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6/24/10

साइलेंस इज गोल्ड


स्पीच इज सिल्वर साइलेंस इज गोल्ड, ये कहावत मेरे एक साथी पर बिल्कुल सटीक बैठती है. छह फुटी कद-काठी, बेकहम जैसी लुक लेकिन बोलते ही लगता है गई भैंस पानी में. पंचकुला (चंडीगढ़ में ) इस साथी को करीब से देखने के मौका मिला. युवाओं वाले सभी गुण-अवगुण थे या हैं उसमें . पानीपत से आए इस बंदे का नाम है .... कभी दूसरों को पानी पिला देने की काबिलियत तो कभी उसके कारनामों से पानी-पानी होने की स्थिति. उसे देखने या उसकी बात से नहीं लगता था कि ये इश्क-विश्क भी कर सकता है और कविता भी लिख लेता होगा. जब उसने बताया कि भाग कर लव मैरेज की थी तो विश्वास नहीं हुआ. बिल्कुल फिल्मी कहानी जैसा. एक दिन उसकी दोनों कलाइयों के नीचे पुराने कटे के निशान के बारे में पूछा तो पता चला कि भाग कर शादी करने के बाद रोजी-रोटी के लिए संघर्ष में होटल में प्लेटें भी साफ की. एक बार हताशा में हाथ की नसेंं काटने की कोशिश की थी.
उसमें कुछ ऐसा था कि रोज उसे डांटने का एक राउंड जरूर होता था. कभी किसी खबर को लेकर, कभी किसी दूसरे रिपोर्टर की चुगली करने पर कभी, कभी लम्पटों की तरह टेढ़े खड़े होने पर, कभी कडक़ी में भी सिगरेट पर पैसा बरबाद करने पर. और कुछ नही मिलता तो इस बात पर डाटता कि तुम्हारे शरीर से दाढ़ी वाले बकरे जैसी स्मेल क्यों आती है. लेकिन कई अच्छी आदतें भी थीं उसमें. जैसे कभी उसने पलट कर जवाब नहीं दिया. साथियों की मदद को हमेशा तैयार रहता था. हां, थोड़ा झगड़ालू जरूर है. एक बार किसी खबर के सिलसिले में पंचकूला सरकारी अस्पताल में अधीक्षक के चमचों से झगड़ा हो गया. उन्होंने उसे अस्पताल के कमरे में बंद कर दिया था. काफी हंगामा के बाद वो छूटा. मैंने कहा, लम्बे-चौड़े हो चमचों की ठोंकाई क्यों नही की. बोला, ठोंकाई कर रहा था लेकिन एक की लात ‘वहां’ पड़ गई . इसके बाद हिम्मत जवाब दे गर्ईं. मामले पर पंचायत हुई और सभी अखबरों ने पत्रकार के साथ अभद्रता की खबर छापी. अंत में माफी मांगने के बाद मामला शांत हुआ. गुरुमुखी में निकलने वाले एक अखबार ने उसकी खबर तीन कालम में छापी थी. उसने बड़े चाव से मुस्काते हुए हेडलाइन पढ़ी, पत्रकार नू कुट्टया. मैंने कहा, शर्म नही आती अपनी पिटाई की खबर पढ़ते. तो ढीठ के तरह हंस पड़ा. उसके पास कए पुरानी टीवीएस बाइक थी. उस बाइक पर मैंने भी कसौली और मोरनी हिल्स के कई चक्कर लगाए थे. चंडीगढ़ के बाद वो अब दिल्ली में एक बड़े अखबार का रिपोर्टर है. दिल्ली सीरियल ब्लास्ट के समय वो इत्तफाक से अपनी खटारा मोटर साइकिल के साथ स्पॉट पर था. उसकी मोटरसाइकिल धमाके की भेंट चढ़ गई लेकिन वो बच गया. अब उसने दूसरी बाइक ले ली है. लिखता तो अच्छा है लेकिन बोली उसकी स्मार्ट काया से मैच नहीं खाती. इस लिए उसका नाम यहां नहीं ले रहा हूं. कहते हैं ना साइलेंस इज गोल्ड.

6/19/10

दांत चियारे गिफ्ट निहारे



गर्मी की छुट्टियां, ऊपर से शादियों का मौसम. आपने भी कई पार्टियां निपटा दी होंगी. मीठे से तो आपका मन भर गया होगा और गर्मी में ज्यादा खाने-पीने से बचना चाहिए. तो क्यों ना आज खाने के बजाय कुछ इनविटेशंस और गिफ्ट का मजा लिया जाए. राजू श्रीवास्तव और उन जैसे दूसरे कॉमेडियन और मिमिक्री आर्टिस्ट शादी और रिसेप्शन में भेाजन के लिए मचने वाली भगदड़ का जिक्र तो बार-बार कर चुके हैं. चलिए पार्टियों के कुछ और रोचक पहलुओं पर नजर डालते हैं. आप सोच रहे होंगे कि ब्लॉग के इस कॉलम में शादी-व्याह, पार्टी और गिफ्ट की बातें क्यों कर रहा हूं. अरे, ब्लॉगर कोई दूसरे लोक के जीव तो होते नहीं. वो भी इसी समाज में रहते हैं और पार्टी-वार्टी अटेंड करते रहते हैं. ऐसे में ब्लॉग में उनका जिक्र तो होगा ही.
कोई बारात हो या रिसेप्शन, सामने स्टेज पर एक जोड़ी सिंहासन होता है. बाराती जब नागिन डांस कर लस्त-पस्त हो जाते हैं तो द्वारचार के बाद दूल्हे को उठा कर सिंहासन पर बैठा दिया जाता है. फिर मंथर गति से सिर झुकाए दूल्हन आती है. ‘सालियो’ं और ‘जिज्जुओं’ के सपोर्ट से जयमाल होता है. दूल्हन भी सिंहासन पर विराजती है. फिर फोटो सेशन और न्योता और गिफ्ट देने का दौर चलता है. बीच में ही आधे लोग वार जोन यानी भोजन स्थल की और कूच कर जाते हैं. इधर दूल्हा लगातार दांत चियारे और दूल्हन गंभीर मुस्कान के साथ बैठे रहते हैं. उनके ठीक बगल में बारात हुई तो वधू पक्ष की सबसे विश्वसनीय महिला और रिसेप्शन हुआ तो वर पक्ष की खास महिला कॉपी-कलम लिए बैठी रहती हैं जो गिफ्ट और लिफाफे देने वालों के नाम नोट करती हैं. बड़े गिफ्ट पैकेट लेकर आने वाली ‘पार्टी’ स्टेज पर वीडियो रिकॉर्डिंग के साथ पैकेट सौंपती है और 51-101 वाले धीरे से लिफाफा थमा सटक लेते हैं. अगर लिफाफे में हेफ्टी अमाउंट हुआ तो पार्टी लडक़े या लडक़ी के माता-पिता के हाथ में ही उसे सौंपती है. बर्थ डे पार्टी में भी ढेर सारे गिफ्ट पैकेट मिलते हैं. फर्क बास इतना होता है कि पैकेट, पार्टी के बाद खोले जाते हैं लेकिन कुछ लंपट किस्म के बच्चे आपके सामने पैकेट खोल कर आपकी पोल खोल देते हैं. हालांकि अक्सर होस्ट ‘बैड मैनर्स’ कह उन्हें ऐसा करने से रोक कर आपकी इज्जत बचा लेता है.
इंडियन सोसाइटी के इन ट्रेडीशंस और यादों को लेकर जब कोई भारतीय विदेश जाता है और वहां पार्टी के डिफरेंट नाम्र्स और रूल्स से रू-ब-रू होता है ब्लॉग की एक नई पोस्ट का जन्म होता है. अमेरिका और यूरोप में भी गिफ्ट्स की लिस्टिंग होती है लेकिन डिफरेंटली. कई बार तो इनविटेशन में इतने इंस्ट्रकशंस होते हैं कि गेस्ट को शक होने लगता है कि वो गेस्ट है या होस्ट. लंदन में रहने वाली शिखा वाष्र्णेय के ब्लॉग स्पंदन में उनकी पोस्ट ‘कैरेक्टर लेस गिफ्ट’ का रैपर खोल कर देखिए मजा ना आए तो गिफ्ट वापस. लिंक है http://shikhakriti.blogspot.com/2010/06/blog-post_17.html. इसी तरह स्तुति के ब्लॉग भानुमति का पिटारा में अतिथि देवो भव! शीर्षक वाली पोस्ट इस लिंक http://stutipandey.blogspot.com/2010/05/blog-post_13.html पर देखिए और मजा लीजिए पार्टी का. अच्छा चलता हूं, आज मुझे भी एक पार्टी में लिफाफा देना है.

6/8/10

इति मूत्राभिषेक!


वो रातें अभी भी मुझे याद हैं. सुस्सू वाली रात के बाद की सहर (सुबह), कहर बन कर टूटती थी मेरे कोमल मन पर. मेरी तरह आप भी तो बिस्तर पर सुस्सू करते बड़े हुए होंगे. अब सुस्सूआएगी तो करेंगे ही. कभी साफ टॉयलेट में, कभी गंदे टायलेट में, कभी दीवार पर, कभी किसी कोने में तो कभी खुले आम तो कभी चोरी छिपे. खबर तो ये भी है कि अमेरिका में स्वीमिंग पूल्स में नहाने के दौरान 25 प्रतिशत लोग पानी में ही सुस्सू कर देते हैं. ये प्रतिशत कुछ ज्यादा नहीं लगता? मान लिया जाए कि दो-तीन फीसदी लोग ही पानी में सू करते होंगे तो भी पूरा पूल सू युक्त हो गया ना? यूरिक एसिड का कंसंट्रेशन भले ही थोड़ा कम होगा और बाद में उस पानी को फिल्टर कर लिया जाए लेकिन उस समय तो आपका मूत्राभिषेक हो ही गया ना. वैसे सू-आचमन की तरह सू-स्नान भी इतना बुरा नहीं होता. याद हैं ना अपने मोरारजी भाई. हम सब तो बिस्तर पर सू-स्नान करते ही बड़े हुए हैं. पहले डायपर-वायपर कहां होते थे.
सच बताऊं, मैं तो छठे क्लास तक बिस्तर पर सू कर देता था. सू वाली रात के बाद की सहर मेरे कोमल मन पर कहर बन कर टूटती थी. छोटे-बड़े सब ताने मारते-घोड़े जैसा हो गया है फिर भी बिस्तर गीला कर देता है, शरम नहीं आती? शरम तो आती थी. पक्का इरादा कर सोता था कि आज रात बिस्तर गीला नहीं करूंगा. लेकिन गहरी नींद में सपना आता कि जोर की सू-सू आई है, मैं राजा बेटा की तरह ट्वायलट में प्रेशर रिलीज कर रहा हूं. प्रेशर खत्म होने की प्लीजेंट फीलिंग के बीच अचानक कुछ गुनगुनेपन का अहसास होता और आंख खुल जाती, टेंशन बढ़ जाता. गीले बिस्तर पर लेटे-लेटे सुबह का इंतजार करता. पोल खुलते ही फिर तानों का सिलसिला. जाड़ों में जब सू वाला गद्दा मुंडेर पर सुखाने के लिए डाला जाता तो लगता कि पूरे मोहल्ले के सामने खड़ा होकर सू सू कर रहा हूं और लोग हंस रहे हैं- वो देखो घोड़ा सू कर रहा है. किसी ने कहा, पेट में कीड़े होंगे तो कीड़े की दवा दी गई. फिर भी फर्क नहीं पड़ा. कुछ ने कहा साइकोलॉजिकल प्राब्लम है.
बिस्तर गीला करना कैसे छूटा पता नहीं. लेकिन साइकोलॉजिकल प्राब्लम तो है सू सू को लेकर शरारत करने को मन अब भी करता है. एक बार टे्रन में भारी भीड़ थी. सब टायलेट में लोग भरे हुए थे और मेरे ब्लैडर काप्रेशर बढ़ता जा रहा था. अगला स्टाप दो घंटे बाद था. जब नहीं रहा गया तो कोच के गेट पर खड़े हो कर पूरी ताकत से प्रेशर रिलीज कर दिया. उस दिन सौ की स्पीड में भाग रही ट्रेन में पीछे की कोचों में गेट पर खड़े या खिडक़ी के पास बैठे कितने लोगों ने ना चाहते हुए भी सू-आचमन किया, पता नहीं.
एक और वाकया. हॉस्टल में सेकेंड फलोर पर मेरा रूम था. मेरे विंग में दस कमरों के बाद ट्वायलेट था. जाड़ों की रात में दस कमरों को पार कर सू करने जाना पहाड़ पार करने जैसा लगता. कोशिश रहती कि नींद में ही ये काम निपटा दिया जाए. उस दिन ट्वायलेट की लाइट नही जल रही थी. आव देखा ना ताव, अंदाज से ही टारगेट की तरफ तड़-तड़ा दिया. तभी कोई चिल्लाया ये क्या हो रहा है. आवाज मारकंडे गुरू की थी जो कान पर जनेऊ चढ़ा कर नियमानुसार बैठकर मूत्र विसर्जन कर रहे थे और मैंने अंधेरे में उनका मूत्राभिषेक कर दिया था. तब से खड़े हो कर सू करने में सुरक्षित महसूस करता हूं. वैसे भी गंदे ट्वायलेट के बजाय खुले में कच्ची जमीन पर या झाड-झंखाड़ को यूरिया से पोषित करना बेहतर लगता है. हां, स्वीमिंग पूल वाला प्रयोग नहीं किया है. वैसे ऐसा कर के ‘अपने ही सुस्सू में फिसलने’ की कहावत चरितार्थ नहीं करना चाहता.

6/6/10

‘जहर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा’



लोगों को सिगरेट पर सिगरेट फूंकता देख बशीर बद्र का ये शेर बरबस याद आने लगता है-
‘मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूं दोस्तों,
जहर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा’

दवा कितनी है ये तो पता नहीं लेकिन टोबैको के अर्ज के मर्ज में लोगों की जिंदगी तेजी से खर्च हो रही है. लेकिन वो नहीं सुधरेंगे. ऐसे लोगों को आगाह करने के लिए ही पिछले मंडे को वल्र्ड नो टोबैको डे मनाया गया. कुछ साल पहले तक कुछ गिनेचुने ‘डे’ होते थे. जैसे इंडिपेंडेंस डे, रिपब्लिक डे, टीचर्स डे और मे डे. लेकिन अब महीने में दो-तीन बार कोई ना कोई ‘डे’ मना ही लिया जाता है. कोई भी डे क्यों मनाया जाता है? सब के कारण अलग-अलग हैं. किसी बड़ी ऐतिहासिक घटना या महापुरुष के जन्मदिन या फिर किसी बड़ी समस्या या बीमारी के खिलाफ अभियान और अवेयरनेस के लिए खास ‘डे’ मनाया जाता है. बहुत सारे ‘डे’ तो यह बताने के लिए मनाए जाते हैं कि संभल जाइए वरना आपके डेज पूरे होने जा रहे हैं. लेकिन कुछ ‘डे’ ये बताने के लिए भी मनाए जाते हैं कि डोन्ट वरी, रोजी डेज आर अहेड. जैसे वैलेंटाइन्स डे, फ्रेंडशिप डे, चाकलेट डे वगैरह. कोई डे ना हो तो जब मन करे हॉलीडे मना लेना चाहिए.
डेज कोई भी हों, ये सब की सेहत की बेहतरी के लिए होते हैं. ये डेज किसी ना किसी रूप में इंसपायर करते हैं. कोई शक नहीं की टोबैको सेहत को तबाह कर देता है. फिर, सिगरेट के कश में ऐसी कौन सी कशिश है कि लोग जानते हुए भी कश पर कश खीचते हुए हर फिक्र को धुंए में उड़ाते चलते हैं. लेकिन ये धुंआ तो सदियों से उड़ाया जा रहा है. राजा-महराजा के जमाने में भी तम्बाकू की तलब लगती थी. तब लोग चिलम और स्टाइलिश हुक्का गुडग़ुड़ाते थे. हुक्का हैसियत और सोशल एक्सेप्टबिलिटी का प्रतीक था. तभी तो बात-बात पर हुक्का-पानी बंद करने की धमकी दी जाती थी. उस समय सगरेट नहीं था. हां, हुक्के की बहन बीड़ी जरूर मौजूद थी लेकिन तब भी उसे बहुत डाउन मार्केट ही समझा जाता था. भला हो गुलजार जी और मार्डन इंटलेक्चुअल्स का जिन्होंने कारपोरेट कल्चर में बीड़ी का बेड़ा गर्क होने से बचाए रखा है. गुलजार जी ने बीड़ी जलइ ले...गाना क्या लिखा लोगों के जिगर में सुलग रही चिंगारी आग की तरह धधक उठी. यंगस्टर्स तो सिगरेट भी बीड़ी जलइले के तर्ज पर ही सुलगाते हैं. लेकिन मार्डन सोसाइटी में बीड़ी दो ‘एक्स्ट्रीम’ पर ही सुलगती दिखती है. एक बिल्कुल डाउन मार्केट मजदूर और लेबर तबका में और दूसरा बिल्कुल हाई इंटलेक्चुअल्स में. इनमें रंगकर्मी, आर्टिस्ट, क्रिटिक या सोशल एक्टिविस्ट्स कोई भी हो सकता है. किसी ने बताया कि हाई सोसाइटी में ‘समथिंग डिफरेंट’ के बहाने कुछ लोग ‘बीड़ी जलइले’ की तर्ज पर बीड़ी फूकतेे हुए जताने की कोशिश करते हैं कि उनके जिगर में कितनी आग है.
वैसे इंटलेक्चुअल्स हों या कॉमनमैन, मोटर मैकेनिक हो या मैनेजमेंट गुरू, थोड़ी सी माथा-पच्ची करते ही उनकी बाडी में निकोटीन की अर्ज बढ़ जाती है. और अर्ज पूरा करने का फर्ज तो निभना ही पड़ेगा. इसके लिए कोई सिगरेट सुलगाता है, कोई पानमसाला फांकता है तो कोई मुंह में खैनी दबा लेता है. सवाल उठता है कि निकोटीन की अर्ज पैदा होने की नौबत आती ही क्यों है? कई चेन स्मोकर्स और खैनीबाजों से बात की कि गुरू ये लत लगी कैसे? सब आहें भरते बताते हैं कि शुरूआत तो शौकिया की थी. किसी ने स्टाइल मारने के लिए, किसी ने गल्र्स को इंप्रेस करने के लिए तो किसी ने माचो लुक के लिए सिगरेट सुलगाई थी. कुछ लोगों ने टाइमपास के लिए तम्बाकू का पाउच मुंह में रखा था तो कुछ ने टेंशन रिलीज करने के लिए. टेंशन कितनी दूर हुई ये तो पता नहीं लेकिन निकोटीन की अर्ज पूरी ना होने पर उनका टेंशन जरूर बढ़ जाता है. अर्ज का मर्ज कहीं इतना ना बढ़ जाए कि टाइमपास के चक्कर में हार्ट बाइपास की नौबत आ जाए. सो टोबैको छोडऩे में क्या हर्ज है.

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