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8/16/13

काशी में बौराए से गिरिजेश !

आपने कभी किसी जवान बछड़े या गाय को सड़क पर पूंछ उठा के दौड़ते देखा है अगर नहीं तो किसी बछड़े के सामने अपना छाता भक से खोलिए फिर देखिए तमाशा...बछड़ा दुम उठा कर कड-बड, कड-बड दौड़ेगा. गली या सड़क पर पर ये दृय देख बड़ा मजा आता है.  मेरे एक मित्र हैं गिरिजेश राव, अरे लुंगी लगा कर रसम और इडली सांभर सुड़कने वाले राव गारू नहीं, अपने पर्वांचल के बाबू सा हैं. गलती से आजकल बनारस की गलियों में पहुंच गए हैं. उनकी स्थिति उसी बछड़े की तरह हो गई है जिसे हर बनारसी छाता खोल कर भड़का रहा है. और गिरिजेश थूंथन फुफकारते हुए बनारसियों को रपटा रहे है ऐसा फेसबुक पर उनकी टिप्पणियों से जाहिर हो रहा है. गए तो लखनऊ से हैं और रहने वाले कुशीनगर के हैं लेकिन बनारस पहुंच कर उनकी हालत बूटी वाले बाबा की तरह हो गई है. निहायत शरीफ और सेंसिटिव किस्म के इंसान का भोले बाबा भला करें.

8/4/13

हमहूं सलमान


हमहूं सलमान....

मेरे घर के पास एक डेवलप्ड झोपड़पट्टी है नाम है रमैयाजीपुरम. जब रमैयाजीपुरम से गुजरता हूं तो अक्सर रमैया वस्तावैया की ये लाइंस सुनाई पड़ती हैं...जीने लगा हूं...पहले से ज्यादा तुम पर मरने लगा हूं.. रमैयाजीपुरम में रमैया वस्तावैया का गाना, –क्या बात है. मुझे मुंबई की डेवलप्ड झोपड़पट्टी धारावी याद आने लगती है. रमैयाजीपुरम.. नाम कैसे पड़ा ये तो पात नहीं लेकिन रमैयाजी कोई दलित महानुभाव थे या दक्षिण भारतीय नेता, इसकी कोई जानकारी मेरे पास नही है. वैसे तो ये बेतरतीब पक्के मकानों की ऐसी बस्ती है जहां लोग अपने घर के सामने ही कूड़ा फेंकते हैं, मुर्गी और बकरी भी पालते हैं+ और उनके सामने ही बच्चों को शौच भी कराते हैं. पॉश कालोनी के पहलू में पली-बढ़ी इस गली पट्टी और कॉलोनी वासियों में कूड़ा फेंकने को लेकर हमेशा सीमा विवाद रहा है. यहां के हर तीसरे घर में सल्लूभाई बनने का सपना पाले कोई ना कोई मिल जाएगा. 
  रमैयाजीपुरम में बाई, नाई और चारपाई के बीच में एक जिम भी है नाम है अर्नाल्ड जिम. अरे वही अपने अर्नाल्ड शवाजनेगर. दरवाजे पर बंधी बकरियों और दाना चुगती मुर्गियों को देख कर नहीं लगता कि अंदर कोई जिम भी है. यह जिम ऐसावैसा नहीं, मोहल्ले के सल्लुओं और गोविंदाओं और किंग खानों से लबरेज है. इस जिम की मशीने  सेकेंड हैंड हैं, हर मशीन  के सामने  शीशा  लगा हुआ है और बैकग्राउंड म्यूजिक भी बजता रहता है. बस एसी नहीं है. अब पसीना बहाना है तो एसी का क्या काम.
    निठल्लई में डोले-शोले बनाना सबसे बढ़िया टाइमपास है. सो लाल और काली गंजी वाले मोहल्ले के रोमियो सुबह-शाम यहां बैकग्राउंड म्यूजिक ...जीने लगा हूं...के साथ धका-पेल पुशअप्स करते हैं नजर आते हैं. कभी कभी-कभी पारा गरम छाप भोजपुरी फिल्मों के गाने भी सनाई पड़ते हैं लेकिन गाने चाहे जितने इशकिया  और छिछोरेपन वाले बजे, जिम के अंदर का माहौल बिलकुल सीरियस होता है, कोई हंसी-मजाक नहीं.. डम्बल उठाओ, डंड पेलो और पुशअप्स करो, वो भी लगातार शीशा में देखते हुए. लखनउ में वैसे तो ढेर सारे हाई-फाई जिम है लेकिन जितनी भीड़ इस जिम में दिखती है उतनी कहीं और नहीं. यहां कर हर मेम्बर  डोले-शोले बना कर जरूर सोचता होगाकि ...हमहूं सलामन. इस जिम के मालिक का नाम नहीं पता है क्योंकि खाली मोबाइल नंबर लिखा है, कभी फोन रक के बोलूंगा जरूर...रमैया वस्तावैया, जिम से निकलेगे सल्लू भैया... 

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