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6/28/09

लखनऊ का 'बंद' रायबरेली का 'पापा'



चाय के साथ पावरोटी खाने में जो मजा है वो पिज्जा, बर्गर और हॉटडाग में कहां. तभी तो ममता दीदी ने रेल मंत्री बनने के बाद आफिस जाकर सबसे पहले डबलरोटी और चाय का नाश्ता किया. पावरोटी के कई चचेरे भाई हैं रस्क, बंद और जीरा, ये ब्रेड ना मिलने पर वैकल्पिक संतुष्टि के लिए उपलब्ध रहते हैं. बंद के साथ खास बात है कि मक्खन ना हो तो भी चलेगा. इसी तरह रस्क और जीरा भी सेल्फसफिशियेंट हैं. जीरा समझ गए ना सूखी लकड़ी या चैला या नमकीन खाजा टाइप की चीज जिसे चाय में डुबो कर खाया जाता है. यह चाय की आधी कीमत पर मिलता है लेकिन अगर आपने इसे कप में दो बार डुबो दिया तो पूरी चाय सोख लेगा. इसका नाम जीरा शायद इस लिए पड़ा कि इसके मुंह में चाय जीरा समान ही होती है. और इसी तरह बंद भी दो डुबकी में पूरी चाय सुड़क जाता है. अक्सर आधा बंद हाथ में ही रहता है और चाय का पूरा कप खाली. इस लिए बंद खाएं तो एक लोटा चाय लेकर बैठें. पता चला है कि रायबरेली में जीरा का एक फुफेरा भाई 'पापा' भी आ गया है. इस के बारे में लोग अभी कम ही जानते हैं. पता चला है कि बंद जब पुराना होने लगता है तो उसे आंच में सुखा कर 'पापा' बनाया जाता है. चाय सुड़कने में यह बंद और जीरा से भी बड़ा उस्ताद है.

6/21/09

कलुआ का बाऊ


रात के डेढ़ बजने को हैं और फिर मन में धुक-धुकी लगी है कि साला कलुआ फिर बैठा होगा अपने गैंग के साथ मेरी ताक में. पहले कलुआ के बाऊ (बाबू) से त्रस्त था अब उसके बेटे से त्रस्त हूं. बाप भी काला बेटा भी काला, तन से भी और मन से भी. ऐसे डबल कैरेक्टर वाला जीव आज तक नहीं देखा. दिन में इतना शरीफ और निरीह जैसे रात में कुछ हुआ ही नहीं. कई बार बंद और डबलरोटी खिलाई लेकिन कोई असर नहीं. डाटो तो भी भीगी बिल्ली बना रहता है और उसके साथी भी बड़े दोस्ताना अंदाज में मिलते हैं और रात को दुश्मन बन जाते हैं. पुलिस वाले भी मदद नहीं करते, कहते हैं मेरे महकमे का मामला नहीं है. क्षेत्र के दबंग कारपोरेटर से भी मदद की गुहार लगाई, उसने भी हाथ खड़े कर दिए. कहा शाम छह बजे के बाद संबंधित विभाग कार्रवाई नहीं कर सकता, संसाधनों की कमी है. मेरे घर के रास्ते में कलुआ का इलाका पड़ता था. कमबख्त मेरी स्कूटर की आवाज पहचानता था. हेड लाइट देखते ही पूरा गैंग एलर्ट हो जाता था. मैं स्कूटर आराम से चलाने का आदी हूं सो जब बहुत करीब आ जाता तभी अचानक पूरा गैंग झपट पड़ता. दहशत में एक-दो बार गिरते-गिरते बचा. उसका हमला होते ही अनायास एक्सीलेटर बढ़ा देता. कलुआ के साथी पीछे छूट जाते लेकिन कलुआ गली के छोर तक खदेड़ता था. दूसरी रणनीति आजमाई कि जब कलुआ का गैंग झपटे तो खड़े हो जाओ लेकिन इसमें जोखिम ज्यादा नजर आया. लगा कि न जाने कलुआ के मन में क्या हो. सो गति में ही ज्यादा सुरक्षा महसूस हुई. कलुआ का इलाका करीब आते ही स्कूटर की गति बढ़ा देता था कि देखें कितनी तेज भागता है स्प्रिंटर की औलाद. रणनीति कारगर लग रही थी. कुछ दूर दौडऩे में उसकी हफनी छूट जाती थी और मैं विजयी भाव से फिनिश लाइन पार कर जाता था. लेकिन ये ज्यादा दिन नहीं चला. कलुआ ने भी इसकी काट निकाल ली. स्कूटर की आवाज सुनते ही कलुआ पहले से ही स्कूटर वाली दिशा में आगे-आगे दौडऩे लगता, उसी तरह जैसे रिले रेस में पीछे से आ रहे साथी का बैटन लेने से पहले ही टीम मेंबर स्टार्ट ले लेते हैं. और स्कूटर करीब आते-आते कलुआ अच्छी स्पीड में होता. मुझे स्वभाव के विपरीत स्कूटर और तेज गति से भगानी पड़ती. एक-एक रात मुश्किल से कट रही थी. लेकिन एक रात कलुआ ने नहीं दौड़ाया, उसके साथी भी नहीं दिखे. सुखद एहसास, आतंक का खत्मा. तो क्या कलुआ युग का अंत हो गया? सुबह आफिस जाते समय नजर इधर उधर कलुआ को खोज रही थीं तभी सड़क किनारे कलुआ लेटा दिखा. पास गया, कोई हरकत नहीं. कलुआ की सांसे नहीं चल रहीं थीं. किसी वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी. उसका मुंह खुला हुआ था. लग रहा था वह हंस रहा है और मुझसे कह रहा, क्यों बच्चा खा गए ना गच्चा. कुछ महीने सब शंाति से चला लेकिन फिर एक नया कलुआ पैदा हो गया और आजकल फिर मुझे दौड़ा रहा है.
अब आप समझदार हैं जान ही गए होंगे कलुआ कौन था और कौन है. फोटो से भी नहीं समझ आया तो इंतजार करिए.. कलुआ के बेटे की कहानी.. का

6/19/09

चित्रकूट के घाट पर 'केवट' से मुठभेड़


मेरे पापा सबसे बहादुर: घायल इंस्पेक्टर के साथ उनकी बेटी (फोटो: साभार आई नेक्स्ट)
...............आपने देखा होगा १६/६ यानी चित्रकूट में ५० घंटे तक चला लाइव एन्काउंटर. २६/११ से भी ज्यादा देर तक चली मुठभेड़. २६/११ में विदेशी आतंकी थे, १६/६ में था एक देसी डाकू. खबरिया चैनल्स और अखबारों में तीन दिन यह मुठभेड़ सुर्खियों में रही. सब यूपी पुलिस को पानी पी-पी कर गरिया रहे थे. हमेशा यही होता है. क्योंकि एसी कमरे में बैठ कोल्ड ड्रिंक के साथ किसी खबर या कवरेज पर टिप्पणी करना, गल्तियां निकालना बहुत आसान है लेकिन जमीनी हकीकत में बहुत फर्क होता है. ४३ डिग्री की गर्मी में बीहड़ में बिना दाना-पानी पांच घंटे बैठने में बड़ों बड़ों को गश आ जाता है. पुलिस वाले तो ५० घंटे तक डटे रहे. पुलिस की रणनीति में, संसाधनों में लाख कमी हो लेकिन उसके मनोबल और बहादुरी पर सवाल उठाना, मारे गए पुलिस कर्मियों और उनके परिवार वालों का अपमान है. १६/६ की मुठभेड़ में डाकू घनश्याम के मारे जाने के कुछ ही पहले शहीद होने वाले कांस्टेबल वीर सिंह को कमरे में छिपे डाकू ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी. डाकू के पास कोई विकल्प नहीं था. अगर डाकू निकल कर गोली नहीं चलता तो वहीं मारा जाता लेकिन वीर सिंह के पास तो विकल्प था. वह अन्य साथियों की तरह पेड़ या दीवार की आड़ में पोजीशन लिए बैठ सकता था लेकिन उसने तो मिशन पूरा करने के लिए आगे बढ़ कर सांप के बिल में हाथ डाल दिया. वीर सिंह की बहादुरी को सलाम. माना कि पुलिस फोर्स में ढेर सारे लोग तोंदियल और लेथार्जिक हैं लेकिन चुस्त दुरुस्त जवानों की भी कमी नहीं है. अगर ये ना होते तो ५० घंटे में भी डाकू का काम तमाम ना होता.
दूसरी सबसे आसान चीज है सिस्टम को भ्रष्ट कह देना. हम भी तो उस सिस्टम का हिस्सा हैं और हम भ्रष्ट हैं तभी तो सिस्टम भ्रष्ट है. नौकरी के कुछ सालों बाद ही हम तोंदियल, आलसी और आरामतलब हो जाते हैं. जाहिर है हम अपना काम ठीक से नहीं कर रहे या संसाधनों का मिसयूज कर रहे हैं. क्या ये सब भ्रष्टाचार नहीं है? घनश्याम केवट एक निहायत धूर्त और दुर्दांत अपराधी था. जब वह मकान से निकल कर भागा तो लोग उसकी फुर्ती देख कर दंग रह गए. यह उसका फिट और छरहरा शरीर ही था जिसके बल पर वह पचास घंटे तक टिका रहा. यह देख कर मुझे लखनऊ चिडिय़ा घर का वो आदमखोर बाघ याद आ गया जो आधा दर्जन लोगो ंकी जान लेने के बाद पकड़ा गया था. उसने मजबूत पिंजरे में अलग रखा गया था. मझोले कद का एक दुबला पतला यह नरभक्षी कोने में बैठा गुर्रा रहा था. मुझे जू के आलसी और स्थूलकाय बाघ देखने की आदत थी जो कितना भी छेडऩे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते थे. मैंने अनायास ही उसकी ओर हाथ उठा दिया. अचानक वह इतनी जोर से दहाड़ा कि रूह कांप गई. लगा कि पिंजरा तोड़ मुझे कच्चा चबा जाएगा. जू का गार्ड मुस्कराया, साहब यही फर्क है पिंजरे में बंद और जंगली जानवरों में. घनश्याम एक ऐसा ही छरहरा हिंसक जंगली डाकू था. लेकिन आपरेशन घनश्याम केवट पर उंगली उठाने वाले लोग भी मुझे जानवरों जैसे ही लगे जो कमरों में बैठे बैठे आलसी, आरामतलब और स्थूलकाय हो गए हैं

6/15/09

झूठ बोले कुत्ता काटे.



न तो मैं नगर निगम की डॉग कैचर स्क्वाड में हूं न पशु प्रेमी और ना ही पशुओं के प्रति हिंसा का भाव रखता हूं. आवारा कुत्ते हों या किसी घर के दुलारे स्वान, उनके प्रति तटस्थता का भाव ही रहता है. मैं एक आम आदमी हूं जिसे कभी पैदल, कभी साइकिल से तो कभी स्कूटर से सड़कों पर रोज ही गुजरना पड़ता है और जो किसी कुत्ते या उनके झुंड को आसपास देखते ही एक अनजाने भय और रोमांच से घिर जाता है. क्योंकि अलग अलग परिस्थितियों में कुत्तों को पुचकारने और दुत्कारने के फारमूले आजमा चुका हूं लेकिन दोनों का इफेक्ट सेम होता है यानी कुत्तों को जो करना हैं करेंगे. कई बार कुत्ते काटते काटते रह गए और दो बार डॉग बाइट झेल चुका हूं. दोनों ही बार मुझे 'लूसी' ने ही काटा. 'लूसी' मेरे एक अजीज मित्र की दुलारी .....? थी. कुत्तों की वाइफ को क्या कहते हैं, आप जानते ही होंगे लेकिन मित्र उस शब्द का प्रयोग करने पर नाराज हो जाते थे सो 'लूसी' ही ठीक है. मित्र के घर जाने पर इंश्योर करवाता था कि 'लूसी' आसपास ना हो लेकिन फिर भी उस कम्बख्त ने दो बार काटा. पिछले जनम की कोई खुन्नस रही होगी. मैंने दोनों बार सिंगल डोज के महंगे एंटी रैबिक इंजेक्शन ठोंकवाए. ऐसे ही एक दिन मित्र के यहां पहुचा. कॉलबेल बजाने पर 'लूसी' के भूंकने की आवाज नहीं आई. लगा कि आज जरूर उसी सोफे के नीचे दुबक कर बैठी होगी जहां से निकल कर दो बार मुझे काट चुकी है. मित्र मुहं लटकाए निकले, मैं सहमा सा ड्राइंगरूम की तरफ यह कहते हुए बढ़ा कि 'लूसी' को बांध दो. तभी भाभी जी की उदास आज आई, भाइया 'लूसी' कहीं चली गई है. चली गई मतलब? कोई उसे उठा ले गया. अरे अड़ोस पड़ोस के कुत्तों के साथ होगी, आ जाएगी. नहीं भइया सुबह से है गायब है. इन्होंने तो तब से एक निवाला मुंह में नहीं डाला है.
शाम के सात बज रहे थे. मित्र का परिवार बिना खाए पीए बैठा था लेकिन मुझे लगा रहा था कि अचानक किसी ने मेरे मुहं में गुलाब जामुन डाल दिया हो, खुशखबरी सुना दी हो. लेकिन खुशी को भरसक दबाते हुए मैंने भी सहानुभूति जताई कि कैसे पूरे घर को गुलजार रखती थी. अब कितना सूना लग रहा है. लेकिन उम्मीद मत छोड़ो रातबिरात शायद लौट आए. अगले दिन सुबह ही मित्र को फोन कर पता किया कि लूसी लौटी कि नहीं. लूसी अब तक नही लौटी थी. जिसने भी लूसी को गायब किया था उसके प्रति मन श्रद्धा से भर गया. मित्र के प्रति भी सहानुभूति थी लेकिन ये भी पता था कि कुछ दिन में वो दूसरा स्वान ले ही आएंगे. इसके बाद मैं निर्भय होकर मित्र के घर लाने लगा. जैसा फील किया सच सच बता दिया. झूठ बोलूं तो कुत्ता काटे. ये तो है पहली कड़ी. अगली कड़ी में कलुआ की कहानी.

6/11/09

जरा बचके जरा हट के...ये है इंडिया मेरी जान



ये है जिब्राल्टर का एअरपोर्ट. भौगोलिक स्थिति ऐसी कि हाई-वे और एअरपोर्ट रन-वे एक दूसरे को क्रास करते हैं. अब से रेलवे की लेवल क्रासिंग तो है नहीं कि सब-वे या ओवरब्रिज से काम चल जाएगा सो वर्केबल सॉल्यूशन यही निकाला गया कि जब प्लेन टेकऑफ या लैंड कर रहा हो तो हाई-वे बंद कर दिया जाए और जब रोड चालू हो तो रन-वे बंद. वहां ये व्यवस्था अभी तक तो ठीक से काम कर रही है और कोई हादसा नही हुआ. अब जरा उस स्थिति की कल्पना कीजिए कि अगर ये व्यवस्था भारत के किसी शहर में होती खास कर यूपी और बिहार में तो नजारा कुछ ऐसा होता...
सीन एक... प्लेन टेकऑफ करने वाला है, रोड का बैरियर गिरा हुआ है. वहां तैनात गार्ड या सिपाही लघुशंका करने या पान मसाला लाने गया हुआ है. कुछ मोटर साइकिल और स्कूटर वालों ने अपने वाहनों को तिरछा कर या लिटा कर बैरियर के नीचे से निकलने में सफलता पा ली है और चक्कर में हैं कि प्लेन निकलने से पहले रन-वे के उस पार पहुंच जाएं. तीन-चार लोग निकल भी चुके हैं और एक दूधिया जिसकी मोटर साइकिल पर दूध के कैन बंधे हैं, रनवे के बिल्कुल पास रुक कर प्लेन के निकलने का इंतजार हर रहा है.
सीन दो...
रोड के बैरियर गिरे हुए हैं. रन-वे पर प्लेन टेकऑफ के लिए दौडऩे लगा है कि अचानक प्लेन के आगे-आगे एक गाय और उसके पीछे - पीछे दो सांड़ दौड़ते दिखते हैं
सीन तीन...
फ्लाइट का टाइम हो गया है लेकिन रन-वे क्लीयर नहीं है. ठीक रन-वे को क्रास करने वाली रोड पर वसूली को लेकर ट्रैफिक पुलिस कांस्टेबल का ट्रक और टेम्पो वालों से झगड़ा हो गया है. और उन्होंने अपने वाहन अड़ा कर जाम लगा दिया है और वाहनों की कई मील लंबी कतार लग गई है.
ऊपर वाले का शुक्र है कि भारत में इस तरह की क्रासिंग नहीं है. अगर होती तो रन-वे पर टेम्पो दौड़ते और बोइंग ७४७ क्रासिंग पर डग्गामार बसों की तरह रुक कर सवारी भरते नजर आते.

6/8/09

ट्रेनों में गूंजता संगीत...


समर वेकेशंस, झुलसाती गर्मी और उसमें रेलयात्रा. सोचकर ही पसीना छूटने लगता है. लेकिन कभी आपने महसूस किया है कि रेल और इसकी भीड़ के रेले में भी एक रिद्म है. तो आइए आज आपको इस रिद्म से निकलते संगीत को सुनाएं. बोगियों के भीतर गूंजता संगीत, प्लेटफार्म पर सरकता संगीत. अब ये आप पर है कि आपका 'सेंसर' इस रेडियो की कौन सी फ्रीक्वेंसी पकड़ता है.
आपको मिलवाते हैं रेलवे के रोडीज, जॉकी और रॉकी से. ये सब हैं डेली पैसेजर्स यानी रोज मिलने वाले वे चेहरे जिन्हें देख कर सामान्य यात्री टेंशन में आ जाते हैं पर इन कम्यूटर्स के माथे पर शिकन तक नहीं. भागती-धक्का खाती कभी गुर्राती, कभी मुस्कराती इस कम्युनिटी के पास होता है एमएसटी. एमएसटी बोले तो 'मैनेजमेंट का सीजन टिकट'. क्योंकि ये टिकट उन्हें सिखाता है टाइम मैनेजमेंट, सोशल नेटवर्किंग और उन्हें बचाता है मोनोटोनस लाइफ की ऊब से.
एक बार मैंने भी अपने में एक एमएसटीहोल्डर मित्र के साथ यात्रा की उन्हीं के अंदाज में. यात्रा क्या पूरे दो घंटे की फिल्म थी. एमएसटीहोल्डर्स के रूप में इसमें कई किरदार मिले. कहीं राजू श्रीवास्तव, कहीं जसपाल भट्टी, कहीं मोहम्मद रफी, कहीं बशीर बद्र तो कहीं मुकेश.
फिल्म की शुरुआत हुई मोबाइल कॉल से. नवल भाई, किस ट्रेन से जाते हो? इंटरसिटी से... आज मैं भी चलूंगा तुुहारे साथ.. वेलकम सरजी.. स्टेशन पहुंच कर काल करते हैं.. 8.10 पर ट्रेन है. मैं आधा घंटे पहले स्टेशन पहुंच गया. इंक्वायरी बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, कुली ने बताया इंटरसिटी छह नंबर से जाती है. 8.05 पर नवल भाई का फोन आया, कहां हैं? छह नंबर पर खड़ा हूं. अरे.. ट्रेन तो आ गई..तीन नंबर पर आइए, ट्रेन में हूं. ये कैसी व्यवस्था है, कोई एनाउंसमेंट नहीं, ऐसे तो ट्रेन छूट जाती. मैं प्लेटफार्म नंबर तीन की ओर भागा. ट्रेन खड़ी थी. गजब की भीड़. फिर फोन किया, नवल कहां हो. इंजन की तरफ आइए, कोच 4463. मैं फोन कान में लगाए बढऩे लगा. आप दिख गए सरजी...बस सामने वाले डिब्बे में चढ़ जाइए. मैं हकबकाया सा सामने वाली कोच में चढ़ गया. भीतर पैर रखने की जगह नहीं. अंदर की तरफ आइए.. मैं यात्रियों ठेलता हुआ धीरे धीरे बढऩे लगा. तभी आवाज आई..मिल गए. मुस्कराते नवल भाई अपनी कम्युनिटी के साथ बैठे थे. बर्थ पर पहले से ही छह लोग थे. सब के सब थोड़ा हिले और मेरे लिए भी जगह बन गई. सबसे इंट्रोडक्शन हुआ..ये हैं ज़हीर भाई. उम्र 55 लेकिन जज्बात टीनएजर्स जैसे, चंदन का इत्र लगाए नफासत की मिसाल. बगल में बैठे थे रवींदर सिंह. पसीने से बचने के लिए कालर में रुमाल लगाए, कम्यूटर्स कम्युनिटी के परमानेंट मेंबर लेकिन पता चला कि साल में छह महीने बिना एमएसटी के डब्लूटी चलते हैं. उनके बगल में ईयरफोन लगाए बैठे थे रियाज भाई. पहले विंडो के पास बैठना पसंद करते थे, लेकिन अब नहीं. कुछ दिन पहले रियाज ईयरफोन लगा आंख बंद किए संगीत का लुत्फ ले रहे थे, मोबाइल उनके पेट पर रखा था ट्रेन स्पीड पकड़ती इसके पहले उचक्का उनका मोबाइल ले उड़ा. तब से विंडो से तौबा कर ली. तभी नवल का फोन बज उठा, कोई और साथी लोकेशन ले रहा था. ट्रेन सरकने लगी थी. कोच नंबर बताने का वक्त नहीं था. एक साथी ने झट से रुमाल निकाली और विंडो पर बैठे अजनबी को थमाते हुए बोला भाई साहब हाथ निकाल कर रुमाल हिलाते रहिए और लाकेशन लेने वाले से बोला सफेद रुमाल दिखे उसी कोच में चढ़ जाओ. अब ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी. तभी उन्हें अपने मिसिंग साथी की याद आई. अरे, धीरू नहीं आया? फोन लगाओ. जाने दो... आजकल उनके..? साथ बैठता है दूसरे कोच में. फिर शुरू हुआ लतीफों का सिलसिला. बीच में जहीर भाई मोहम्मद रफी के अंदाज में सुरीली तान छेड़ देते थे. साथ में एक लेडी कलीग थीं सो लतीफे संभाल कर दागे जा रहे थे. एमएसटी मंडली कुछ देर के लिए गभीर भी हुई जब पता लगा कि एक साथी के फादर बहुत बीमार हैं.
तभी किसी ने कहा अच्छा सिगरेट निकालो. क्या बात कर रहे हो भाई.. ३१ मई यानी नो टोबैको डे को ही छोड़ दी, एक हफ्ता हो गया छोड़े.. किसी ने टिप्पणी की... भाई ने तीसरी बार छोड़ा है. अब ट्रेन फुल स्पीड में थी. उमस थोड़ी कम हो गई थी. लोग एडजस्ट हो चुके थे. जहीर भाई ने फिर मूड में थे.. मैं पल दो पल का शायर हूं.. पल दो पल मेरी जवानी है.. और जिंदगी अपनी रफ्तार में थी.

6/1/09

नो टोबैको डे और 'भूत'



आपने कभी सुना है कि भूत भी छुट्टी पर रहता है और भूतों में भी 'भइया' होते हैं. आपके जमाने में नहीं होता होगा लेकिन मार्डन भूत कैजुअल लीव पर रहते हैं और वीकली ऑफ भी मनाते हैं. ऐसे ही भूत से मेरा पाला पड़ा ३१ मई को. इस दिन यानी संडे को नो टोबैको डे था. मेरा आर्गनाइजेशन सामाजिक सरोकारों से जुड़े अभियानो में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. सो नो टोबैको डे पर हमने भी रैली निकाली. शहर की कई संस्थाओं ने इसमें उत्साह के साथ हिस्सा लिया. एक और आर्गेनाइजेशन जो इस अभियान में हमारे साथ आया उसका नाम था 'हॉन्टेड हाउस' यानी भूत की हवेली. हर शहर-गांव में एक दो ऐसी कोठियां या खंडहर जरूर होते हैं जो भूतिया या अभिशप्त कहलाते हैं. लखनऊ के पॉश मार्केट हजरतगंज में भी एक 'हॉन्टेड हाउस' है. अब इसमें भूत तो होंगे ही. लेकिन ये भूत नुकसान नहीं पहुंचाते बल्कि लोगों का मनोरंजन करते हैं. सो नो टोबैको डे पर 'हॉन्टेड हाउस' भी हमारे साथ आया और रैली में भाग लेने के लिए दो भूत देने की इच्छा जताई. सिगरेट-पान मसाला के नतीजे खौफनाक होते हैं सो इस मैसेज को देने के लिए भूत से बेहतर कौन हो सकता है. हम तैयार हो गए. रैली शुरू होने वाली थी और भूत नदारद. अब ये असली भूत तो थे नहीं कि अचानक कहीं भी प्रकट हो जाएं. एक रिपोर्टर को दौड़ाया गया कि जाकर देखो भूत कहां रह गए. रिपोर्टर थोड़ी देर बाद लौटा लेकिन एक भूत के साथ. मैंने भूत से पूछा, दूसरा कहां है? भइया आज उसकी छुट्टी है. यार पहले बताना था. खैर, तुम्हारा नाम क्या है? भइया. असली नाम? सब मुझे भइया ही कहते हैं. ठीक है तैयार हो जाओ. इसके बाद भइया भूत ने सड़क पर 'नो टोबैको' की तख्ती लेकर जो पिशाच डांस किया वो देखने लायक था. मुझे लगा भूत एक हो या दो, इम्पैक्ट समान होता है.

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