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9/1/18

..अब मेंढक नहीं टर्राते



भादो भी आ गया, बारिश अब चली-चला की वेला में हैं.पर्यावरण दिवस भी काफी पहले बीत गया लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि इस बार तो मेंढक टर्राये ही नहीं. पहले पहली बारिश के साथ ही मेढक टर्र टर्र बोलने लगते थे. कहाँ गये सब मेंढक? रात में जब ढेर सारे मेंढक एक साथ टर्राते थे तो लगता कम्पीटीशन हो रहा. उनकी आवाज से नीद नहीं डिस्टर्ब होती थी. लेकिन अब तो आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती. अब मेंढकों का न टर्राना डिस्टर्ब करने लगा है. यह प्रकृति के लिए खतरनाक संकेत है. यह साबित करता है की गिद्ध,गौरैया,चमगादड़ के बाद अब मेंढक भी गायब हो रहे. यह सब अंधाधुंध पेस्टीसाइड के प्रयोग का ही दुष्परिणाम है.
प्रसंगवश बचपन की एक घटना याद आगयी. उस समय मेढक पकड़ना एक खेल था.डीशेक्शन के लिए हम लोग खेल के मैदान से मेंढक पकड़ लाते थे और स्कूल की लैब में उन पर  अध्ययन होता था. एक बार टीचर ने कहा रानाटेग्रीना का स्केलेटन लाओ. किसी ने बताया कि नमक के पानी में देर तक मेंढक उबालने से स्केलेटन अलग हो जाता है.सो हमलोग एक बड़ा सा मेंढक पकड़ लाये. उबालने के लिए छोटी सी हंडिया खरीदी गयी. लेकिन पेरेंट्स से सख्त चेतावनी मिल गयी कि खबरदार,घर के अन्दर मेंढक नहीं उबाल सकते. अंत में तय हुआ कि दोस्त की छत पर मेंढक पकाना तय हुआ. 
अब मेंढक को बेहोश करना समस्या थी. किसी ने कहा केरोसिन पिला दो. इससे बात नहीं बनी तो ड्रॉपर से फिनायल पिलाया गया. बेचारा मेंढक अबतक बेसुध हो चूका था.डा पानी में  नमक डालकर मेंढक की हांड़ी चढ़ गयी. एक घंटे से अधिक उसे उबाला गया. तय हुआ की जब हांडी ठंडी हो जाये तो कुछ घंटे बाद मेंढक का स्केलेटन निकाला जायेगा. हम लोग नीचे आ गये. करीब चार घंटे बाद जब जब छत पर गये तो हांडी लुढकी हुई थी और मेंढक गायब था. थोड़ी दूर मुंडेर पर उसकी कुछ हड्डीयां बिखरी हुईं थी. कोई कौआ हांड़ी मेंढक की दावत उड़ा गया था.
अब तो असली मेढकों की टर्राहट नहीं सुनाई पड़ती, कौए भी कम हो रहे हैं. राजनीतिक मेंढक साल भर टर्राते रहते, राजनीतिक कांव कांव दिन भर होती रहती. देश की आबो-हवा के लिए यह अच्छा नहीं.

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