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6/8/09
ट्रेनों में गूंजता संगीत...
समर वेकेशंस, झुलसाती गर्मी और उसमें रेलयात्रा. सोचकर ही पसीना छूटने लगता है. लेकिन कभी आपने महसूस किया है कि रेल और इसकी भीड़ के रेले में भी एक रिद्म है. तो आइए आज आपको इस रिद्म से निकलते संगीत को सुनाएं. बोगियों के भीतर गूंजता संगीत, प्लेटफार्म पर सरकता संगीत. अब ये आप पर है कि आपका 'सेंसर' इस रेडियो की कौन सी फ्रीक्वेंसी पकड़ता है.
आपको मिलवाते हैं रेलवे के रोडीज, जॉकी और रॉकी से. ये सब हैं डेली पैसेजर्स यानी रोज मिलने वाले वे चेहरे जिन्हें देख कर सामान्य यात्री टेंशन में आ जाते हैं पर इन कम्यूटर्स के माथे पर शिकन तक नहीं. भागती-धक्का खाती कभी गुर्राती, कभी मुस्कराती इस कम्युनिटी के पास होता है एमएसटी. एमएसटी बोले तो 'मैनेजमेंट का सीजन टिकट'. क्योंकि ये टिकट उन्हें सिखाता है टाइम मैनेजमेंट, सोशल नेटवर्किंग और उन्हें बचाता है मोनोटोनस लाइफ की ऊब से.
एक बार मैंने भी अपने में एक एमएसटीहोल्डर मित्र के साथ यात्रा की उन्हीं के अंदाज में. यात्रा क्या पूरे दो घंटे की फिल्म थी. एमएसटीहोल्डर्स के रूप में इसमें कई किरदार मिले. कहीं राजू श्रीवास्तव, कहीं जसपाल भट्टी, कहीं मोहम्मद रफी, कहीं बशीर बद्र तो कहीं मुकेश.
फिल्म की शुरुआत हुई मोबाइल कॉल से. नवल भाई, किस ट्रेन से जाते हो? इंटरसिटी से... आज मैं भी चलूंगा तुुहारे साथ.. वेलकम सरजी.. स्टेशन पहुंच कर काल करते हैं.. 8.10 पर ट्रेन है. मैं आधा घंटे पहले स्टेशन पहुंच गया. इंक्वायरी बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, कुली ने बताया इंटरसिटी छह नंबर से जाती है. 8.05 पर नवल भाई का फोन आया, कहां हैं? छह नंबर पर खड़ा हूं. अरे.. ट्रेन तो आ गई..तीन नंबर पर आइए, ट्रेन में हूं. ये कैसी व्यवस्था है, कोई एनाउंसमेंट नहीं, ऐसे तो ट्रेन छूट जाती. मैं प्लेटफार्म नंबर तीन की ओर भागा. ट्रेन खड़ी थी. गजब की भीड़. फिर फोन किया, नवल कहां हो. इंजन की तरफ आइए, कोच 4463. मैं फोन कान में लगाए बढऩे लगा. आप दिख गए सरजी...बस सामने वाले डिब्बे में चढ़ जाइए. मैं हकबकाया सा सामने वाली कोच में चढ़ गया. भीतर पैर रखने की जगह नहीं. अंदर की तरफ आइए.. मैं यात्रियों ठेलता हुआ धीरे धीरे बढऩे लगा. तभी आवाज आई..मिल गए. मुस्कराते नवल भाई अपनी कम्युनिटी के साथ बैठे थे. बर्थ पर पहले से ही छह लोग थे. सब के सब थोड़ा हिले और मेरे लिए भी जगह बन गई. सबसे इंट्रोडक्शन हुआ..ये हैं ज़हीर भाई. उम्र 55 लेकिन जज्बात टीनएजर्स जैसे, चंदन का इत्र लगाए नफासत की मिसाल. बगल में बैठे थे रवींदर सिंह. पसीने से बचने के लिए कालर में रुमाल लगाए, कम्यूटर्स कम्युनिटी के परमानेंट मेंबर लेकिन पता चला कि साल में छह महीने बिना एमएसटी के डब्लूटी चलते हैं. उनके बगल में ईयरफोन लगाए बैठे थे रियाज भाई. पहले विंडो के पास बैठना पसंद करते थे, लेकिन अब नहीं. कुछ दिन पहले रियाज ईयरफोन लगा आंख बंद किए संगीत का लुत्फ ले रहे थे, मोबाइल उनके पेट पर रखा था ट्रेन स्पीड पकड़ती इसके पहले उचक्का उनका मोबाइल ले उड़ा. तब से विंडो से तौबा कर ली. तभी नवल का फोन बज उठा, कोई और साथी लोकेशन ले रहा था. ट्रेन सरकने लगी थी. कोच नंबर बताने का वक्त नहीं था. एक साथी ने झट से रुमाल निकाली और विंडो पर बैठे अजनबी को थमाते हुए बोला भाई साहब हाथ निकाल कर रुमाल हिलाते रहिए और लाकेशन लेने वाले से बोला सफेद रुमाल दिखे उसी कोच में चढ़ जाओ. अब ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी. तभी उन्हें अपने मिसिंग साथी की याद आई. अरे, धीरू नहीं आया? फोन लगाओ. जाने दो... आजकल उनके..? साथ बैठता है दूसरे कोच में. फिर शुरू हुआ लतीफों का सिलसिला. बीच में जहीर भाई मोहम्मद रफी के अंदाज में सुरीली तान छेड़ देते थे. साथ में एक लेडी कलीग थीं सो लतीफे संभाल कर दागे जा रहे थे. एमएसटी मंडली कुछ देर के लिए गभीर भी हुई जब पता लगा कि एक साथी के फादर बहुत बीमार हैं.
तभी किसी ने कहा अच्छा सिगरेट निकालो. क्या बात कर रहे हो भाई.. ३१ मई यानी नो टोबैको डे को ही छोड़ दी, एक हफ्ता हो गया छोड़े.. किसी ने टिप्पणी की... भाई ने तीसरी बार छोड़ा है. अब ट्रेन फुल स्पीड में थी. उमस थोड़ी कम हो गई थी. लोग एडजस्ट हो चुके थे. जहीर भाई ने फिर मूड में थे.. मैं पल दो पल का शायर हूं.. पल दो पल मेरी जवानी है.. और जिंदगी अपनी रफ्तार में थी.
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ज़िन्दगी के रंग देखने हों तो लोकल ट्रेन की यात्रा कीजिये...अपने सब गम भूल जायेंगे...
ReplyDeleteनीरज
जिंदगी का नया अंदाज है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
भाई साहब ! हमने तो ‘उसी’ दिन पढ़ लिया था । फोन कर बधाई देने का भी मन हुआ था पर अपने ‘धंधे’ की सिरदर्दियां तो जानते हैं आपभी, उलझ कर रह गया । बहरहाल, रोचक लेख के लिए बधाई । यूं ही खुशनुमा अहसास कभी कभी देते रहा कीजिए । हमारा लिखा तो खैर उधर आता नहीं होगा । कुछ-कुछ हमारे ब्लाग कोलाहल पर जरूर देख सकते हैं आप ।
ReplyDeleteवाह! फेसबुक का रेल संस्करण! हमें इसका रेल में रहते अन्दाज नहीं मिल सकता।
ReplyDeleteपुराने जमाने में इसे चौपाल या पनघट के नाम से जाना जाता था!
अपन तो पढ़ कर टिप्पणी भी कर चुके हैं। लेकिन क्या करें?
ReplyDeleteप्रेम का रोग ही ऐसा है, जब सामने राजू common man का पोस्ट दिख रहा हो तो रहा नहीं जाता । 7 दिनों के बाद तो पोस्ट आई है। आँखें अगोरते अगोरते पथरा गई थीं।
जिंदगी के सभी रंग देखनो हो तो ट्रेन यात्रा कीजिये.
ReplyDeleteबहुत अच्छा पोस्ट है.
समय निकल सके तो ...मैंने भी इसी विषय पर एक पोस्ट २८.०५.२००९ लिखा हैं, आप उसे भी देखे