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10/18/18

सांड़ तो सांड़ है, आप तो इंसान हैं...!


अष्टमी की शाम का वक़्त...उत्सव का माहौल,चाय की गुमटियों पर गहमागहमी...टीवीचैनलTCS और दूसरी कम्पनियों के स्टाफ जो शिफ्टों में काम करते हैं, ब्रेक में चाय की चुस्कियों के साथ गप लड़ा रहे थे. तभी भगदड़ मच गयी. पता चला कि दो तगड़े सांड़ लड़ रहे हैं. किसी ने डंडा पटका तो  एक सांड डिवाइडर के बीच बने नाले में जा गिरा. नाला संकरा था सो उसके लिए मुड़ना संभव नहीं था. करीब 6 फुट गहरे नाले में सांड़ सहमा सा खड़ा था. कुछ देर मजमा लगा. लेकिन फिर सब अपने रास्ते. मैं भी अपन काम निपटाने लगा. करीब आधे घंटे बाद जिज्ञासा हुई. जहाँ सांड गिरा था, वहां सन्नाटा था. सांड नहीं दिखा. लगा शायद निकल गया होगा. लेकिन सवाल उठा कि छह फिट गहरे नाले से सांड कैसे निकला होगा.   

  करीब पांच मीटर आगे ध्यान से देखा तो सांड़ कुछ आगे सरक कर चुपचाप एक फिट तक भरे नाले के पानी में अभी भी खड़ा था. शाम के सात बज रहे थे, त्यौहार का सीजन, ऐसे में सुबह से पहले कोई सुध लेगा, इसकी संभावना कम थी. यानी रातभर वह अँधेरे नाले में फंसा रहेगा. सोच के मन विचलित होने लगा. इसलिए नहीं कि वह गोवंश का था. मेरे लिए तो एक जीव संकट में था. वह घोडा, गधा, कुत्ता या अन्य कोई भी जीव हो सकता था. बस नगर निगम के कैटल कैच करने वाले को फोन घुमा दिया. आधे घंटे के भीतर नगर निगम का दस्ता स्पॉट पर था. फिर शुरू हुई सांड को निकालने की कवायद. दस्ते में 5-6 लोग थे. सांड को फंदे में फंसाया गया. लेकिन सांड भारी हट्टा-कट्टा था. मदद को और लोग भी आगये. करीब आधे घंटे की मशक्कत के बाद सांड को बहार निकाल लिया गया. 
   उसके निकलते ही पता नहीं क्यों भीड़ ने जय श्रीराम का नारा लगाया. संभवतः इसलिए कि अगले दिन रामनवमी और दशहरा था. मैं एक जीव के कष्ट को कम करने में अपनी भूमिका से संतुष्ट था यह जानते हुए भी कि सड़क पर लड़ते हुए सांडों से किसी इंसान की जान भी जा सकती थी. पहले भी हादसे हो चुके हैं. वर्चस्व के लिए लड़ना तो सांडों का स्वभाव है. लेकिन सड़कों पर घूमते सांड से किसी की जान पर न बन आये, यह देखना नगर निगम का काम है. उन्हें गोशाला पहुँचाना भी उनका ही काम है, जिसे नगर निगम अक्सर नहीं करता.
  फिलहाल लखनऊ नगर निगम की टीम ने महाअष्टमी की शाम सराहनीय काम किया था. गोमतीनगर विभूतिखंड में मेरे ऑफिस के सामने के नाले में गिरे उस सांड को सूचना मिलने के आधे घंटे के अंदर सकुशल बहार निकाल लिया. यही कुशलता और तत्परता वह आगे भी दिखाए तो समझूंगा की इस विजय दशमी को नगर निगम की कार्य संस्कृति में घुस कर बैठे रावण के अकर्मण्यता रुपी सर को अलग करने में सफतला मिली.   

9/1/18

..अब मेंढक नहीं टर्राते



भादो भी आ गया, बारिश अब चली-चला की वेला में हैं.पर्यावरण दिवस भी काफी पहले बीत गया लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि इस बार तो मेंढक टर्राये ही नहीं. पहले पहली बारिश के साथ ही मेढक टर्र टर्र बोलने लगते थे. कहाँ गये सब मेंढक? रात में जब ढेर सारे मेंढक एक साथ टर्राते थे तो लगता कम्पीटीशन हो रहा. उनकी आवाज से नीद नहीं डिस्टर्ब होती थी. लेकिन अब तो आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती. अब मेंढकों का न टर्राना डिस्टर्ब करने लगा है. यह प्रकृति के लिए खतरनाक संकेत है. यह साबित करता है की गिद्ध,गौरैया,चमगादड़ के बाद अब मेंढक भी गायब हो रहे. यह सब अंधाधुंध पेस्टीसाइड के प्रयोग का ही दुष्परिणाम है.
प्रसंगवश बचपन की एक घटना याद आगयी. उस समय मेढक पकड़ना एक खेल था.डीशेक्शन के लिए हम लोग खेल के मैदान से मेंढक पकड़ लाते थे और स्कूल की लैब में उन पर  अध्ययन होता था. एक बार टीचर ने कहा रानाटेग्रीना का स्केलेटन लाओ. किसी ने बताया कि नमक के पानी में देर तक मेंढक उबालने से स्केलेटन अलग हो जाता है.सो हमलोग एक बड़ा सा मेंढक पकड़ लाये. उबालने के लिए छोटी सी हंडिया खरीदी गयी. लेकिन पेरेंट्स से सख्त चेतावनी मिल गयी कि खबरदार,घर के अन्दर मेंढक नहीं उबाल सकते. अंत में तय हुआ कि दोस्त की छत पर मेंढक पकाना तय हुआ. 
अब मेंढक को बेहोश करना समस्या थी. किसी ने कहा केरोसिन पिला दो. इससे बात नहीं बनी तो ड्रॉपर से फिनायल पिलाया गया. बेचारा मेंढक अबतक बेसुध हो चूका था.डा पानी में  नमक डालकर मेंढक की हांड़ी चढ़ गयी. एक घंटे से अधिक उसे उबाला गया. तय हुआ की जब हांडी ठंडी हो जाये तो कुछ घंटे बाद मेंढक का स्केलेटन निकाला जायेगा. हम लोग नीचे आ गये. करीब चार घंटे बाद जब जब छत पर गये तो हांडी लुढकी हुई थी और मेंढक गायब था. थोड़ी दूर मुंडेर पर उसकी कुछ हड्डीयां बिखरी हुईं थी. कोई कौआ हांड़ी मेंढक की दावत उड़ा गया था.
अब तो असली मेढकों की टर्राहट नहीं सुनाई पड़ती, कौए भी कम हो रहे हैं. राजनीतिक मेंढक साल भर टर्राते रहते, राजनीतिक कांव कांव दिन भर होती रहती. देश की आबो-हवा के लिए यह अच्छा नहीं.

5/26/18

साया, ताड़ का पेड़ और लोहा सिंह


आजकल टीवी में एक वीडियो वायरल है। इसमें एक लड़की का साया बंदर की माफिक ऊपर चढ रहा है। कहा जा रहा कई अस्पतालों की ईमारत पर रात 3 बजे ऐसा साया चढ़ता दिखाई देता है।  लाखों लोग इसे मुंह खोले देख रहे। इसे देख मुझे ताड़ के पेड़ पर सुबह शाम चढ़ता ताड़ी वाला याद आता है जो कमर में छोटी सी मटकी लटकाए ताज़ी ताड़ी निकलने के लिए बंदर की तरह सटासट चढ़ जाता था। पटना में बचपन के दिनों ऐसे दृश्य आम थे क्योंकि वहां तब ताड़ के पेड़ बहुत थे। उन पेड़ से ताड़ी निकलने वालों के लिए यह काम बाएं हाथ का खेल था। जिसने भी फर्जी वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाला है उसने अगर ताड़ी वाले को देखा होता तो आसानी से पकड़ में आने वाले ऐसे झूठे वीडियो न बनता, लेकिन उसे पता है भारत में पढ़े लिखे अनपढ़ों का बहुमत है जो किसी भी झूठे वीडिओ को वायरल करने को हमेशा तैयार रहते।  
    ताड़ी से मुझे लोहा सिंह याद आ रहा है। पटना में हमारे ग्वाले का नाम लोहा सिंह था।10-12 बढ़िया जर्सी गाय थीं उसके पास।  उसके नेपाली अस्सिटेंट का नाम बहादुर था जो चारा और गायों को सानी वानी लगाने का काम देखता था। तब पैकेट वाले दूध का चलन नहीं था। सो सुबह शाम ताजा दूध के लिए डब्बा लेकर ग्वाले के पास जाना पड़ता था। शाम को मेरी ड्यूटी लगती थी। लेकिन शनिवार शाम तनाव में बीतती थी। क्योंकि उस दिन शाम को लोहा सिंह ताड़ी पी लेता था और वहीं खटाल में खटिया पर लेटा लेटा अपने रिश्तेदारों को गरियाता था।  गाय दुहने का काम उस दिन बहादुर करता था। हालांकि तड़ीयल लोहा सिंह दूध लेने आये लोगों को कुछ नहीं बोलता लेकिन फिर भी मुझे डर लगता था।  


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