां, उस तरह की हिन्दी उन्होंने सरकारी कार्यालयों में जरूर प्रयोग होते देखी है. मैंने कहा वो क्लिष्ट हिन्दी है और जो आम लोग बोलते हैं वो बोलचाल की हिन्दी है. आपको कौन सी हिन्दी अच्छी लगती है? जार्जिआ तपाक से बोली आपकी बोलचाल की हिन्दी क्योंकि इसमें अंग्रेजी उर्दू और संस्कृत भी है. कागज पर जार्जिआ हिन्दी लिख लेती हैं लेकिन कम्प्यूटर पर हिन्दी की-बोर्ड का ज्ञान उन्हें नहीं है. इसके लिए वो यूनीकोड टूल्स का इस्तेमाल करती हैं. यानी लैटिन से हिन्दी. बेल्जियम में हिन्दी के कारण उन्हें नौकरी आसानी से मिल गई. वहां हिन्दी दुभाषिये गिनेचुने हैं उसमें से जार्जिया भी एक हैं. है ना इंटरेस्टिंग.

11/1/09

इस धुंधली सुबह बसी है रात की खुशबू



थोड़ी खुशबू, थोड़ी खुनक, थोड़ी खुश्की और थोड़ी खामोशी. और कैसी होती है खुशनुमा सुबह. विंटर को वेलकम करने का इससे सुंदर तरीका और क्या हो सकता है. ऑटम तो आता ही है विंटर को वेलकम करने. उफ्, शरद ऋतु की ये शीतल चांदनी और मिस्टी मॉर्निंग दीवाना बना रही है. लोग वसंत को ऋतुराज कहते हैं लेकिन मुझे तो शरद से शानदार कुछ नही लगता. चांदनी में ओस की बूंदों में जैसे अमृत बरसता है. सुबह वो बूंदें पत्तों की हथेलियों और फूलों की पलकों पर ठहर कर जैसे आपका ही इंतजार करती रहती हैं. सुबह की धूप में इनकी चमक देख कर लगता है जैसे किसी स्कूल में ढेर सारे बच्चे मॉर्निंग एसेंबली में प्रेयर कर रहे हों या राइम गा रहे हैं. साल भर इंतजार कराने के बाद शेफाली (हरसिंगार) फिर महकने लगा है. इसके फूल शाम ढलते ही अपनी खुशबू से अहसास करा देते हैं कि अगले दिन मॉर्निंग वॉक में अपके रास्ते में वो पलक-पांवड़े बिछाए मिलेंगे. बचपन में ऋतुओं का ये राज समझ नहीं आता था. बस लगता था कुछ बदल गया है, कुछ नया सा है कुछ ठंडा सा है. सुबह थोड़ी-थोड़ी धुंध, बाक्स से निकाले गए गर्म कपड़ों और रजाई की खुशबू, किचेन में चाय के लिए कूटे जा रहे अदरक की खुट-खुट और रात में करारे चीनिया बादाम वाले की आवाज के साथ करीब आती ढिबरी की रोशनी बता देती थी कि ठंड आ गई है. फिर रात को रजाई में दुबक कर सोना..कितना सुखदाई है ये गुनगुना अहसास.
अब ये मत कहिएगा कि ये सब पुरानी बाते हैं, बक्त बदल गया है. वक्त तो होता ही है बदलने के लिए. छोटे शहर बड़े हो गए, बड़े शहर मेट्रो हो गए. बाग बगीचों वाले बंगले अपार्टमेंट्स में तब्दील हो गए. पार्क के कोने में आम का जो दरख्त था वहां अब एक मिल्कबूथ है. अब स्कूल जाते समय मफलर बांधे हाथ में दूध की डिब्बा और छड़ी लिए वो बुजुर्ग भी नहीं मिलते. हाथ में फूल का दोना लिए मंदिर जाती बूढ़ी काकी भी नहीं मिलतीं. शाम को स्कूल से लौटता-खिलखिलाता लड़कियों का झुंड भी नहीं मिलता. नुक्कड़ पर मोहन बागड़ की चाट का ठेला भी नहीं लगता. लेकिन शरद ऋतु तो अब भी आती है, हरसिंगार तो अब भी महकते है. आपकी छत या अपार्टमेंट की मुंडेर पर ग्लैडियस, कॉलियस या गुलाब के जो गमले रखे हैं उनकी पत्तियों पर अभी भी ओस की वैसी ही बूंदें किसी का इंतजार करती हैं. देखिए टेरेस में जो बॉगिनवीलिया आपने लगा रखा है उसमें आए लाल फूलों को देख ये छोटी से फिंच कितनी खुश है. घर के पास बरसाती पानी और और ऊबड़-खाबड़ गड्ढों से भरा जो मैदान था वहां कितना सुंदर पार्क है. गुलमोहर और अमलताश की कतार के बीच दूब में खेलते ये बच्चे कितनी एनर्जी से भरे लगते हैं. और झाडिय़ों की ओट में वो जोड़ा अपने में खोया हुआ भविष्य के ना जाने कितने सपने बुन रहा है, कसमें खा रहा है. पार्क किनारे बेंच पर बैठे वो चार बुजुर्ग कितनी निश्चिंतता से गपशप में मशगूल हैं. कोई मंकी कैप लगाए है कोई पेपर में छपी किसी खबर पर चर्चा कर रहा है. सब ठहाके लगा रहे हैं. क्या इन्होंने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव और बदलाव नही झेले हैं. ये सब खुश हैं क्योंकि उन्हें पता है चेंज तो इनएविटेबल है, शाश्वत कुछ भी नहीं. शाश्वत है तो ये दिन-रात और नेचर. कल की उधेड़बुन में हम अपने आसपास बिखरी इन खुशियों को क्यों नही महसूस कर पाते. घर के पास ही पुरानी सी एक कोठी थी. उस पर एक नेमप्लेट लगी थी...मिसेज..चैटर्जी. ध्यान उधर चला ही जाता था क्योंकि वहां से गुजरने पर फूलों की खुशबू मन को वहां तक खींच लाती थी. वहां एक ओल्ड लेडी अक्सर खड़ी नजर आती थीं अकेली. शायद बच्चे बाहर रहते होंगे. फिर उनका दिखना बंद हो गया. बोर्ड भी हट गया. एक दिन देखा कोठी टूट रही है. पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगा. अब वहां एक नर्सरी स्कूल है. फिर शरद की एक सुबह शेफाली की खुशबू स्कूल तक खीच लाई. देखा, एक कोने में फूलों से लदा हरसिंगार अभी भी वहां है. लगा मिसेज चैटर्जी वहां खड़ी मुस्करा रहीं हैं और कहीं से आवाज आ रही है...रहें ना रहें हम.. महका करेंगे बन के फिजा...
आप कह सकते कि ये सब रूमानी और काल्पनिक बाते हैं और ये शहर के पॉश इलाके की तस्वीर हैं. शहर में इतनी हरियाली अब कहां बची? जी नहीं, इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं हैं. जानते हैं पार्क की बेंच पर बैठे सत्तर साल के वो
बुजुर्ग पुराने शहर की एक गली से चार किलोमीटर का फासला तस कर रोज यहां आते हैं. एक दिन नर्सरी से गेंदे और बेला के पौधे ले जा रहे थे. किसी ने पूछा गली में कहां लगाएंगे. बोले टेन बाई टेन के टेरेस में मैंने क्या किया है कभी आइए, दिखाउंगा. ठीक है शहर बड़ा हो रहा है. जहां बड़े बड़े पेड़ थे वहां अब मल्टी-स्टोरीड अपार्टमेंट्स हैं. उसमें रहना लोगों की मजबूरी हो सकती है. लेकिन आसपास कहीं प्रकृति आपका वैसे ही इंजतार कर रही है. तो आइए शरद की इस धुंधली सुबह शेफाली की खुशबू के बीच थोड़ा टहल आएं.

10/30/09

अब कहां जाएगी पिंकी!!


स्टार बनना किसे अच्छा नहीं लगता. यंगस्टर्स का सपना होता है सेलिब्रिटी बनने का. पैरेंट्स भी तो चाहते हैं उनके बच्चे नाम रौशन करें पूरी दुनिया में. सपनों को साकार होते देखना अच्छा लगता. टीवी-फिल्म एक्टर, राइटर, डाइरेक्टर, स्कॉलर, क्रिकेटर, दूसरे प्लेयर, छोटे-बड़े सबको सेलिब्रिटी स्टेटस लुभाता है. रियलिटी शो की अफशां-धैर्य, सिंगिंग का लिटिल सरप्राइज हेमंत, कॉमेडी की बच्ची सलोनी या फिर विजकिड युगरत्ना ऑफ यूएन फेम. इन सब की चमक देख याद आने लगती है राइम-ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार हाउ आई वंडर व्हॉट यू आर...
लेकिन फिर 'स्टारडम' की डुगडुगी इस तरह बजते देख डर लगता है. जिसे देखो वही डुगडुगी लेकर इस खेल में भागीदार बनना चाहता है. इस खेल में पिंकी (स्माइल पिंकी फेम) कभी इस शहर में स्माइल करती है, कभी उस शहर में, कभी यहां सम्मान, कभी वहां एडमिशन. और अचानक स्माइलिंग पिंकी सहमी-सहमी लगने लगती है. सुना है वो एक महीने से स्कूल नहीं जा रही. पिंकी अपने गांव में विकास कार्यों की सिफारिश लेकर विंध्याचल मंडलायुक्त कार्यालय के चक्कर लगा रही है. इसी तरह सारेगामापा के टॉप फाइव के राउंड में तो लखनऊ की प्रतीक्षा जम कर गाती है लेकिन मीडिया के लौट कर मीडिया के सामने रोने लगती है. इन लिटिल वंडर्स पर इतना दबाव कौन डाल रहा है. वे खुद कतई दोषी नहीं हैं. युगरत्ना की विजडम और इंटेलिजेंस पर उसके पैरेंट्स और स्कूल को ही नहीं पूरे देश को गर्व है. धन्य हैं ये बच्चे लेकिन इनके स्टारडम को कहीं हम ओवर यूज तो नहीं कर रहे. कहीं इनकी एनर्जी समय से पहले तो निचोड़ नहीं नहीं ले रहे. ये स्टार्स किसी भी शहर के हों, इनके शेड्यूल पर नजर डालिए. आज इस फंक्शन में तो कल दूसरे फंक्शन में. आज यहां उद्घाटन तो कल वहां दीप जलाना. शहर के बडे प्रोग्राम या गैदरिंग में इन स्टार्स का पार्टिसिपेशन जरूरी समझा जाता है. इनकार कर नहीं सकते क्योंकि ऑनर में दिए जा रहे इनविटेशन को ठुकराने पर 'स्नॉब' समझे जाने का खतरा है. लेकिन इन्हें बार-बार किसी मंच पर खड़ा होने को मजबूर कर, क्या हम इनका सही मायने में सम्मान कर रहे हैं? जो समय पढ़ाई का होना चाहिए, उस समय को सेमिनार और भाषण में खर्च कर हम इनके विकास के सहज मार्ग में बाधएं तो नहीं खड़ी कर रहे?

10/19/09

'तंदुरुस्ती गुरू'


प्रेमचंद को बहुत नहीं पढ़ा लेकिन जितना भी पढ़ा है मन लगा के. बचपन से अब तक कहीं किसी रोज किसी मेड़ पर, किसी मोड़ पर, अनायास कोई मिल जाता है तो प्रेमचंद का कोई पात्र या बचपन में सुनी कहानी का कोई किरदार याद आने लगता है. ऐसे ही एक कैरेक्टर थे मेरे दादाजी के बड़े भाई. उनका असली नाम था पं. आदित्य प्रसाद ओझा लेकिन निक नेम कई थे. इसमें से एक नाम था 'तंदुरुस्ती गुरू'.
किसी गांव-कस्बे में त्योहारों पर मेला-खेला देखता हूं तो बचपन के कहानी - किस्से याद आने लगते हैं. कहानियां जो कभी दादाजी ने सुनाई थी, कहानी जो पिता जी सुनाते थे. पढ़ाई के लिए वो अक्सर अपने बचपन और मेरे दादाजी के बचपन की कहानियां सुनाया करते थे कि कैसे अत्यंत गरीबी में विद्या के बल पर परिवार आगे बढ़ा और विद्या ही परिवार की पूंजी है. इस प्रसंग में तंदुरुस्ती गुरू के उदाहरण बार बार आते थे. कभी दरियादिल के रूप में, कभी जीवट वाले यंगमैन के रूप में, कभी मेहनतकश तो कभी गरीबी से जूझते इंसान के रूप में.
तंदुरुस्ती गुरू मजबूत कद-काठी वाले साढ़े छह फुट के इंसान थे. उनके माता-पिता बचपन में ही गुजर गए थे शायद प्लेग से. सो ज्यादा पढ़ नहीं सके. लेकिन वर्जिश खूब करते थे. मेहनती इतने कि दिन भर हल चलाते रहें. सुना एक बार बैल अचानक मर गया, दूसरे के लिए पैसे नहीं थे सो उसकी जगह खुद बैल के साथ हल में जुत गए थे 'मदर इंडिया' स्टाइल में. जाहिर है कि इतनी मेहनत करने वाला खाना तो ज्यादा खाएगा ही. उनके भोजन भट्ट होने की ख्याति आसपास के गांवों में भी थी. दादा जी के तीनों भाइयों के बीच थोड़ा बहुत जो खेत था उसका बंटवारा नही हुआ था लेकिन एक एमओयू के तहत चूल्हे अलग अलग थे. तंदुरुस्ती गुरू सबसे तंगी में थे. बजरी (बाजरे) का भात पर गुजारा करना पड़ता था. कभी तो दाल छौंकने के लिए लिए भी घी नहीं होता था. ऐसे ही एक बार सादी दाल परोसे जाने पर तंदुरुस्ती गुरू भड़क गए. बताया गया कि घी नहीं है. तुनक के बोले मैं सिखता हूं बिना घी के तड़का लगाना. उन्होंने खाली कल्छी ली आग में तपाया और देगची में छोंओं....लग गया तड़का. न्योता-दावत में ओझा फैमिली को वे ही रिप्रेजेंट करते थे. दस-दस कोस पैदल चले जाते थे न्योता खाने. लोटा, लाठी और साफा उनकी ड्रेस थी. न्योता में इतना खा लेते की दो-तीने दिन वहां से हिलने की हालत में नहीं होते थे. वहीं टिके रहते स्थिति सामान्य होने तक. अच्छे बैल रखने का उन्हें शौक था. कोई बड़ा मेला लगे तो नया बैल जरूर लाते थे. एक- दो महीने बर्धा (बैल)की खूब सेवा होती. लेकिन छह महीने बीतते न बीतते वह बैल घोर उपेक्षा का शिकार हो जाता और खाए बिना मरने लगता. नौबत ये आ जाती कि उसी बैल को दो आदमियों की मदद से पूंछ पकड़़ कर बमुश्किल खड़ा किया जाता. मर जाता तो फिर नए बैल के साथ वही प्रक्रिया दोहराई जाती. मेरे गांव के पास सिरसा बाजार है. दादाजी ने कभी बताया था कि दीपावली के पास एकबार मेला लगा था. पंजाब से सर्कस कंपनी आई थी. वहां डुगडुगी पीटी जा रही थी कि उनके पहलवान को जो पंजा लड़ाने में हरा देगा उसे दो रुपए ईनाम. इंट्री फीस एक आना थी. तंदुरुस्ती गुरू ने दादाजी से एकन्नी उधार ली और उतर गए पंजा लड़ाने. वो पहलवान भी साढ़े छह फुटा था गोरा चिट्टा, इधर तंदुरुस्ती गुरू का काम्प्लेक्सन डार्क टैन. यू समझिए एक तरफ देसी मुर्गा दूसरी तरफ ब्रॉयलर. तंदुरुस्ती गुरू की सख्त चीमड़ फौलादी उंगलियों ने सर्कस के पहलवान का पंजा जकड़ कर जो मसला तो उसकी दो उंगलियों में फ्रैक्चर हो गया. तंदुरुस्ती गुरू दो रुपए जीत गए. उस पैसे से उन्होंने सबके लिए कुछ ना कुछ खरीदा. लेकिन एक हादसे के बाद तंदुरुस्ती गुरू बीमार रहने लगे. हुआ ये कि एक बार मिर्जापुर से मेजारोड के लिए दिल्ली एक्सप्रेस में बैठ गए. उस समय दिल्ली एक्सप्रेस का मेजारोड स्टापेज नही था. मेजारोड आया तो ट्रेन की रफ्तार थोड़ी धीमी हुई. जब उन्हें लगा कि ट्रेन नही रुकेगी तो छलांग लगी दी प्लेटफार्म पर. ज्यादा चोट तो नहीं आई लेकिन उसके बाद से उन्हें हार्निया हो गया. उसके बाद उनाक स्वास्थ्य पहले जैसा कभी नहीं रहा. यह खुश दिल इंसान पूरी जिंदगी आभावों से जूझता लेकिन वह जैसा भी था जिंदादिल था, सरल था. अब उनके बेटे और ग्रैंडसन बड़े बड़े पदों पर देश-विदेश में हैं. गांव में उनके ग्रैंड सन ने बड़ा सा पक्का मकान बनवा लिया है लेकिन उस माटी से बजरी के भात और बिना घी की दाल की खुशबू आभी भी आती है. लगता है गंगा किनारे कछार में साफा बांधे कोई अभी भी हल चला रहा है गुनगुना रहा है..गंगा बहे, बहे रे धारा..तुझको चलना होगा.. तुझको चलना होगा...

10/8/09

बारिश, बादल और सूंस



अक्टूबर के पहले हफ्ते में कई ऐसी चीजें हुई जो अलग-अलग होते हुए एक-दूसरे से जुड़ी हुईं हैं. पूरे देश में वन्य जीव सप्ताह मनाया गया. पिछले संडे शरद पूर्णिमा थी और 7 अक्टूबर को करवाचौथ था. ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की शीतल चांदनी में आकाश से अमृत बरसता है. इस लिए रात को छत पर खुले आसमान के नीचे खीर रखने की परम्परा है. सुबह उस अमृत युक्त खीर को लोग ग्रहण करते हैं. अब कम ही लोग ऐसा करते हैं क्योंकि आसमान पॉल्युशन से भरा होता है. करवाचौथ पर महिलाएं चांद देख कर व्रत तोड़ती हैं लेकिन अब पक्का नहीं कि 7 अक्टूगर को कहां-कहां आसमान साफ था. हो सकता है कि आकाश बादलों से ढंका हो. शरद पूर्णिमा के आसपास तो आसमान साफ और शीतल होता था. इस बार सब उल्टा-पुल्टा हो रहा है. बारिश के मौसम में सूखे की नौबत थी और अब शरद ऋतु में झमाझम पानी. इसी बीच एक और खबर आई कि सरकार ने गंगा की डालफिन को नेशनल एक्वाटिक एनिमल घोषित कर दिया है. ऐसा विलुप्त होती डालफिन को बचाने के लिए किया गया है. कभी पूरी गंगा डॉलफिंस से भरी रहती थी, कहा जा रहा है कि अब यहां मुश्किल से दो सौ ही बची हैं. बादलों में शरद ऋतु का चांद, बेमौसम बारिश और गायब होती डॉलफिंस, ये सब पर्यावरण में बदलाव के खतरनाक संकेत हैं. बचपन में अपने गांव में गंगा किनारे मुश्किल से आधा घंटा खड़े रहने पर पानी में गोता लगाती सूंस(डॉलफिन) दिख जाती थीं लेकिन अब नहीं दिखतीं. गंगा की डॉलफिन समुद्र्र में नहीं रह सकती और गंगा का पानी हमने इनके रहने लायक नहीं छोड़ा. बाघ और मोर के बाद गंगा की डॉलफिन को नेशनल एक्वाटिक एनिमल का दर्जा मिलना गर्व की बात तब होगी जब इनके वजूद को बनाए रखने में हम कामयाब होंगे. डॉलफिन के बहाने हमें पर्यावरण के खतरों को समझना होगा. वरना कहीं डॉलफिंस हमेशा के लिए ना चली जाएं.

10/2/09

गांधी बोले तो मुन्नाभाई वाले बापू!



साल में एक बार फिर याद आए बापू. अब आप इसे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहें या कुछ और. अखबार के दफ्तर में ढेर सारे प्रेस नोट आए गांधी जयंती को लेकर. लगा कल कुछ और नहीं होगा सिर्फ गांधी जयंती मनाई जाएगी. पूर्व संध्या पर हमने भी शहर का चक्कर लगाया कि पता करें लोग गांधी जी के बारे में क्या सोचते हैं. कुछ को गांधी जी का पूरा नाम याद नही था. कुछ के लिए गांधी जयंती का मतलब था छु्ट्टी, गांधी का मतलब था मुन्नभाई वाले बापू और गांधीगिरी, गांधी का मतलब था फेशन लेकिन थोड़ा डिफरेंट. गांधी उनके हीरो थे लेकिन अलग कारणों से. गांधी साहित्य कम ही लोग पढ़ते हैं लेकिन माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ लोग इस लिए पढऩा चाहते हैं क्योंकि यह बेस्ट सेलर है. अब यहां 'बेस्टसेलर' की बहस में नही पडऩा चाहता. बेस्ट सेलर तो जसवंत सिंह की जिन्ना भी है. आज गांधियन थॉट नहीं, गांधी का नाम बिकता है अब यह चाहे टी-शर्ट पर हो या फिल्मों में. आज गांधी जयंती के दिन दोपहर शहर में संडे जैसा सन्नाटा है. लोग हफ्ते में दूसरी बार संडे मना रहे हैं गांधी की बदौलत. हो सकता है शहर के कुछ सभागारों में मुट्ठीभर लोग गांधी पर चर्चा कर रहे हों, हो सकता है कुछ लोगों ने सुबह गांधी की प्रतिमा पर फूल चढ़ाए हों, हो सकता है शाम को कुछ लोग उनकी प्रतिमा पर कैंडल भी जलाएं लेकिन ये भी सच है कि आज शाम मॉल्स में भीड़ कुछ ज्यादा होगी, रेस्त्रां में लोग कुछ स्पेशल खाएंगे और ये भी सच है कि आज मैं देर से उठा क्योंकि आज छुट्टी है, क्योंकि आज गांधी जयंती है.

9/30/09

रावण आसानी से नहीं मरते



मायावी रावण ने जुगाड़ कर ही लिया और पूरे परिवार के साथ मुख्य मैदान में आ डटा विजयदशमी के दिन. शाम को काफी भीड़ जुटी राम-रावण युद्ध देखने. अंतत: वही हुआ, बुराई पर अच्छाई की जीत और रावण धू-धू कर जला. मैदान से बाहर आ रहा था कि किनारे रामलीला के कुछ पात्रों में तकरार सुन कर रुक गया. रावण मरा नहीं था. वह किनारे खड़ा हो कर बीड़ी फूंक रहा था और व्यवस्थापकों से कुछ और पैसे मांग रहा था. हुआ ये कि किराए की तलवार, गदा और तीर-धनुष वही लाया था. युद्ध में तलवार टूट गई और तरकश आतिशबाजी की चपेट में आ कर जल गया. रावण थोड़ा तोतला था. वह बार-बार कह रहा था, अब भला मैं टारिक भाई को ट्या जवाब दूंगा. एक दिन के लिए टीर और टलवार टिराए पर लाया ठा. कौन पेमेंट टरेगा, मेरी तो टकदीर ठराब है. खैर उन्हें झगड़ता छोड़ आगे बढ़ा तो रावण दहन देख कर लौट रही भीड़ में कुछ और रावण दिखे. दो शोहदेनुमा रावण एक ग्रामीण महिला पर फिकरे कस रहे थे. कुछ रावण अपनी हार का गम गलत करने देशी के ठेके पर जा बैठे थे. आगे मोड़ पर वर्दी में कुछ रावण ट्रक वालों से वसूली कर रहे थे. घर पहुंचते पहुंचते जीत का जोश ठंडा पड़ चुका था. टीवी खोला तो क्रिकेट में भी आसुरी ताकतों ने भारत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. पता चल गया कि कलियुग में रावण इतनी आसानी से नहीं मरते.

9/24/09

कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है...




किसी से कहूं के नहीं कहूं ये जो दिल की बात है, कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है पर छुपके इस दिल में तनहाई पलती है....यही है आज का सच जिसका सामना अर्बन सोसायटी का एक बड़ा तबका कर रहा. टीवी पर एक सीरियल आता था 'सच का सामना'. अंतिम कड़ी में रूपा गांगुली ने अपना सच सामने रखा. इसके बाद खबर आई कि इस अंतिम कड़ी को देख कर आगरा में एक महिला ने सुसाइड कर लिया. सीरियल तो खत्म हो गया लेकिन जोरदार बहस शुरू हो गई. यहां हम सीरियल की समीक्षा नहीं कर रहे बल्कि इससे उठे ढेर सारे सवालों में से एक का जवाब खोजने की कोशिश कर रहे हैं. एक सवाल उठा कि हम अपनों से क्या और कितना शेयर करें. कहा जाता है कि साइलेंस इज गोल्ड, लेकिन क भी कभी चुप्पी दमघोंटू हो जाती है. कुछ बातें हम अपने काउंटर पार्ट से, कुछ दोस्तों से, कुछ पैरेंट्स से कुछ भाई-बहनों से और कुछ अपने बच्चों से शेयर करते हैं. लेकिन कुछ बातें हम किसी से शेयर नहीं करते. इसकी जरूरत भी नहीं है. फैंटसी के जंगल में भटकना ह्यूमन नेचर है. दिल की हर बात सामने आने लगी तो अराजकता फैल जाएगी. हम छोटी-छोटी खुशियां और परेशानियां भी शेयर नहीं करते, जिससे हमारा मन हल्का हो सकता है. कहां घूमने जा रहे हो? मत बताओ, कुछ नया खरीदा? मत बताओ, कितने नंबर आए? मत बताओ. आज के शहरी समाज का ताना-बना कुछ ऐसा बनता जा रहा है कि हमारे इर्दगिर्द तनहाई की दीवारें ऊंची होती जा रही है. पहले लोग डायरी लिख कर मन हल्का कर लेते थे लेकिन अब वो भी कम होता जा रहा है. ब्लॉग मन की बात कहने का अच्छा विकल्प हैं लेकिन सार्वजनिक होने की वजह से उसमें भी हिचक होती है लेकिन बातें शेयर करना उतना ही जरूरी है जितना शरीर के लिए ऑक्सीजन. किससे क्या और कितना शेयर करना है इसका फैसला तो आपको ही करना है.

9/16/09

बंदर, गुरुवा और भांग के लड्डू


मेरे अजीज ज्ञानदत्त जी प्रकृति प्रेमी हैं. उन्हें पशु-पक्षियों, वनस्पति और नदियों से उतना ही लगाव है जितना मुझे. एक कुक्कुर उन्होंने पाल रखा है. उस जीव ने पिछले जन्म में कुछ पुण्य किया होगा जो पांडे जी जैसे सात्विक और संस्कारी परिवार की सेवा कर रहा है या उनसे करवा रहा है. बाकी पशु-पक्षी तो वहां आते जाते हैं. जैसे पिछले दिनों एक बंदर कही से आ गया था. लहट ना जाए इसके लिए उसे डायजापॉम की गोली खिलाकर काशी छोड़ आने की योजना बनी लेकिन वह परिस्थिति भांप कर खिसक लिया. हो सकता है जल्द ही लौटे. इस घटना से मुझे अपने काशी के अपने मित्र तुलसीदास मिश्र का किस्सा याद आ गया. वही तुलसी गुरू जिनका जिक्र काशीनाथ सिंह ने अपनी किताब 'देख तमाशा लकड़ी का' में किया है. बात उन दिनों की है जब मैं और तुलसी गुरू काशी में एक ही अखबार में काम करते थे. तुलसी बीएचयू की रिपोर्टिंग करते थे. वे यूनिवर्सिटी के हास्टल रीवा कोठी में रहते थे. रीवा कोठी अस्सी के घाट पर एकदम गंगाजी के ऊपर बनी कोठी है जिसे फाइन आट्र्स, स्कल्प्चर और म्यूजिक के छात्रों के हास्टल में कनवर्ट कर दिया गया है. वहां छात्रों के साथ ढेर सारे बंदर भी रहते हैं. वहीं तुलसी गुरू का एक और दोस्त रहता था. नाम तो ठीक से याद नहीं लेकिन सब उसे गुरुवा कहते थे. एक बार गुरुवा घर से लौटा था. मां ने देसी घी के लड्डू दिए थे. गुरुवा एक दिन रूम बंद करना भूल गया. लौटा तो कई बंदर लड्डू की दावत उड़ा रहे थे. उसे देख बंदर तो भाग गए लेकिन बचे लड्डू बिखेर गए. आहत गुरुवा ने ठान लिया कि इनको सबक सिखाना है. वह चुपचाप अस्सी से भांग की गोलियां ले आया और बचे लड्डुओं में मिला कर छत पर रख आया. काशी के लंठ वानर इस साजिश को भांप नहीं सके और फिर लड्डू की दावत उड़ाई. करीब एक घंटे बाद गुरुवा छत पर पहुंचा. वहां कई बंदर भांग के लड्डू खा कर लोटे पड़े थे. फिर क्या था गुरुवा ने उन्हें जी भर कर लठियाया और उतर आए. तुलसी गुरू रात को लौटे तो देखा गुरुवा बाल्टी में पानी और लोटा लेकर छत पर जा रहा था. तुलसी भी पीछे हो लिए. छत पर अभी भी वानर लोटे हुए थे और गुरुवा उन पर लोटे से पानी डाल रहा था. माथा ठनका. गुरुवा थोड़ा परेशान था. उसने कहा गुरू दिनवा में जी भर के लठियउलीं. रात हो गई पर इनकर भांग नाही उतरल. डेरात हईं कि एकाक मिला मर गइलन त पाप लगी. लेकिन गुरुवा के जान में जान आई जब देखा कि थोड़ी देर में सब बंदर गिरते पड़ते चले गए. अब रीवा कोठी में ना गुरुवा है ना वो बंदर लेकिन उनके वंशज अभी वहां धमाचौकड़ी मचाते हैं. कहानी नहीं सच घटना है. तुलसी गुरू इस समय काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाते हैं.

9/14/09

टेंशन में रावण



वैसे तो न$फासत और नजाकत के शहर लखनऊ के लोग आमतौर पर खुशमिजाज होते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां का रावण दशहरा आते ही टेंशन में आ जाता है. आप गलत समझे. रावण को दहन को लेकर कभी टेंशन में नहीं हुआ. ही..ई ..इ हा...हा...हा करते वो खुशी-खुशी जलता है. लेकिन यहां दशहरे के पहले उसकी स्थिति 'ना घर का ना घाट का' वाली हो जाती है. वैसे गली-मोहल्लों में छुटभैये रावणों के दहन में कोई समस्या नहीं है. लेकिन ऐसा कुछ सालों से हो रहा है कि शहर में सबसे बड़ा रावण सीने में जलन आंखों में तूफान लिए दर-दर भटकने लगता है कि किसी मैदान में जगह मिल जाए. पहले वह शहर के बीचों बीचों बीच बेगम हजरत महल पार्क में फुंकता था. फिर जगह छोटी पडऩे लगी तो उसे गोमती किनारे लक्ष्मण मेला मैदान में खदेड़ दिया गया. एक-दो साल सब ठीक रहा फिर लक्ष्मण रूपी पर्यावरण प्रेमी नाराज हो गए, कहा- भैया राम, रावण तो गोमती नदी प्रदूषित कर रहा है. बस फिर क्या था, रावण को शहर के बाहर स्मृति उपवन में ठेल दिया गया. कहा जा रहा था कि इस साल रावण वहीं जलेगा. तैयारियां शुरू हो गई थी. आश्वस्त रावण का आकार और वेट इस खुशी में बढ़ गया था. लेकिन ऐन वक्त पर उस मैदान में सभी काम रोकने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया. अब रावण फिर टेंशन में है. वह बाइक से पूरे शहर में घूम घूम कर मैदान तलाश रहा है. दशहरा करीब आ रहा है. आशंका है कि कही टेंसना कर मैदान के बाहर ही आत्मदाह ना कर ले. बाकी प्रभु की इच्छा. देखिए शायद उसे स्मृति उपवन में घुसने की अनुमति मिल जाए.

यूं ही कोई गुजर गया यारों

हर्षित और गगनदीप आईईटी लखनऊ के होनहार छात्र थे. बीटेक थर्ड ईयर के इन छात्रों के आंखों में सपने थे कुछ बनने के, कुछ कर दिखाने के. दोनों रोबोट का मॉडल बननाने में जुटे थे. देर रात चाय की तलब लगी. कैम्पस की कैंटीन रात आठ बजे ही बंद हो जाती है सो रात दो बजे दोनों बाइक से दो किलोमीटर दूर एक ढाबे तक गए थे चाय पीने. लौटते समय किसी वाहन की चपेट में आकर दोनों की जान चली गई. वो तो चले गए लेकिन कुछ सवाल छोड़ गए हैं हमारे आपके लिए. कहा जा रहा है कि हॉयर एजुकेशन के क्षेत्र में हमने तेजी से प्रगति की है. हर नए सेशन में हर बड़े शहर में कई नए प्रोफेशनल कॉलेज और इंस्टीट्यूट्स खुल जाते हैं. इन कालेजों की फीस अच्छी खासी होती है फिर भी इनमें स्टूडेंट्स की कमी नहीं रहती. पैरेंट्स काफी पैसे खर्च कर अपने बच्चों को यहां भेजते हैं कि उनके लाडलों को अच्छी शिच्छा मिल सके और करियर बन सके. जब हम क्वालिटी एजुकेशन की बात करते हैं तो इसका मतलब सिर्फ अच्छी फैकल्टी और स्टूडेंट्स ही नहीं होता. क्वालिटी एजुकेशन का मतलब अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर, माहौल और कैम्पस भी होता है. स्पेशियस कैम्पस, बेहतर हॉस्टल और शहर से अच्छी कनेक्टिविटी को ध्यान में रखकर नए इंस्टीट्यूट्स अक्सर शहर के आउटस्क्ट्र्स पर हाईवे के किनारे होते हैं. किसी भी बड़े शहर से लगे हाईवे पर निकल जाइए आपको हर रोड पर ऐसे दर्जन भर कालेज मिल जाएंगे. लेकिन क्या खेतों में खड़ी इनकी शानदार बिल्डिगों में हम क्वालिटी एजूकेशन के साथ एक आइडियल कैम्पस की अपेक्षा कर सकते हैं? सरकारी कालेज हों या प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स, सभी अच्छे हास्टल और फूडिंग-लॉजिंग फैसिलिटी का दावा करते हैं. इनमें से कुछ के दावे सही भी होते हैं. लेकिन इनमें से कितने हैं जो हास्टल्स में चौबीसों घंटे प्योर ड्रिंंिकंग वॉटर और लेटनाइट स्नैक्स और टी-काफी की फेसिलिटी से लैस हैं? शायद एक भी नहीं. भूलना नहीं चाहिए कि यहां स्टूडेंट्स टफ काम्पटीशन के बाद प्रोफेशनल कोर्सेज को पढऩे आते हैं. उपके लिए पढ़ाई के चौबीस घंटे भी कम होते हैं. ऐसे में ब्रेक के लिए उन्हें देर रात एक-दो कप चाय की तलब होती है तो उन्हें कैम्पस के बाहर किसी ढाबे में जाना पड़ता है. तीन रुपए की चाय के लिए रात में अगर स्टूडेंट्स को तीन किलोमीटर दूर जाना पड़े और इसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़े तो यह उस कालेज के क्वालिटी एजुकेशन के दावे पर सवाल खड़ा करता है.

8/15/09

Stupid common man


देशभक्त कैसे होते हैं पता नहीं लेकिन आम आदमी के ढेर सारे गुण अपने में पाता हूं. तभी तो इंडिपेंडेंस डे पर ना तो प्रधान मंत्री का भाषण मुझे बांध सका ना ही देश भक्ति के गाने और फिल्में. १५ अगस्त को छुट्टी थी. बाहर बूंदाबांदी हो रही थी सो घर में बैठे- बैठे टीवी पर कुछ मनपसंद देखने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता था. ढेर सारे चैनल्स में भटकने के बाद एक लोकल चैनल पर रिमोट अटक गया. उस पर फिल्म 'वेडनस डे' शुरू ही हुई थी. क्या गजब की फिल्म थी. पॉवरफुल स्क्रिप्ट, डायलॉग और शानदार डायरेक्शन. डेढ़ घंटे की फिल्म सांस रोके देखता रहा. उसमें नसीरुद्दीन शाह का डायलॉग था, 'आई एम जस्ट स्टुपिड कॉमनमैन'. बस मेरे अंदर कामन मैन जाग उठा. पिछले दो दिनों में क्या हुआ, एक कॉमनमैन के नजरिए से जस का तस रख रहा हूं . ना कोई पूर्वाग्रह न दुराग्रह. इसमें एक-एक घटना और कैरेक्टर रीयल हैं लेकिन नाम जानबूझ कर नही दे रहा हूं, क्योंकि किसी को अनजाने में भी आहत करने की मंशा नहीं है.
मेरे एक करीबी मित्र के निकट संबंधी का अचानक निधन हो गया. उनको मैं भी जानता था, एक-दो बार मिला था. खबर सुन कर दुख हुआ कि जब कोई अपने कॅरियर के सर्वोच्च पद पर आसीन होने जा रहा हो और उसके जस्ट पहले अचानक चल बसे. मित्र का संदेशा आया कि फलां तारीख को तेरही है बनारस में. लखनऊ में कुछ और कॉमन मित्रों के पास भी संदेशा आया. पांच मित्रों ने तय किया कि साथ चला जाए. इत्तफाक से अगले दो दिन छुट्टी भी थी. पांच मित्रों में मुझे लेकर तीन जर्नलिस्ट थे, एक बिजनेसमैन और एक बड़े अधिकारी. अधिकारी ने बड़ी एसी कार का इंतजाम किया और हम सुबह ही निकल पड़े बनारस की ओर. योजना बनने लगी कि तेरही के बाद बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए जाएं फिर लौटा जाए. ये सब काम शाम छह बजे तक हो जाएगा. मित्रों में मुझे छोड़ सब सोमरस के प्रेमी थे सो किसी ने सलाह दी कि यार जल्दी क्या है इसके बाद कहीं 'बैठा' जाए. कल तो छुट्टी है. अधिकारी मित्र बोले अरे मेरा बैचमेट जिले में... है, तीन महीने पहले ही पोस्टिंग हुई, अभी फैमिली नहीं लाया है. मित्र ने अपने बैचमेट को फोन कर शाम छह बजे का टाइम फिक्स कर लिया. साथियों की संख्या भी बता दी. इसके बाद तो सब जोश में आ गए. यात्रा के शुरू में पान मसाले के पाउच खरीदे गए. एक बार में सौ का पत्ता खर्च होते देख मैं थोड़ा और दुबक कर बैठ गया. क्योंकि उस गुट में आर्थिकरूप से सबसे नीचे मैं ही था. पत्नी ने कुछ पैसे दिए थे इस हिदायत के साथ की संभाल कर खर्च करना. इस लिए पेमेंट का इनिशिएटिव नहीं लिया और ना ही किसी ने कहा. अब सब को भूख भी लग गई थी. एक बढिय़ा से ढाबे पर रुके. शरीर से खाते-पीते घर का लगता हूं लेकिन वास्तव में मेरी डायट बहुत कम है. थोड़ी सी पकौड़ी, चौथाई आलू के पराठे के एक गिलास लस्सी के बाद मुझे लगा कि अब तेरही भोज में क्या खाऊंगा. और भाई लोग मक्खन मार के पूरा का पूरा पराठा चांप रहे थे. तीन बजे करीब हम लोग बनारस पहुंच गए. वैसे 74 की उम्र में जिनका निधन हुआ था वो भरापूरा परिवार छोड़ गए थे. हम रास्ते भर ठहाका लगाते आए थे लेकिन तेरही में आए थे इस लिए गंभीरता ओढ़े श्रद्धांजलि अर्पित कर चुपचाप बैठ गए. मेरे करीबी मित्र जिनके संबंधी का निधन हुआ था, वो पंाच मिनट से ज्यादा गंभीर नहीं रह सकते. वही हुआ जिसका डर था. बैठक में बड़ी बड़ी डिग्निटरीज और लाल बत्ती वाले लोग बैठै थे. मित्र ने बारी बारी से लखनऊ से पहुंची हमारी मंडली का परिचय कराया. फिर वहीं पर बैठे एक सज्जन का परिचय हास्य कवि के रूप में कराते हुए उनसे एक-दो कविताएं सुनाने का अनुरोध कर डाला. कवि भी लोकल लंठ किस्म के थे सो दनादन सुनाने लगे लंठई भरी कविता. इसके बाद तो बैठक में गुलाब की माला में लिपटी दिवंगत शख्सियत की मुस्कराती तस्वीर के साथ बाकी लोग भी मुस्करा रहे थे. यही है जिंदगी का सच.
खैर आगे बढ़ते हैं. अब हमारी मंडली को बाबा विश्वनाथ के दर्शन से ज्यादा जल्दी शाम को 'बैठने' में थी. हमने फटाफट बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए और पहुंच गए होस्ट अधिकारी के यहां. वो बनारस प्रशासन में बहुत ही सीनियर पोस्ट पर थे. बड़ी आत्मीयता से मिले लेकिन उनकी हालत देख दिल बैठने लगा. छह बजे के पहले ही लगता था पूरी बोतल उतार चुके थे. प्लेट में फ्राइड फिश के कुछ अस्थि पिंजर पड़े थे. हम लोगों देखते ही चपरासी फ्राइड फिश और भुने हुए काजू रख गया. फिर निकली महंगी बोतल. मैं अंदाज लगाने लगा कि बोतल कितने की होगी और काजू का क्या भाव चल रहा. शायद कामन मैन के आधे महीने की पगार के बराबर. लोग स्माल और पटियाला पैग की नापजोख में उलझे थे और मेरा सारा कंस्ट्रेशन भुने हुए काजू पर था. होस्ट अधिकारी में गजब का स्टेमना था देखते ही देखते आधी बोतल गटक गए. फिर तय हुआ कि अब देर ज्यादा हो गई है. सुबह लखनऊ लौटा जाए. रुकने के लिए होस्ट अधिकारी ने कहा फलाने क्लब में चलते हैं वहां 'बैठने' ,खाने और ठहरने का इंतजाम हो गया है. सब लोग जा पहुंचे क्लब में. क्लब के पदाधिकारी ने इतनी गर्मजोशी से स्वागत किया किया जैसे कोई दामाद की करता है. लगता है होस्ट अधिकारी से उसकी गोटी जरूर फंसी होगी. लेकिल वो मेहमाननवाजी (या चापलूसी) इतने भौंडे ढंग सें कर रहा था कि बार- बार एक्सपोज हो रहा था. क्लब का वो पदाधिकारी भी सरकार से वेतन ले रहा था, शहर में कारोबार कर रहा था और क्लब का पदाधिकारी भी था. खैर, एकबार फिर से चला पैग का दौर. मैं नहीं लेता सो मेरे लिए पहले फ्राइड शाही पनीर टाइप की कोई चीज आई स्प्राइट के साथ. बाकी लोग चिकन और मटन पीसेज ले रहे थे. मेरे लिए फिर वेज सूप आया. प्याज के साथ पीनट्स भी रखे थे. इसके बाद क्लब के पदाधिकारी ने डिनर की जिद की. अपनी मंडली की डाइट देख दंग रह गया. मैंने दो चम्मच चावल खा कर हाथ खड़े कर दिए. अब तक कामनमैन के पेट में लस्सी, पराठे, पकौड़ी (तेरही में ग्रहण किए गए गुलाब जामुन, पूड़ी, रायता बूंदी) काजू, पीनट्स, स्प्राइट और सूप में घमसान मचा हुआ था. लेकिन बाकी लोग चांपे जा रहे थे. रात में एसी कमरे में ठीक से नींद नही आई. सुबह तय किया कि चाय के अलावा किसी चीज की तरफ देखूंगा भी नहीं. भाई लोगों ने सुबह फिर टोस्ट बटर चांपा. लखनऊ लौटते समय मेरा पेट जलोदर के मरीज की तरह तन गया था. टोली सुल्तानपुर में फिर उसी ढाबे पर रुकी और फिर चला मक्खन मार के आलू पराठे और पकौड़ी का दौर. दोपहर घर पहुंचा. दिन भर कुछ नहीं खाया. पत्नी ने ताना मारा - ज्यादा भकोस लिया होगा. सोचने लगा इस ट्रिप में अगर हर चीज के पैसे देने पड़ते तो कितना खर्च होता? शायद एक मिडिल क्लास कॉमनमैन की एक महीने की पगारके बराबर. मैं खुश था कि पत्नी ने जो पैसे दिए थे वो बचे हुए थे. अब इसे आप इसे स्टुपिड कामनमैन मेंटेलिटी कहें या मिडिल क्लास का संत्रास.

8/7/09

इंटेलिजेंट कलुआ



इधर कई दिनों से खबरें आ रहीं है कि शहर में आवारा कुत्तों ने गदर काटा हुआ है. जिसे देखो उसे काट खाते है. इसी संदर्भ में कलुआ और उसके बाऊ के बारे में बताता चलूं. कलुआ का बाऊ हमारे मोहल्ले का कुत्ता था. दिन में दुम हिलाता रात में गुर्राता. कलुआ का बाऊ गुजर गया. अब उसके स्थान पर बेटा कलुआ है. उसे आवारा इस लिए नहीं कहेंगे क्योंकि वह मेरे ब्लॉक के आसपास ही रहता है. मेरी कालोनी में और भी ढेर सारे डॉगी रहते हैं. कुछ सो काल्ड विदेशी ब्रीड के और कुछ क्रास ब्रीड के हैं. इनमें ज्यादातर एसी में रहने के आदी हैं. कुछ फस्र्ट फ्लोर और कुछ सेकेंड फ्लोर पर रहते हैं. समय समय पर कार से घोड़ा अस्पताल इंजेक्शन लगवाने जाते हैं. इधर उधर मुंह नहीं मारते. उन्हें साहब या उनका चपरासी सुबह शाम फारिग कराने के लिए कालोनी में टहलाते हैं. मिसेज खोसला कह रहीं थी कि उनका जर्मन शेफर्ड तो बहुत इंटेलिजेंट है उसे घर के ट्वायलेट को यूज करना आ गया है. वैसे कलुआ भी इनसे कम इंटेलिजेंट नहीं है. उसने फिलहाल मोहल्ले के किसी बाशिंदे को नहीं काटा है. ज्यादा शोर भी नहीं मचाता. कालोनी के अप मार्केट डागी से पंगा भी नहीं लेता. सुना है कि पामेरियन और इसी तरह के दूसरे डागी को ट्र्रेंड करने के लिए लोग बड़ी मेहनत करते हैं, ट्रेनर भी रखते हैं. लेकिन कलुआ तो सेल्फ ट्रेंड है. आपके मन की बात जान लेता है. जुगाड़ू भी नंबर वन. तेज धूप में पेड़ की छांव उसे उतना सुकून नहीं देती जितना मेरे ब्लॉक की सीढिय़ों की ठंडी फर्श. लेकिन कलुआ को पता है कि सीढ़ी पर लेटा वो मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता. सो उसने जुगाड़ खोज लिया है. मेरे आफिस जाने के बाद ही वो सीढ़ी पर अड्डा जमाता है. मेरे स्कूटर की आवाज पहचानता है. स्कूटर की आवाज सुनते ही सीढ़ी से उतर कर बाहर खड़ा हो जाता है. मेरे घर के दरवाजे की आवाज भी पहचानता है और कुंडी खड़कते ही मेरे आगे आगे धीरे धीरे सीढ़ी उतरने लगता है और मेरे जाते ही फिर सीढ़ी पर विराजमान. ब्लॉक में और किसी का लिहाज नहीं करता. एक-आध बार उसने मुझसे भी लिबर्टी लेते हुए ढिठाई दिखाने की कोशिश की और दुम हिलाता हुआ वहीं लेटा रहा लेकिन एक भरपूर लात खाने के बाद अब मेरी इज्जत करता है और सम्मान में बाहर आ कर खड़ा हो जाता है. कई बार डाग कैचिंग स्क्वाड वाले आ चुके हैं. कलुआ उनके हाथ कभी नहीं लगा. उनको देखते ही सट से सेकेंड फ्लोर की सीढ़ी पर दुबक गया. डेस्परेट डाग कैचर्स बाहर फारिग होने निकले एक पट्टे वाले पालतू डागी को ही उठा ले गए. बड़ा हंगामा मचा. अब आप ही बताइए इन टफ कंडीशंस में कलुआ अगर सर्वाइव कर रहा है तो वो इंटेलिजेंट तो होगा ही.

8/2/09

तन डोले मेरा मन डोले




सावन मतलब पवन करे शोर, सावन मतलब नागपंचमी, सावन मतलब सांप सपेरे मेले-ठेले. सावन जाने को है तो जाते जाते थोड़ा नागिन डांस की बात हो जाए. आज कल फिर बीन की धूम है. एक तो सावन का महीना और दूसरे लव आजकल में सैफ अली खान और दीपिका पाडुकोण का मस्त नागिन रीमिक्स डांस. कुछ दिन पहले नागपंचमी भी थी. सड़कों पर सांप-संपेरे और बीन की धुन कम सुनाई पड़ी लेकिन टीवी चैनलों ने कसर पूरी कर दी. एक चैनल ने बीन बजाई तो देखादेखी दूसरे चैनल भी नागिन डांस करने लगे. फिल्म नागिन में ...तन डोले मेरा मन डोले... ये कौन बजाए बांसुरिया.. गाने में जो बीन बजी वो आधी सदी बाद आज भी हिट है. उसकी धुन पर आज भी लोग झूम रहे हैं. अब ना तो उतने सांप रहे ना ही सपेरे लेकिन बीन की धुन का नशा बरकरार है. बीन की धुन पर नागिन डांस हिट होने की गॉरंटी है. इसी लिए तो मधुमती फिल्म के गाने... दैया रे दैया चढ़ गयो पापी बिछुआ... में बिच्छू के डसने पर भी बीन की धुन ही बजी. और अब लव आजकल में फिर इसी धुन की धूम है. लोक कथाओं में इच्छाधारी सांपों के बारे में पढ़ा था जो किसी का भी रूप धारण कर सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं. सांपों पर बनी फिल्मों में कभी जितेन्दर, कभी रीना राय तो कभी श्रीदेवी इच्छाधारी नाग और नागिन का किरदार निभा चुके हैं. लव आजकल फिल्म सांप-सपेरों पर नहीं है लेकिन जब इसके म्यूजिक डायरेक्टर इच्छाधारी हो सकते हैं यानी बीन की धुन बजा सकते हैं तो मैं 'इच्छाधारी' क्यों नहीं बन सकता?
पता नहीं क्यों छुट्टी के दिन मैं 'इच्छाधारी' बन जाता हूं. कुछ भी सोचने सोचते कहीं भी पहुंच जाता हूं. छोटी-छोटी बातें और यादें मन को उसी तरह हल्का कर देती हैं जैसा कि ध्यान या योगा के बाद महसूस होता है. ये बचपन की यादें भी हो सकती हैं और एक दिन या हफ्ते पहले घटी कोई घटना भी. जैसे बात सावन के पहले की है. एक दोस्त के रिश्तेदार की बारात में गया था. बारात दरवाजे पर पहुंचते ही नागिन धुन बजने लगी. अचानक देखा कि चमकीली पगड़ी और शेरवानी पहने दूल्हे राजा भी दोनों हाथ ऊपर किए मगन हो नागिन डांस कर रहे हैं. पहली बार दूल्हे को लड़की वालों के दराजे पर डांस करते देखा तो पक्का विश्वास हो गया कि बीन की धुन में कोई जादू है.
समय के साथ भागते और बदलते रहने की जद्दोजहद के बीच पुरानी रेल, कारें, कोठियां, दरख्त, फिल्म, म्यूजिक, गाने और यादों के झोंके रोमांच और रूमानियत से भर देते हैं. कुछ लोग मार्डन कहलाने के चक्कर में पुराने की तारीफ करने में पता नहीं क्यों हिचकिचाते हैं. वे भूल जाते हें कि पुराने की नींव पर ही मार्डनिटी की इमारत खड़ी होती है. आज जो बेहतरीन है वो पुराना होने पर क्लासिकल बन जाती है. क्लासिकल और मार्डनिटी में एक फ्यूजन है जिसे अलग नहीं किया जा सकता. इस फ्यूजन में एक खास तरह का नशा है. इसी लिए तो पुराने गानों और थीम को बार बार नई फिल्मों में लिया जाता है और लोग उसे बड़े चाव से देखते -सुनते हैं. मैं अक्सर रात को पुराने फिल्मी गाने सुन कर सोता हूं. ये मन को सुकून देते हैं. कुछ लोग छुट्टी में पूरे हफ्ते का पेंडिंग घरेलू काम निपटाते हैं, कहीं आउटिंग पर जाते हैं, कुछ बढिय़ा खाते हैं और कुछ चादर तानकर सोते हैं. छुट्टी का असली मजा लेना हो तो आप इच्छाधारी बन अपने तन और मन को बिल्कुल छुट्टा छोड़ दें, बिंदास. तन डोलाने का मन ना हो तो मन डोलाएं फिर देखिए अगले दिन कैसे रिचार्ज होते हैं.

7/15/09

ब्लैकबेरी



वो जमाने लद गए जब मोबाइल रखना प्रेस्टिजियस माना जाता था. हां, महंगे मोबाइल अब भी शान समझे जाते हैं जैसे ब्लैकबेरी. हमारा एक साथी रिपोर्टर अचानक कहीं से एक ब्लैकबेरी ले आया है. उसके हाथ में ब्लैकबेरी किसी ब्रेकिंग न्यूज से कम नहीं. ले आया इस लिए कि इस पर विवाद है कि ये फोन उसे कहां से मिला. आप कुछ और समझें इसके पहले बताता चलूं कि वह अल्लाह से डरने वाला एक मेहनतकश रिपोर्टर है. जहां ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि की स्टाइल में काम करता है. आइडियाज इतने इनोवेटिव कि बाकी रिपोर्टर दांतों तले उंगली दबा लें लेकिन कभी कभी इनोवेशन के चक्कर में सीनियर्स की डांट भी खा जाता है. फिलहाल उसके ब्लैकबेरी को लेकर जितने मुहं उतनी बातें. किसी ने कहा, अबे किसी ने गिफ्ट किया होगा, उस जैसा सूम और इतना महंगा मोबाइल. दूसरा बोला, महंगा मोबाइल लेने से चिरकुटई थोड़े ही कम हो जाएगी, अभी भी ब्लैकबेरी से मिसकॉल मारता है. तीसरा बोला, सेकेंडहैंड लिया होगा. चौथे ने ध्यान से उसेे उलटा पलटा, ये तो डुप्लीकेट है-चाइनीज. और बेचारा ब्लैकबेरी, अपनी किस्मत को कोस रहा है कि कहां फंस गया डाउन मार्केट लोगों के बीच. तीन दिनों में उसे इतने हाथों ने नचाया कि उसकी हालत वैसी हो गई जैसे रजिया फंस गई हो गुंडों में. कोई उसके फीचर्स परख रहा है कोई नेट सर्फिंग और एसएमएस भेजने के जुगाड़ देख रहा है. और रिपोर्टर साहब हैं कि कमर में ब्लैकबेरी रिवाल्वर की तरह खोंसे टेढ़े टेढ़े घूम रहे हैं. जेब में नही रखते. पूरी कोशिश है कि ये फोन ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजरों में आए. किसी बड़े अधिकारी से मिलने जाता है तो बहाने से सेलफोन सामने टेबुल पर जरूर रख देता है. हद तो तब हो गई जब खादी आश्रम में 75 साल के वृद्ध भैया जी के सामने भी उसने तीन बार ब्लैकबेरी घुमाया. भैया जी को देख कर नहीं लग रहा था कि उन्होंने कभी साधारण मोबाइल भी प्रयोग किया होगा. रिपोर्टर साथियों में चर्चा है कि ब्लैकबेरी पाकर वो बौरा गया है. कॉल आती है तो हैलो भी स्टाइल से बोलता है. किसी ने बता दिया है कि इस फोन में आवाज छन छन कर आती है. सो बात करने वाले से पूछना नहीं भूलता कि बताओ मेरी आवाज कैसी आ रही है, बिल्कुल साफ छन कर आ रही है कि नहीं? दरअसल मैं ब्लैकबेरी से बात कर रहा हूं. आपके पास उसका फोन आए तो कुछ पूछने से पहले ही कह दीजिए कि यार तुम्हारी आवाज छन छन कर आ रही है. उसका नंबर है 09450874346.

7/12/09

व्हाट ऐन आइडिया सर जी!



पॉपुलेशन कंट्रोल के लिए बिजली जरूरी है. बिल्कुल सही बात है. बिजली मतलब विकास, विकास मतलब बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य यानी बेहतर जीवन स्तर और बेहतर जीवन स्तर से आबादी अपने आप काबू में आने लगती है. ये तथ्य प्रमाणित है. लेकिन गांव-देहात में आबादी पर काबू पाने के लिए बिजली की एक और भूमिका पर तो ध्यान ही नहीं गया था. गांवों में बिजली होगी तो लोग टीवी ज्यादा देखेंगे. इतना ज्यादा देखेंगे कि उनको रतिक्रीड़ा का समय ही नही मिलेगा. मिलेगा भी तो टीवी देख देख कर इतना थक चुके होंगे कि कमरे की बत्ती बुता कर चुपचाप सो जाएंगे. यानी नो मोर बच्चा. बिजली और टीवी का प्रयोग कंट्रासेप्टिव के रूप में ? क्या आइडिया है सर जी!
सर जी का एक आइडिया और है कि शादी ३० तीस साल के बाद की जाए. शहरों में तो लोग अब वैसे ही कैरियर बनाते ३० के हो जाते हैं. शादियां ३० के बाद ही होती हैं. लेकिन गांव में ३० साल के लोग पुरायठ माने जाते हैं यानी शादी की एक्सपायरी डेट पार कर चुके. काश, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद जैसा सोचते हैं वैसा ही होता लेकिन व्यावहारिक रूप में स्थिति तो ठीक उलट है. सर जी ने ये कैसे मान लिया कि रात को जितने लोग टीवी देखते हैं वो प्रवचन, भजन कीर्तन और अन्य बड़े सात्विक टाइप के कार्यक्रम ही देखते होंगे और फिर पत्नी से कहते होंगे कि हे प्रिये जब मैं टीवी देख कर इतना थक जाता हूं तो तुम तो और थक जाती होगी क्योंकि तुम्हें तो घर के बाकी काम भी करने पड़ते हैं लिहाजा शुभरात्रि. लेकिन माफ कीजिएगा शालीनता से परे जाकर कर बात कर रहा हूं. रात में टीवी पर पारा गरम जैसे देसी ठुमके वाले मसालेदार सेक्सी कार्यक्रम, एमटीवी और एएक्सएन पर हॉट रियलिटी शोज और एडल्ट मूवी की भरमार होती है. ऐसे कार्यक्रम देख थकाहारा व्यक्ति भी जोश में आ जाता है और अपने पतिधर्म को तत्काल पूरा करना पुनीत कर्तव्य समझता है भले ही उसकी घराली किसी भी स्थिति में हो. नतीजा- पॉपुलेशन में कुछ और वूद्धि. तो सर जी, आपके कश्मीर क्या किसी भी राज्य में ये आइडिया कारगर होगा इसमें संदेह है.

7/1/09

किसिम किसिम के एटीएम






छोटा एटीएम, मोटा एटीएम, खोटा एटीएम, सोता एटीएम, रोता एटीएम. एक साल में हर तरह के एटीएम से मेरा पाला पड़ चुका है. ना तो मैं कोई धन्नासेठ हूं ना जालसाज और ना ही चिरकुट लुटेरा. मैं बंधी पगार वाला एक आम नागरिक जो महीने में एटीएम का तीन-चार चक्कर जरूर लगाता है. दरअसल एटीएमीकरण से जो समाजवाद आया, उसी का नतीजा है ये. अब तो सब धान बाइस पसेरी. कोई कार्ड किसी में ढुकाइए (ठेलिए) पैसा बराबर मिलेगा. आपके पास किसी सिटी बैंक का कार्ड हो या घाटे वाले नेशनलाइज्ड बैंक का अब तो सब कार्ड सब में चलता है. जहां तक याद पड़ता है मेरे शहर में टाइम और आईडीबीआई बैंक ने एटीएमए कार्ड सबसे पहले शुरू किए लेकिन इसकी लिए खाते में मिनिमम दस हजार बैलेंस की शर्त थी. लोग एटीएमए कार्ड उसी तरह शान से चमकाते फिरते थे जैसे शुरू में मोबाइल. मैंने भी उस समय हिम्मत कर एक कार्ड बनवाया था. पैसा निकालने से ज्यादा ध्यान इस पर रहता था कि बैलेंस दस हजार से कम न हो जाए. अब तो समाजवाद है. पूरा खंगाल लो, जीरो बैलेंस नो प्राब्लम. जहां मैं रहता हूं वहां दो किलोमीटर के दायरे कम से कम दस एटीएम तो होंगे ही. सब की नब्ज टटोल चुका हूं.
सबसे पहले एक बड़े बैंक के छोटे एटीएम बात करें. मजाल है कभी उसने पूरा पैसा दिया हो. मांगो दस हजार देता है पांच. थोड़ी दूर पर है एक मोटा एटीएमए. केबिन में एक नहीं तीन मशीनें. मस्त एसी. शीशा भी लगा है सूरत देखने के लिए (सुना है शीशे के पीछे खुफिया कैमरा लगा होता है). लेकिन तीनों मशीनें तीन तरह की. एक में टच स्क्रीन, जिसको कई बार अपना पैसा टच कराने में उंगली दुखने लगती है. दूसरे में कार्ड स्वैपिंग सिस्टम है. अक्सर कई बार स्वैप करने पर ही रिसपांस देता है. और तीसरी मशीन तो पूरा कार्ड गड़प कर जाती है. पैसा देने के बाद ही कार्ड उगलती है. कभी कभी ना पैसा देती है ना कार्ड उगलती है. जब नया कस्टमर कार्ड ठेलता है तब जाकर पुराना कार्ड उगलती है. बगल में ही एक खोटा एटीएम है जिसमें कभी पैसा नहीं होता कभी स्टेटमेंट स्लिप. एसी तो शायद ही कभी चलता हो. पास में एक सोता एटीएम भी है. पांच में चार बार आउट आफ आर्डर. कभी चालू मिलेगा तो गारंटी नहीं कि कब बीच में ही ठेंगा दिखा दे, कार्ड बैरंग लौटा दे. और एक है रोता एटीएमए. मैं उस पर अधिक भरोसा करता हूं क्योंकि वो जैसा भी है, दगाबाज नहीं है. उस एटीएमए मशीन की चेचिस तो ठीक है लेकिन भले ही सौ रुपए निकाले, आवाज इजना करता है कि किसी पुरानी एंबेसडर का इंजन अंदर लगा दिया गया हो. बड़ी देर तक खड़ खड़ खड़-घर्र घर्र घर्र जैसे सौ रुपया देने से पहले गुस्से में मशीन बार बार पैसा गिन रही हो और कह रही हो पता नहीं कहां से चले आते हैं कंगाल. कभी लगता है आपनी पूरी थैली खाली कर देगी या नाराजगी में आपका पूरा बैलेंस ही मुहं पर दे मारेगी. लेकिन गनीमत है इन मशीनों ने कभी पैसा कम नहीं गिना और फर्जी नोट नहीं दिए. पड़ोस में एक और नया एटीएम खुल रहा है जल्द ही उस पर भी कार्ड फेरूंगा, देखें किस कैटेगरी में आता है.

6/28/09

लखनऊ का 'बंद' रायबरेली का 'पापा'



चाय के साथ पावरोटी खाने में जो मजा है वो पिज्जा, बर्गर और हॉटडाग में कहां. तभी तो ममता दीदी ने रेल मंत्री बनने के बाद आफिस जाकर सबसे पहले डबलरोटी और चाय का नाश्ता किया. पावरोटी के कई चचेरे भाई हैं रस्क, बंद और जीरा, ये ब्रेड ना मिलने पर वैकल्पिक संतुष्टि के लिए उपलब्ध रहते हैं. बंद के साथ खास बात है कि मक्खन ना हो तो भी चलेगा. इसी तरह रस्क और जीरा भी सेल्फसफिशियेंट हैं. जीरा समझ गए ना सूखी लकड़ी या चैला या नमकीन खाजा टाइप की चीज जिसे चाय में डुबो कर खाया जाता है. यह चाय की आधी कीमत पर मिलता है लेकिन अगर आपने इसे कप में दो बार डुबो दिया तो पूरी चाय सोख लेगा. इसका नाम जीरा शायद इस लिए पड़ा कि इसके मुंह में चाय जीरा समान ही होती है. और इसी तरह बंद भी दो डुबकी में पूरी चाय सुड़क जाता है. अक्सर आधा बंद हाथ में ही रहता है और चाय का पूरा कप खाली. इस लिए बंद खाएं तो एक लोटा चाय लेकर बैठें. पता चला है कि रायबरेली में जीरा का एक फुफेरा भाई 'पापा' भी आ गया है. इस के बारे में लोग अभी कम ही जानते हैं. पता चला है कि बंद जब पुराना होने लगता है तो उसे आंच में सुखा कर 'पापा' बनाया जाता है. चाय सुड़कने में यह बंद और जीरा से भी बड़ा उस्ताद है.

6/21/09

कलुआ का बाऊ


रात के डेढ़ बजने को हैं और फिर मन में धुक-धुकी लगी है कि साला कलुआ फिर बैठा होगा अपने गैंग के साथ मेरी ताक में. पहले कलुआ के बाऊ (बाबू) से त्रस्त था अब उसके बेटे से त्रस्त हूं. बाप भी काला बेटा भी काला, तन से भी और मन से भी. ऐसे डबल कैरेक्टर वाला जीव आज तक नहीं देखा. दिन में इतना शरीफ और निरीह जैसे रात में कुछ हुआ ही नहीं. कई बार बंद और डबलरोटी खिलाई लेकिन कोई असर नहीं. डाटो तो भी भीगी बिल्ली बना रहता है और उसके साथी भी बड़े दोस्ताना अंदाज में मिलते हैं और रात को दुश्मन बन जाते हैं. पुलिस वाले भी मदद नहीं करते, कहते हैं मेरे महकमे का मामला नहीं है. क्षेत्र के दबंग कारपोरेटर से भी मदद की गुहार लगाई, उसने भी हाथ खड़े कर दिए. कहा शाम छह बजे के बाद संबंधित विभाग कार्रवाई नहीं कर सकता, संसाधनों की कमी है. मेरे घर के रास्ते में कलुआ का इलाका पड़ता था. कमबख्त मेरी स्कूटर की आवाज पहचानता था. हेड लाइट देखते ही पूरा गैंग एलर्ट हो जाता था. मैं स्कूटर आराम से चलाने का आदी हूं सो जब बहुत करीब आ जाता तभी अचानक पूरा गैंग झपट पड़ता. दहशत में एक-दो बार गिरते-गिरते बचा. उसका हमला होते ही अनायास एक्सीलेटर बढ़ा देता. कलुआ के साथी पीछे छूट जाते लेकिन कलुआ गली के छोर तक खदेड़ता था. दूसरी रणनीति आजमाई कि जब कलुआ का गैंग झपटे तो खड़े हो जाओ लेकिन इसमें जोखिम ज्यादा नजर आया. लगा कि न जाने कलुआ के मन में क्या हो. सो गति में ही ज्यादा सुरक्षा महसूस हुई. कलुआ का इलाका करीब आते ही स्कूटर की गति बढ़ा देता था कि देखें कितनी तेज भागता है स्प्रिंटर की औलाद. रणनीति कारगर लग रही थी. कुछ दूर दौडऩे में उसकी हफनी छूट जाती थी और मैं विजयी भाव से फिनिश लाइन पार कर जाता था. लेकिन ये ज्यादा दिन नहीं चला. कलुआ ने भी इसकी काट निकाल ली. स्कूटर की आवाज सुनते ही कलुआ पहले से ही स्कूटर वाली दिशा में आगे-आगे दौडऩे लगता, उसी तरह जैसे रिले रेस में पीछे से आ रहे साथी का बैटन लेने से पहले ही टीम मेंबर स्टार्ट ले लेते हैं. और स्कूटर करीब आते-आते कलुआ अच्छी स्पीड में होता. मुझे स्वभाव के विपरीत स्कूटर और तेज गति से भगानी पड़ती. एक-एक रात मुश्किल से कट रही थी. लेकिन एक रात कलुआ ने नहीं दौड़ाया, उसके साथी भी नहीं दिखे. सुखद एहसास, आतंक का खत्मा. तो क्या कलुआ युग का अंत हो गया? सुबह आफिस जाते समय नजर इधर उधर कलुआ को खोज रही थीं तभी सड़क किनारे कलुआ लेटा दिखा. पास गया, कोई हरकत नहीं. कलुआ की सांसे नहीं चल रहीं थीं. किसी वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी. उसका मुंह खुला हुआ था. लग रहा था वह हंस रहा है और मुझसे कह रहा, क्यों बच्चा खा गए ना गच्चा. कुछ महीने सब शंाति से चला लेकिन फिर एक नया कलुआ पैदा हो गया और आजकल फिर मुझे दौड़ा रहा है.
अब आप समझदार हैं जान ही गए होंगे कलुआ कौन था और कौन है. फोटो से भी नहीं समझ आया तो इंतजार करिए.. कलुआ के बेटे की कहानी.. का

6/19/09

चित्रकूट के घाट पर 'केवट' से मुठभेड़


मेरे पापा सबसे बहादुर: घायल इंस्पेक्टर के साथ उनकी बेटी (फोटो: साभार आई नेक्स्ट)
...............आपने देखा होगा १६/६ यानी चित्रकूट में ५० घंटे तक चला लाइव एन्काउंटर. २६/११ से भी ज्यादा देर तक चली मुठभेड़. २६/११ में विदेशी आतंकी थे, १६/६ में था एक देसी डाकू. खबरिया चैनल्स और अखबारों में तीन दिन यह मुठभेड़ सुर्खियों में रही. सब यूपी पुलिस को पानी पी-पी कर गरिया रहे थे. हमेशा यही होता है. क्योंकि एसी कमरे में बैठ कोल्ड ड्रिंक के साथ किसी खबर या कवरेज पर टिप्पणी करना, गल्तियां निकालना बहुत आसान है लेकिन जमीनी हकीकत में बहुत फर्क होता है. ४३ डिग्री की गर्मी में बीहड़ में बिना दाना-पानी पांच घंटे बैठने में बड़ों बड़ों को गश आ जाता है. पुलिस वाले तो ५० घंटे तक डटे रहे. पुलिस की रणनीति में, संसाधनों में लाख कमी हो लेकिन उसके मनोबल और बहादुरी पर सवाल उठाना, मारे गए पुलिस कर्मियों और उनके परिवार वालों का अपमान है. १६/६ की मुठभेड़ में डाकू घनश्याम के मारे जाने के कुछ ही पहले शहीद होने वाले कांस्टेबल वीर सिंह को कमरे में छिपे डाकू ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी. डाकू के पास कोई विकल्प नहीं था. अगर डाकू निकल कर गोली नहीं चलता तो वहीं मारा जाता लेकिन वीर सिंह के पास तो विकल्प था. वह अन्य साथियों की तरह पेड़ या दीवार की आड़ में पोजीशन लिए बैठ सकता था लेकिन उसने तो मिशन पूरा करने के लिए आगे बढ़ कर सांप के बिल में हाथ डाल दिया. वीर सिंह की बहादुरी को सलाम. माना कि पुलिस फोर्स में ढेर सारे लोग तोंदियल और लेथार्जिक हैं लेकिन चुस्त दुरुस्त जवानों की भी कमी नहीं है. अगर ये ना होते तो ५० घंटे में भी डाकू का काम तमाम ना होता.
दूसरी सबसे आसान चीज है सिस्टम को भ्रष्ट कह देना. हम भी तो उस सिस्टम का हिस्सा हैं और हम भ्रष्ट हैं तभी तो सिस्टम भ्रष्ट है. नौकरी के कुछ सालों बाद ही हम तोंदियल, आलसी और आरामतलब हो जाते हैं. जाहिर है हम अपना काम ठीक से नहीं कर रहे या संसाधनों का मिसयूज कर रहे हैं. क्या ये सब भ्रष्टाचार नहीं है? घनश्याम केवट एक निहायत धूर्त और दुर्दांत अपराधी था. जब वह मकान से निकल कर भागा तो लोग उसकी फुर्ती देख कर दंग रह गए. यह उसका फिट और छरहरा शरीर ही था जिसके बल पर वह पचास घंटे तक टिका रहा. यह देख कर मुझे लखनऊ चिडिय़ा घर का वो आदमखोर बाघ याद आ गया जो आधा दर्जन लोगो ंकी जान लेने के बाद पकड़ा गया था. उसने मजबूत पिंजरे में अलग रखा गया था. मझोले कद का एक दुबला पतला यह नरभक्षी कोने में बैठा गुर्रा रहा था. मुझे जू के आलसी और स्थूलकाय बाघ देखने की आदत थी जो कितना भी छेडऩे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते थे. मैंने अनायास ही उसकी ओर हाथ उठा दिया. अचानक वह इतनी जोर से दहाड़ा कि रूह कांप गई. लगा कि पिंजरा तोड़ मुझे कच्चा चबा जाएगा. जू का गार्ड मुस्कराया, साहब यही फर्क है पिंजरे में बंद और जंगली जानवरों में. घनश्याम एक ऐसा ही छरहरा हिंसक जंगली डाकू था. लेकिन आपरेशन घनश्याम केवट पर उंगली उठाने वाले लोग भी मुझे जानवरों जैसे ही लगे जो कमरों में बैठे बैठे आलसी, आरामतलब और स्थूलकाय हो गए हैं

6/15/09

झूठ बोले कुत्ता काटे.



न तो मैं नगर निगम की डॉग कैचर स्क्वाड में हूं न पशु प्रेमी और ना ही पशुओं के प्रति हिंसा का भाव रखता हूं. आवारा कुत्ते हों या किसी घर के दुलारे स्वान, उनके प्रति तटस्थता का भाव ही रहता है. मैं एक आम आदमी हूं जिसे कभी पैदल, कभी साइकिल से तो कभी स्कूटर से सड़कों पर रोज ही गुजरना पड़ता है और जो किसी कुत्ते या उनके झुंड को आसपास देखते ही एक अनजाने भय और रोमांच से घिर जाता है. क्योंकि अलग अलग परिस्थितियों में कुत्तों को पुचकारने और दुत्कारने के फारमूले आजमा चुका हूं लेकिन दोनों का इफेक्ट सेम होता है यानी कुत्तों को जो करना हैं करेंगे. कई बार कुत्ते काटते काटते रह गए और दो बार डॉग बाइट झेल चुका हूं. दोनों ही बार मुझे 'लूसी' ने ही काटा. 'लूसी' मेरे एक अजीज मित्र की दुलारी .....? थी. कुत्तों की वाइफ को क्या कहते हैं, आप जानते ही होंगे लेकिन मित्र उस शब्द का प्रयोग करने पर नाराज हो जाते थे सो 'लूसी' ही ठीक है. मित्र के घर जाने पर इंश्योर करवाता था कि 'लूसी' आसपास ना हो लेकिन फिर भी उस कम्बख्त ने दो बार काटा. पिछले जनम की कोई खुन्नस रही होगी. मैंने दोनों बार सिंगल डोज के महंगे एंटी रैबिक इंजेक्शन ठोंकवाए. ऐसे ही एक दिन मित्र के यहां पहुचा. कॉलबेल बजाने पर 'लूसी' के भूंकने की आवाज नहीं आई. लगा कि आज जरूर उसी सोफे के नीचे दुबक कर बैठी होगी जहां से निकल कर दो बार मुझे काट चुकी है. मित्र मुहं लटकाए निकले, मैं सहमा सा ड्राइंगरूम की तरफ यह कहते हुए बढ़ा कि 'लूसी' को बांध दो. तभी भाभी जी की उदास आज आई, भाइया 'लूसी' कहीं चली गई है. चली गई मतलब? कोई उसे उठा ले गया. अरे अड़ोस पड़ोस के कुत्तों के साथ होगी, आ जाएगी. नहीं भइया सुबह से है गायब है. इन्होंने तो तब से एक निवाला मुंह में नहीं डाला है.
शाम के सात बज रहे थे. मित्र का परिवार बिना खाए पीए बैठा था लेकिन मुझे लगा रहा था कि अचानक किसी ने मेरे मुहं में गुलाब जामुन डाल दिया हो, खुशखबरी सुना दी हो. लेकिन खुशी को भरसक दबाते हुए मैंने भी सहानुभूति जताई कि कैसे पूरे घर को गुलजार रखती थी. अब कितना सूना लग रहा है. लेकिन उम्मीद मत छोड़ो रातबिरात शायद लौट आए. अगले दिन सुबह ही मित्र को फोन कर पता किया कि लूसी लौटी कि नहीं. लूसी अब तक नही लौटी थी. जिसने भी लूसी को गायब किया था उसके प्रति मन श्रद्धा से भर गया. मित्र के प्रति भी सहानुभूति थी लेकिन ये भी पता था कि कुछ दिन में वो दूसरा स्वान ले ही आएंगे. इसके बाद मैं निर्भय होकर मित्र के घर लाने लगा. जैसा फील किया सच सच बता दिया. झूठ बोलूं तो कुत्ता काटे. ये तो है पहली कड़ी. अगली कड़ी में कलुआ की कहानी.

6/11/09

जरा बचके जरा हट के...ये है इंडिया मेरी जान



ये है जिब्राल्टर का एअरपोर्ट. भौगोलिक स्थिति ऐसी कि हाई-वे और एअरपोर्ट रन-वे एक दूसरे को क्रास करते हैं. अब से रेलवे की लेवल क्रासिंग तो है नहीं कि सब-वे या ओवरब्रिज से काम चल जाएगा सो वर्केबल सॉल्यूशन यही निकाला गया कि जब प्लेन टेकऑफ या लैंड कर रहा हो तो हाई-वे बंद कर दिया जाए और जब रोड चालू हो तो रन-वे बंद. वहां ये व्यवस्था अभी तक तो ठीक से काम कर रही है और कोई हादसा नही हुआ. अब जरा उस स्थिति की कल्पना कीजिए कि अगर ये व्यवस्था भारत के किसी शहर में होती खास कर यूपी और बिहार में तो नजारा कुछ ऐसा होता...
सीन एक... प्लेन टेकऑफ करने वाला है, रोड का बैरियर गिरा हुआ है. वहां तैनात गार्ड या सिपाही लघुशंका करने या पान मसाला लाने गया हुआ है. कुछ मोटर साइकिल और स्कूटर वालों ने अपने वाहनों को तिरछा कर या लिटा कर बैरियर के नीचे से निकलने में सफलता पा ली है और चक्कर में हैं कि प्लेन निकलने से पहले रन-वे के उस पार पहुंच जाएं. तीन-चार लोग निकल भी चुके हैं और एक दूधिया जिसकी मोटर साइकिल पर दूध के कैन बंधे हैं, रनवे के बिल्कुल पास रुक कर प्लेन के निकलने का इंतजार हर रहा है.
सीन दो...
रोड के बैरियर गिरे हुए हैं. रन-वे पर प्लेन टेकऑफ के लिए दौडऩे लगा है कि अचानक प्लेन के आगे-आगे एक गाय और उसके पीछे - पीछे दो सांड़ दौड़ते दिखते हैं
सीन तीन...
फ्लाइट का टाइम हो गया है लेकिन रन-वे क्लीयर नहीं है. ठीक रन-वे को क्रास करने वाली रोड पर वसूली को लेकर ट्रैफिक पुलिस कांस्टेबल का ट्रक और टेम्पो वालों से झगड़ा हो गया है. और उन्होंने अपने वाहन अड़ा कर जाम लगा दिया है और वाहनों की कई मील लंबी कतार लग गई है.
ऊपर वाले का शुक्र है कि भारत में इस तरह की क्रासिंग नहीं है. अगर होती तो रन-वे पर टेम्पो दौड़ते और बोइंग ७४७ क्रासिंग पर डग्गामार बसों की तरह रुक कर सवारी भरते नजर आते.

6/8/09

ट्रेनों में गूंजता संगीत...


समर वेकेशंस, झुलसाती गर्मी और उसमें रेलयात्रा. सोचकर ही पसीना छूटने लगता है. लेकिन कभी आपने महसूस किया है कि रेल और इसकी भीड़ के रेले में भी एक रिद्म है. तो आइए आज आपको इस रिद्म से निकलते संगीत को सुनाएं. बोगियों के भीतर गूंजता संगीत, प्लेटफार्म पर सरकता संगीत. अब ये आप पर है कि आपका 'सेंसर' इस रेडियो की कौन सी फ्रीक्वेंसी पकड़ता है.
आपको मिलवाते हैं रेलवे के रोडीज, जॉकी और रॉकी से. ये सब हैं डेली पैसेजर्स यानी रोज मिलने वाले वे चेहरे जिन्हें देख कर सामान्य यात्री टेंशन में आ जाते हैं पर इन कम्यूटर्स के माथे पर शिकन तक नहीं. भागती-धक्का खाती कभी गुर्राती, कभी मुस्कराती इस कम्युनिटी के पास होता है एमएसटी. एमएसटी बोले तो 'मैनेजमेंट का सीजन टिकट'. क्योंकि ये टिकट उन्हें सिखाता है टाइम मैनेजमेंट, सोशल नेटवर्किंग और उन्हें बचाता है मोनोटोनस लाइफ की ऊब से.
एक बार मैंने भी अपने में एक एमएसटीहोल्डर मित्र के साथ यात्रा की उन्हीं के अंदाज में. यात्रा क्या पूरे दो घंटे की फिल्म थी. एमएसटीहोल्डर्स के रूप में इसमें कई किरदार मिले. कहीं राजू श्रीवास्तव, कहीं जसपाल भट्टी, कहीं मोहम्मद रफी, कहीं बशीर बद्र तो कहीं मुकेश.
फिल्म की शुरुआत हुई मोबाइल कॉल से. नवल भाई, किस ट्रेन से जाते हो? इंटरसिटी से... आज मैं भी चलूंगा तुुहारे साथ.. वेलकम सरजी.. स्टेशन पहुंच कर काल करते हैं.. 8.10 पर ट्रेन है. मैं आधा घंटे पहले स्टेशन पहुंच गया. इंक्वायरी बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, कुली ने बताया इंटरसिटी छह नंबर से जाती है. 8.05 पर नवल भाई का फोन आया, कहां हैं? छह नंबर पर खड़ा हूं. अरे.. ट्रेन तो आ गई..तीन नंबर पर आइए, ट्रेन में हूं. ये कैसी व्यवस्था है, कोई एनाउंसमेंट नहीं, ऐसे तो ट्रेन छूट जाती. मैं प्लेटफार्म नंबर तीन की ओर भागा. ट्रेन खड़ी थी. गजब की भीड़. फिर फोन किया, नवल कहां हो. इंजन की तरफ आइए, कोच 4463. मैं फोन कान में लगाए बढऩे लगा. आप दिख गए सरजी...बस सामने वाले डिब्बे में चढ़ जाइए. मैं हकबकाया सा सामने वाली कोच में चढ़ गया. भीतर पैर रखने की जगह नहीं. अंदर की तरफ आइए.. मैं यात्रियों ठेलता हुआ धीरे धीरे बढऩे लगा. तभी आवाज आई..मिल गए. मुस्कराते नवल भाई अपनी कम्युनिटी के साथ बैठे थे. बर्थ पर पहले से ही छह लोग थे. सब के सब थोड़ा हिले और मेरे लिए भी जगह बन गई. सबसे इंट्रोडक्शन हुआ..ये हैं ज़हीर भाई. उम्र 55 लेकिन जज्बात टीनएजर्स जैसे, चंदन का इत्र लगाए नफासत की मिसाल. बगल में बैठे थे रवींदर सिंह. पसीने से बचने के लिए कालर में रुमाल लगाए, कम्यूटर्स कम्युनिटी के परमानेंट मेंबर लेकिन पता चला कि साल में छह महीने बिना एमएसटी के डब्लूटी चलते हैं. उनके बगल में ईयरफोन लगाए बैठे थे रियाज भाई. पहले विंडो के पास बैठना पसंद करते थे, लेकिन अब नहीं. कुछ दिन पहले रियाज ईयरफोन लगा आंख बंद किए संगीत का लुत्फ ले रहे थे, मोबाइल उनके पेट पर रखा था ट्रेन स्पीड पकड़ती इसके पहले उचक्का उनका मोबाइल ले उड़ा. तब से विंडो से तौबा कर ली. तभी नवल का फोन बज उठा, कोई और साथी लोकेशन ले रहा था. ट्रेन सरकने लगी थी. कोच नंबर बताने का वक्त नहीं था. एक साथी ने झट से रुमाल निकाली और विंडो पर बैठे अजनबी को थमाते हुए बोला भाई साहब हाथ निकाल कर रुमाल हिलाते रहिए और लाकेशन लेने वाले से बोला सफेद रुमाल दिखे उसी कोच में चढ़ जाओ. अब ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी. तभी उन्हें अपने मिसिंग साथी की याद आई. अरे, धीरू नहीं आया? फोन लगाओ. जाने दो... आजकल उनके..? साथ बैठता है दूसरे कोच में. फिर शुरू हुआ लतीफों का सिलसिला. बीच में जहीर भाई मोहम्मद रफी के अंदाज में सुरीली तान छेड़ देते थे. साथ में एक लेडी कलीग थीं सो लतीफे संभाल कर दागे जा रहे थे. एमएसटी मंडली कुछ देर के लिए गभीर भी हुई जब पता लगा कि एक साथी के फादर बहुत बीमार हैं.
तभी किसी ने कहा अच्छा सिगरेट निकालो. क्या बात कर रहे हो भाई.. ३१ मई यानी नो टोबैको डे को ही छोड़ दी, एक हफ्ता हो गया छोड़े.. किसी ने टिप्पणी की... भाई ने तीसरी बार छोड़ा है. अब ट्रेन फुल स्पीड में थी. उमस थोड़ी कम हो गई थी. लोग एडजस्ट हो चुके थे. जहीर भाई ने फिर मूड में थे.. मैं पल दो पल का शायर हूं.. पल दो पल मेरी जवानी है.. और जिंदगी अपनी रफ्तार में थी.

6/1/09

नो टोबैको डे और 'भूत'



आपने कभी सुना है कि भूत भी छुट्टी पर रहता है और भूतों में भी 'भइया' होते हैं. आपके जमाने में नहीं होता होगा लेकिन मार्डन भूत कैजुअल लीव पर रहते हैं और वीकली ऑफ भी मनाते हैं. ऐसे ही भूत से मेरा पाला पड़ा ३१ मई को. इस दिन यानी संडे को नो टोबैको डे था. मेरा आर्गनाइजेशन सामाजिक सरोकारों से जुड़े अभियानो में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. सो नो टोबैको डे पर हमने भी रैली निकाली. शहर की कई संस्थाओं ने इसमें उत्साह के साथ हिस्सा लिया. एक और आर्गेनाइजेशन जो इस अभियान में हमारे साथ आया उसका नाम था 'हॉन्टेड हाउस' यानी भूत की हवेली. हर शहर-गांव में एक दो ऐसी कोठियां या खंडहर जरूर होते हैं जो भूतिया या अभिशप्त कहलाते हैं. लखनऊ के पॉश मार्केट हजरतगंज में भी एक 'हॉन्टेड हाउस' है. अब इसमें भूत तो होंगे ही. लेकिन ये भूत नुकसान नहीं पहुंचाते बल्कि लोगों का मनोरंजन करते हैं. सो नो टोबैको डे पर 'हॉन्टेड हाउस' भी हमारे साथ आया और रैली में भाग लेने के लिए दो भूत देने की इच्छा जताई. सिगरेट-पान मसाला के नतीजे खौफनाक होते हैं सो इस मैसेज को देने के लिए भूत से बेहतर कौन हो सकता है. हम तैयार हो गए. रैली शुरू होने वाली थी और भूत नदारद. अब ये असली भूत तो थे नहीं कि अचानक कहीं भी प्रकट हो जाएं. एक रिपोर्टर को दौड़ाया गया कि जाकर देखो भूत कहां रह गए. रिपोर्टर थोड़ी देर बाद लौटा लेकिन एक भूत के साथ. मैंने भूत से पूछा, दूसरा कहां है? भइया आज उसकी छुट्टी है. यार पहले बताना था. खैर, तुम्हारा नाम क्या है? भइया. असली नाम? सब मुझे भइया ही कहते हैं. ठीक है तैयार हो जाओ. इसके बाद भइया भूत ने सड़क पर 'नो टोबैको' की तख्ती लेकर जो पिशाच डांस किया वो देखने लायक था. मुझे लगा भूत एक हो या दो, इम्पैक्ट समान होता है.

5/12/09

फुफ्फा फिर रिसिया गए




कहते हैं शराब जितनी पुरानी होती है उतना ही मजा देती. लोग कहते हैं स्कॉच जितनी पुरानी होती जाती है उसका महत्व उतना ही बढ़ता जाता है. शराब में जो दर्जा पुरानी स्कॉच का है, रिश्तेदारों में वही दर्जा जीजा का है. फर्क बस इतना है कि जीजा जब पुराने हो जाते हैं तो फुफ्फा (फूफा) बन जाते हैं. लेकिन इम्पार्टेंस की इंटेसिटी वैसी ही रहती है. यह जरा सी भी कम होती दिखती है तो फुफ्फा रिसिया कर (नाराज हो कर) उसे जता देते हैं. जैसे स्कॉच का सुरूर धीरे धीरे चढ़ता है वैसे ही फुफ्फा की नाराजगी भी हौले-हौले बनी रहती है लेकिन उतनी नहीं की वो बेकाबू हो जाए. शादी-बारात और घर का कोई भी बड़ा आयोजन जीजा या फूफा के बिना अधूरा होता है. और जिसमें फुफ्फा रिसियाएं ना वो शादी कैसी. जैसे अदरक जब पुरानी या सूख जाती है तो सोंठ कहलाती है. उसी तरह दामाद जब पुराना हो जाता है तो फूफा कहलाता है. फूफा यानी घर का पुराना दामाद. वैसे शादी-ब्याह में अब समाजवाद आ गया है. शादी में घराती और बाराती में बहुत अंतर नहीं रह गया है. वधू पक्ष के रिश्तेदार अब अपने को वर पक्ष के रिश्तेदारों से किसी माने में नीचा नहीं समझते. शहर की शादियों में बारात आने में जरा देर हुई नहीं कि लड़की पक्ष के गेस्ट भोजन पर टूट पड़ते हैं. बाद में दूल्हे के यार दोस्त दरवाजे पर कितना ही नागिन डांस करें और जयमाल में नखरे दिखाएं , उन्हें देखने के लिए मुïी भर लोग ही बचते हैं. बाकी सब भोजन भट्ट बुफे फील्ड में नजर आते. ऐसे में गले में गेंदा फूल की माला डाले जीजा और फूफा घूमा करें, कोई उन्हें नहीं सेटता. घराती उन्हें ठेल-ठेल कर आगे से कचौड़ी और पूड़ी उचक ले जाते हैं. बस फूफा नाराज. जीजा-फूफा घराती हों या बाराती, अगर किसी ने पानी नहीं पूछा तो नाराज, उनके ठहरने का अलग से प्रबंध नहीं किया तो नाराज, उनका ठीक से इंट्रोडक्शन नहीं कराया तो नाराज, ठीक से विदाई नहीं दी तो नाराज. और तो और फूफा खा म खा बिना बात के नाराज. कई पुरायठ फुफ्फा तो रंग में भंग के लिए पहचाने जाते हैं. शादियों में एक से एक लजीज पकवान बने हों लेकिन फूफा की हांड़ी अलग से चढ़ती है और जरा सी लापरवाही हुई नहीं कि फूफा का चूल्हा अशुद्ध. इसके लिए अलग से एक आदमी तैनात किया जाता है कि घर के लड़के-गदेले उधर ना जाएं जिधर फूफा की हांड़ी चढ़ी होती है. वह आदमी चिल्ला-चिल्ला कर आगाह करता रहता है कि उधर नहीं जाओ फुफा खाना पका रहे हैं. गलती से गुजरे नहीं कि फूफा रिसियाए. फूफा अक्सर रिसियाए हुए ही विदा होते हैं. यह नाराजगी अगले किसी शुभ आयोजन में ही मान-मौव्वल के बाद दूर हो पाती है. लेकिन उस नए आयोजन में फुफ्फा फिर से रिसिया जाते हैं. अरे.. अरे.. उधर कहां, फुफ्फा रिसिया जाएंगे?

5/11/09

लाइफ इज ब्यूटीफुल




एक छोटी सी बच्ची. उम्र करीब चार साल. सैलून में अपने बाल कटवा रही थी. साथ में शायद उसके दादा या नाना थे. जैसा कि बच्चों के साथ होता है वह बाल कटाते हुए कम्फर्टेबल नहीं थी. सिर झुकाए कस कर आंख बंद किए हुए. बीच बीच में दबी सी आवाज...अब बस हो गया, डर लग रहा है. मम्मी के पास जाना है. नाना उसे बीच-बीच में डपट रहे थे ...किस चीज से डर लग रहा है. चुपचाप बैठो नहीं तो यहीं छोड़ दूंगा. मैंने उसके डर को डायवर्ट करना चाहा.. अरे ये तो बहादुर बच्ची है. कितना स्टायलिश बाल कट रहे हैं. शीशे में देखना कितनी स्मार्ट दिख रही हो. उसके नाना जी बोल पड़े.. अंकल को नमस्ते करो और बताओ कि दिल्ली के किस स्कूल में पढ़ती हो. उसने आंख बंद किए किए नन्हे हाथों से नमस्ते किया .. थोड़ी तोतली आवाज में बोली... आरकेपुरम ब्लाइंड स्कूल फार चिल्ड्रेन. ..अच्छा बताओ बिल्ली कैसे बोलती है? ..मियाऊं.. और बच्ची धीरे से मुस्करा दी. मैंने ध्यान से उस बच्ची को देखा. उसकी आंखें बंद थीं. लेकिन उसकी मन की आंखों तो दूसरे बच्चों की तरह ही थीं. उनमें डर और संवेदना थी तो सपने भी थे, खुशियां थीं, उम्मीदें थीं. जिंदगी वहां भी मुस्करा रही थी, किसी दूसरे बच्चों की तरह. जाने के बाद बार्बर ने बताया कि इस बच्ची को बाबू जी ने अनाथालय से गोद लिया है और उसे दिल्ली के बोर्डिंग स्कूल में रख कर पढ़ा रहे हैं. उस छोटी सी बच्ची ने मेरे मन की आंखें खोल दी थीं. मन के आकाश पर छाई धुंध कुछ कम हो गई थी. मैं राजा-तुम रंक, मैं बड़ा-तुम छोटे, मैं ज्ञानी, तुम मूरख, मेरा-तेरा और भी न जाने कितनी मृग मारीचिकाओं में फंसे हम जिंदगी के छोटे-छोटे लेकिन खूबसूरत लमहों को क्यों नहीं देख पाते, नहीं महसूस कर पाते?

5/7/09

तिनका-तिनका, ज़रा-ज़रा






चिडिय़ा, गौरैया, परिंदे, फाख्ता, घोसले, इनकी कहानियां ब्लॉग्स में भरी पड़ीं हैं. ज्यादातर ब्लागरों के परिंदे कल्पना और संवेदना की उड़ान भरते दिखते हैं. आज आपको सुनाता हूं आंखों देखी एक सच्ची कहानी. पहली मंजिल पर मेरे कमरे की खिड़की से सटा हुआ एक आम का पेड़ है. खिड़की और पेड़ की शाखाओं में बस दो हाथ का फासला. उस पर ढेर सारे परिंदे रोज आते हैं. छोटी ललमुनिया, बुलबुल से लेकर बाज, कौवे और उल्लू तक. बात एक साल पहले की है. पेड़ुकी (फाख्ता) के एक जोड़े ने न जाने क्या सोच कर मेरी खिड़की से लगी डाल पर एक घोसला बनाया था एक-एक तिनका जोड़ कर बड़ी मेहनत से. उस डाल पर बैठ फाख्ता घंटों टेर लगाते रहते थे. लगता थे कि आपस में बातें कर रहे हों. उन्हें निहारने को रोज कुछ मिनट निकाल ही लेता था.
खिड़की में जाली थी इस लिए शायद फाख्ता को मुझसे डर नहीं लगता था. फिर एक दिन उसमें दो अंडे दिखे. मेरी रुचि थोड़ी बढ़ गई. फाख्ता बारी बारी से उस पर बैठते थे. फिर एक दिन घोसले से चीं-चीं की आवाज से पता लगा कि अंडों से बच्चे निकल आए हैं. दोनों फाख्ता बारी-बारी से बच्चों को चुगाते थे. बच्चे तेजी से बढऩे लगे और उनके साथ मेरी रुचि भी. अब उनके पंख निकल रहे थे. इस हैप्पी फेमिली को देख कर सारी थकान दूर हो जाती थी. रात को एक फाख्ता जो शायद उनकी मां थी, घोसले में जरूर रहती थी. एक दिन रात दस बजे के करीब कमरे में बैठा टीवी देख रहा था कि पत्तों की तेज खड़खड़ाहट और पंखों की फडफ़डा़हट ने चौंका दिया. कुछ अनिष्ट की आशंका से खिड़की के बाहर देखा तो अंधेरे में कुछ नजर नहीं आया. घोसले पर टार्च डाली तो दोनों बच्चे सहमें से दुबके थे लेकिन फाख्ता गायब थी. सुबह भी सिर्फ बच्चों को दख कर चिंता बढ़ गई. थोड़ी देर में फाख्ता दिखी लेकिन शायद वह बच्चों की मां नहीं पिता था. कुछ देर घोसले में बैठने के बाद उड़ गया. अगली रात भी घोसले में सिर्फ बच्चे ही दिखे. शायद किसी बाज या उल्लू ने उनकी मां को निवाला बना लिया था. अगली सुबह घोसले में सिर्फ एक बच्चा था और कोई फाख्ता नहीं. दो दिन बाद वह भी नहीं दिखा. घोसला सूना हो गया था. बचे थे सिर्फ तिनके. धीरे-धीरे कर कौवे और कबूतर उन तिनकों को ले गए अपना घोसला बनाने. इस तरह एक घोसला उजड़ता देख मन भारी हो गया. कुछ दिनों बाद एक सुबह उसी दरख्त की किसी डाल पर फाख्ता के एक जोड़े की टेर सुनाई दी. कहीं कोई परिन्दा फिर से घोसला बना रहा था. पास ही फोन के खंभे में लगे जंक्शन बाक्स में गौरैया दाना लेकर आ- जा रही थी अंदर उसके बच्चे शोर मचा रहे थे. वो सहर मुझे कुछ खास लगी, रात के बाद उम्मीदों की सुबह फिर अंगड़ाई ले रही थी.

5/5/09

सुअर सकते में, मुर्गे मस्त!


मुर्गे मस्त हैं. बटेर, बत्तख, टर्की और पूरे पक्षी समाज में हर्ष की लहर है. मुर्गा एसोसिएशन ने डिस्काउंट ऑफर तक दे दिया है. मुर्गों ने मुर्गियों से और ज्यादा अंडे प्रोड्यूस करने का अपील की है. दो अंडे के साथ एक अंडा फ्री देने का भी प्रस्ताव है. मुर्गे खुश हैं कि इस बार बर्ड फ्लू के कारण बेमतलब मुर्गा संहार नहीं होगा. लेकिन सुअर समाज सकते में है. साउथ ईस्ट एशिया में रेड एलर्ट जारी कर दिया गया है. ठंडे देश के स्वाइन से मेलजोल कम रखने की सलाह दी गई है. पूरी दुनिया इस समय अल कायदा और तालिबान से उतनी दहशत में नहीं है जितनी स्वाइन फ्लू से. बर्ड फ्लू तो पुरानी बात हो गई, लोग अब इससे चिंतित नहीं होते. हां मुर्गे-मुर्गियां जरूर टेंशन में आ जाते थे. मुर्गे की जान जाती और लोगों को खाने में मजा भी नहीं आता. लेकिन 1918 के बाद अब आया है नया फ्लू. मामला स्वाइन फ्लू का है. कुछ लोगों को नहीं पता था कि यह स्वाइन क्या बला है. उन्हें लगता था कि यह स्वाइन कोई बहुत डरावना जीव होता होगा लेकिन जब पता चला कि गली - मोहल्ले में टहलने वाले सुअर को ही स्वाइन कहते हैं तो टेंशन थोड़ा कम हुआ. लेकिन स्वाइन शब्द से सुअरों को कम, कुछ पशु प्रेमियों को ऑब्जेक्शन ज्यादा है. सो सुअर फ्लू की जगह एच1एन1 वायरस ही चलेगा. डब्लूएचओ ने स्वाइन लू को लेकर लेवल-5 के खतरे का साइरन बजा दिया है. इसके बाद तो महामारी का ही ऐलान होगा. जहां तक इंडियन स्वाइन की बात है वे सकते में हैं. स्वाइन समाज ने लोगों से सलामी और सॉसेजेज से परहेज करने की अपील की है. स्वाइन फैमिलीज ने गर्मियों में हिल स्टेशन जाने का इरादा टाल दिया है. बताया गया है कि ठंडे क्षेत्र में एच1एन1 वायरस आसानी से फैलता है. हांलाकि अभी तक कहीं से स्वाइन समाज के सामूहिक संहार की खबर नही आई है. लेकिन अगर स्थिति काबू में नहीं आई तो बड़ी संख्या में सुअरों को भी शहीद होना पड़ सकता है. इंडियन सुअर यूनियन यूरोपीय, मैक्सिकन और अमेरिकी सुअर भइयों के लिए प्रार्थना सभाएं आयोजित कर रही है क्योंकि उनकी सुरक्षा में ही इनकी सुरक्षा है. जान है तो जहान है.

4/30/09

लू का संगीत


लू में है लय, लू में है संगीत, लू में है एक अजीब सी रूमानियत. लू में खिलते हैं चटख गुलमोहर और अमलताश. जब छोटा था तो लू पूरे महीने चला करती थी. अब मुश्किल से 15 दिन भी नहीं चलती. पहले गर्मी की छ़ुट्टियों का मतलब होता महीने भर लू में मस्ती. लू भरी दोपहरी हमेशा से लुभाती थी. लू में बर्फ के गोले, कुल्फी और नारंगी आइस्क्रीम वाले की आवाज कोयल की कूक सी लगा करती थी. जब लू चले तो हम चलते थे सुनसान दोपहरी में किसी की बगिया से अमिया तोडऩे. क्या एक्साइटमेंट और थ्रिल था. नमक के साथ टिकोरा (अमिया, केरियां) खाने में जो मजा था वो दशहरी, लंगड़ा और मलदहिया में भी नही मिलता. लू कभी कभी लप्पड़ भी मारती थी. सीजन में कए दो-बार लू जरूर लगा करती थी. डाट पड़ती थी कि बहेल्ला (आवारा ) की तरह दोपहर भर घूमता रहता है लू तो लगेगी ही. फिर उपचार के लिए आम का पना मिलता था. उसके आगे दुनिया की हर कोल्ड ड्रिंक फेल. इसके बाद दो-तीन दिन में सब सामान्य. फिर निकल पड़ते थे लू में. बड़े कहा करते थे कि लू की दुपहरिया में सुनसान बगिया में न जाया करो चुड़ैल या प्रेत भी होते हैं वहां. उसके कई किस्से सुनाए जाते थे कि फलनवां को गूलर के पेड़ पर झूलती मिली थी चुड़ैल. मुझे आजतक न पे्रत मिले न चुड़ैल. नाम के आगे ओझा जुड़ा है शायद इस लिए. हॉस्टल में था तो भी लू रोमांटिक फिल्म का सीन लगा करती थी. ऊपरी मंजिल पर टेन बाई टेन का कमरा खूब तपा करता था. मेरा रूम पार्टनर चाय बनाकर कहा करता था- इसे पीयो लू नहीं लगेगी. लू और भी कई कारणों से अच्छी लगती है. लू में मच्छर कम हो जाते हैं, लू में पसीना नहीं होता, घमौरियां नहीं होती, राते ठंडी होती हैं. लू में मटके के पानी की सोंधी महक अमृत का एहसास कराती है. लू में खरबूजा और तरबूज बहुत मीठा होता है. लू में कोहड़े (कद्दू) की सब्जी, कच्चे आम और पुदीने के चटनी के आगे सब आइटम पानी भरते हैं. पर अब न जाने क्यूं लू कम चला करती है. अब सड़ी गर्मी ज्यादा पड़ा करती है. सुना है लू रूठ कर चली गई है राजस्थान की ओर. लेकिन यदा कदा अब भी कुछ दिनों के लिए आती है. बीते दिनों की याद दिलाती है

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