हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी.. फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी.. निदा फाजली की ये लाइनें कितनी ही सटीक हैं आज के शहरों पर। ध्यान से देखिए भीड़भाड़ वाले शहर आगरा के बीचोबीच एक खंडहर सी अनजान कोठरी में छह महीने से पड़े इस कंकाल को। ताजमहल के शहर में अपनी ही लाश का खुद मजार कैसे बनता है आदमी, यह पता चला उस खंडहर की दूसरी कोठरी में २० दिन से पड़ी लाश से।
यह कंकाल एक करोड़पति परिवार की बेटी का है, यह कंकाल एक अरबपति परिवार की बहू का है। २० दिन से पड़ी लाश एक टूटे हुए अरमानों की है। सुना है वो खूबसूरत थी, संस्कारी थी, जो अपनों के लिए तिल-तिल कर मर रही थी, जो भूखी-प्यासी मर गई लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। यह कंकाल ७० साल की विमला अग्रवाल का है और २० दिन से पड़ी लाश उनकी बेटी वीना का है। विमला के पिता गोपाल दास अग्रवाल की गिनती अपने जमाने के बड़े सेठों में होती थी। आगरा रावतपाड़ा में आलीशान मकान था उनका। विमला की ससुराल दौलत और शोहरत के मामले में मायके से भी आगे है। उनका विवाह इलाहाबाद के बेहद प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। पति कैलाश चंद बड़े गल्ला व्यापारी थे। जेठ बालमुकुंद इलाहाबाद के सिरसा नगर पंचायत के चार बार चेयरमैन रहे। उनके बाद भतीजे भानू प्रकाश दो बार चेयरमैन रहे। यह जानकारी उनके दूसरे भतीजे एवं बाल मुकुंद के बेटे श्यामकांत अग्रवाल ने दी है।
उन्होंने बताया कि विमला की शादी १९५५ में हुई थी। ससुराल इलाहाबाद के मेजा में है। भवन पीली कोठी के नाम से जाना जाता है। तीन साल बाद ही उनके पति कैलाश चंद का बीमारी से निधन हो गया। उनकी एक ही बेटी थी वीना। उसे लेकर विमला आगरा आ गईं। उन्होंने ससुराल में आना जाना भी नहीं रखा। विमला की ससुराल अरबपति मानी जाती है। मायका भी करोड़पति था। लेकिन उनकी जिंदगीआगरा के उस मकान में कटी जिसमें खाने का एक दाना तक न था, बिजली का कनेक्शन महीनों से कटा हुआ था। सुना है वीना खूबसूरत और संस्कारी थी। उसे किसी डाक्टर से प्यार हो गया था। जो शादी का वादा कर आगे की पढ़ाई करने विदेश गया तो फिर कभी वीना से नहीं मिला। और वीना उसका इंतजार करते करते मर गई। वीना की कहानी गुलजार की फिल्म मौसम से काफी कुछ मिलती जुलती है। अब क्या क्या लिखें, विमला और वीना की दर्दनाक दास्तान चार दिन से आगरा के अमर उजाला और दूसरे पेपरों में लगातर छप रही है लेकिन ऐसी खबरें तूफान नहीं खड़ा करतीं। आजकल छद्म आजदी के लिए हंगामा करने वालों का है। सोशन मीडिया पर मैनेज्ड लाइक्स और हिट्स का है। मन करे तो निदा फजली की ये लाइने भी सुन लीजिएगा..
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नयी दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आखिरी साँस तक बेक़रार आदमी .....
-निदा फाजली
जरा फासले से मिला मिला करो..
ऐसे ही क खबर करीग डेढ़ साल पहले नोएडा से आई थी। क्या बड़े शहरों में बड़े बड़े लोग इतने अकेले हो जाते हैं? नोएडा के सेक्टर ५९ के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली ने आखिर सात महीने से अपने को क्यों कैद कर रखा था? इनमें एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थी और दूसरी टेक्सटाइल डिजायनर. कुछ सालों से उनके पास जॉब नहीं थी लेकिन इतनी भी कडक़ी नहीं थी कि भूखों मरने की नौबत आ जाए. फिर उन्होंने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया? हालत इतनी खराब हो गई कि बुधवार को अनुराधा की मौत हो गई और सोनाली की हालत भी खराब है. इसका रेडीमेड उत्तर है-दोनों डीप डिप्रेशन में थीं. लेकिन जवाब इतना आसान नहीं है. एक कर्नल की पढ़ी-लिखी बेटियां, जिनका एक सगा भाई और दूसरे रिश्तेदार भी हों वो क्यों नोएडा की व्यस्त लोकैलिटी के एक फ्लैट में अपने को कैद कर लेती हैं और पूरे सात महीने इसकी खबर किसी को नहीं होती. ये पॉश सी लगने वाली कौन सी जंगली बस्ती हैं जिसके उलझे हुए रास्तों पर कब कोई अकेला दम तोड़ दे, पता ही नहीं चलता. शहर जैसे-जैसे बड़ा और मॉर्डन होने लगता है तो क्या फैमिली, लोकैलिटी और शहर को जोडऩे वाला इमोशनल फाइबर कमजोर पडऩे लगते हैं? बशीर बद्र की ये लाइंस आज बार- बार याद आ रही हैं... कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो... लेकिन क्या शहरों में ये फासले इतने बड़े हो जाते हैं कि अपनों के एग्जिस्टेंस को ही भुला दिया जाता है.? यहां सवाल छोटे या बड़े शहर का नहीं है, सवाल हमारी परवरिश, संस्कारों और पर्सनॉलिटी का है. सवाल इसका है कि हमारी इमोशनल और सोशल बॉन्ड्स कितनी स्ट्रॉंग हैं. स्कूलों में तो मॉरल वैल्यूज के बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन हम इमोशनली कितने स्ट्रांग हैं ये तो हम परिवार में ही सीखते हैं. अनुराधा और सोनाली अपनी इस कंडीशन के लिए खुद जिम्मेदार हैं तो उनका भाई, रिश्तेदार और पड़ोसी भी कम जिम्मेदार नहीं. ये सबको सोचना होगा कि हमारे इर्दगिर्द के फासले इतने बड़े ना हों जाएं कि इंसानों की बस्ती में सब अजनबी ही नजर आएं.
यह कंकाल एक करोड़पति परिवार की बेटी का है, यह कंकाल एक अरबपति परिवार की बहू का है। २० दिन से पड़ी लाश एक टूटे हुए अरमानों की है। सुना है वो खूबसूरत थी, संस्कारी थी, जो अपनों के लिए तिल-तिल कर मर रही थी, जो भूखी-प्यासी मर गई लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। यह कंकाल ७० साल की विमला अग्रवाल का है और २० दिन से पड़ी लाश उनकी बेटी वीना का है। विमला के पिता गोपाल दास अग्रवाल की गिनती अपने जमाने के बड़े सेठों में होती थी। आगरा रावतपाड़ा में आलीशान मकान था उनका। विमला की ससुराल दौलत और शोहरत के मामले में मायके से भी आगे है। उनका विवाह इलाहाबाद के बेहद प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। पति कैलाश चंद बड़े गल्ला व्यापारी थे। जेठ बालमुकुंद इलाहाबाद के सिरसा नगर पंचायत के चार बार चेयरमैन रहे। उनके बाद भतीजे भानू प्रकाश दो बार चेयरमैन रहे। यह जानकारी उनके दूसरे भतीजे एवं बाल मुकुंद के बेटे श्यामकांत अग्रवाल ने दी है।
उन्होंने बताया कि विमला की शादी १९५५ में हुई थी। ससुराल इलाहाबाद के मेजा में है। भवन पीली कोठी के नाम से जाना जाता है। तीन साल बाद ही उनके पति कैलाश चंद का बीमारी से निधन हो गया। उनकी एक ही बेटी थी वीना। उसे लेकर विमला आगरा आ गईं। उन्होंने ससुराल में आना जाना भी नहीं रखा। विमला की ससुराल अरबपति मानी जाती है। मायका भी करोड़पति था। लेकिन उनकी जिंदगीआगरा के उस मकान में कटी जिसमें खाने का एक दाना तक न था, बिजली का कनेक्शन महीनों से कटा हुआ था। सुना है वीना खूबसूरत और संस्कारी थी। उसे किसी डाक्टर से प्यार हो गया था। जो शादी का वादा कर आगे की पढ़ाई करने विदेश गया तो फिर कभी वीना से नहीं मिला। और वीना उसका इंतजार करते करते मर गई। वीना की कहानी गुलजार की फिल्म मौसम से काफी कुछ मिलती जुलती है। अब क्या क्या लिखें, विमला और वीना की दर्दनाक दास्तान चार दिन से आगरा के अमर उजाला और दूसरे पेपरों में लगातर छप रही है लेकिन ऐसी खबरें तूफान नहीं खड़ा करतीं। आजकल छद्म आजदी के लिए हंगामा करने वालों का है। सोशन मीडिया पर मैनेज्ड लाइक्स और हिट्स का है। मन करे तो निदा फजली की ये लाइने भी सुन लीजिएगा..
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नयी दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आखिरी साँस तक बेक़रार आदमी .....
-निदा फाजली
जरा फासले से मिला मिला करो..
ऐसे ही क खबर करीग डेढ़ साल पहले नोएडा से आई थी। क्या बड़े शहरों में बड़े बड़े लोग इतने अकेले हो जाते हैं? नोएडा के सेक्टर ५९ के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली ने आखिर सात महीने से अपने को क्यों कैद कर रखा था? इनमें एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थी और दूसरी टेक्सटाइल डिजायनर. कुछ सालों से उनके पास जॉब नहीं थी लेकिन इतनी भी कडक़ी नहीं थी कि भूखों मरने की नौबत आ जाए. फिर उन्होंने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया? हालत इतनी खराब हो गई कि बुधवार को अनुराधा की मौत हो गई और सोनाली की हालत भी खराब है. इसका रेडीमेड उत्तर है-दोनों डीप डिप्रेशन में थीं. लेकिन जवाब इतना आसान नहीं है. एक कर्नल की पढ़ी-लिखी बेटियां, जिनका एक सगा भाई और दूसरे रिश्तेदार भी हों वो क्यों नोएडा की व्यस्त लोकैलिटी के एक फ्लैट में अपने को कैद कर लेती हैं और पूरे सात महीने इसकी खबर किसी को नहीं होती. ये पॉश सी लगने वाली कौन सी जंगली बस्ती हैं जिसके उलझे हुए रास्तों पर कब कोई अकेला दम तोड़ दे, पता ही नहीं चलता. शहर जैसे-जैसे बड़ा और मॉर्डन होने लगता है तो क्या फैमिली, लोकैलिटी और शहर को जोडऩे वाला इमोशनल फाइबर कमजोर पडऩे लगते हैं? बशीर बद्र की ये लाइंस आज बार- बार याद आ रही हैं... कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो... लेकिन क्या शहरों में ये फासले इतने बड़े हो जाते हैं कि अपनों के एग्जिस्टेंस को ही भुला दिया जाता है.? यहां सवाल छोटे या बड़े शहर का नहीं है, सवाल हमारी परवरिश, संस्कारों और पर्सनॉलिटी का है. सवाल इसका है कि हमारी इमोशनल और सोशल बॉन्ड्स कितनी स्ट्रॉंग हैं. स्कूलों में तो मॉरल वैल्यूज के बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन हम इमोशनली कितने स्ट्रांग हैं ये तो हम परिवार में ही सीखते हैं. अनुराधा और सोनाली अपनी इस कंडीशन के लिए खुद जिम्मेदार हैं तो उनका भाई, रिश्तेदार और पड़ोसी भी कम जिम्मेदार नहीं. ये सबको सोचना होगा कि हमारे इर्दगिर्द के फासले इतने बड़े ना हों जाएं कि इंसानों की बस्ती में सब अजनबी ही नजर आएं.