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8/28/10

भौकाली ब्लॉगर


कालेज डेज में हम लोगों को नसीहत दी जाती थी कि खाली, बीए-एमए करने से कुछ नही होगा. कुछ बनना है तो स्पेशलाइज्ड फील्ड चुनो. इसी तरह जर्नलिस्टों की जमात में घुसने पर सीनियर्स ने कहा आगे बढऩा है तो स्पेशलाइज्ड फील्ड पकड़ो. उस समय एड्स के बारे में कम ही लोग जानते थो सो इस पर खूब ज्ञान बघारा. उसके बाद तो साइंस का ऐसा चस्का लगा कि यूनिवर्स तक खंगाल डाला. कुछ साल स्पोट्र्स पर भी हाथ घुमाया. यानी स्पेशलाइज्ड फील्ड में किस्मत आजमाई. अपना तो नहीं मालुम लेकिन दूसरे कई स्पेशलाइज्ड जर्नलिस्टों का गजब का भौकाल है. सो ब्लॉगर अगर स्पेशलाइज्ड फील्ड का है तो उसका भौकाल होना स्वाभाविक है. आज थोड़ी चर्चा ऐसे ब्लॉगर्स पर.
चौथे खम्भे में सबसे पहले बात तीसरे खम्भे की. यानी हिन्दी ब्लॉग का एक मजबूत खम्भा. इस मजबूत ब्लॉग का नाम भी इत्तफाक से तीसरा खम्भा है. इस खम्भे के रचयिता हैं दिनेश राय द्विवेदी. पेशे से वकील दिनेश राय कोटा के कोर्ट में पाए जाते हैं लेकिन साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी इनकी नीव बहुत मजबूत है. लेकिन पेशे के अनुरूप इनका स्पेशलाइजेशन कानून की फील्ड में है. न्याय व्यवस्था के ज्वलंत मुद्दों को बड़ी ही सहज, सरल भाषा में उठाने में उन्हें महारत हासिल है. वकील जब ब्लॉगर हो तो वो सोशल वर्कर भी बन जाता है. तभी उनकी पोस्ट में ढेर सारे लोग, छोटी-छोटी कानूनी बातों पर उनसे सलाह लेना नहीं भूलते. और इसमें दिनेश दरियादिल हैं.
आइए अब राजस्थान से झारखंड चलें. यहां स्टील सिटी बोकारो में संगीता पुरी के संगीत का आनंद लेते हैं. संगीता पुरी ना तो गीतकार हैं ना संगीतकार. अर्थशास्त्र पढ़ कर वो नक्षत्रशास्त्र की टीचर बन बैठीं. उन्होंने ज्योतिषशास्त्र को बड़े तर्कसंगत और वैज्ञानिक ढंग से लेागों के सामने रखने की कोशिश की है. उनके ब्लॉग का नाम है गत्यात्मक चिंतन. उनकी पोस्टों में ईमानदारी और गति दोनों दिखती है. वो ‘बाबा’ तो नहीं हैं लेकिन अपने ब्लॉग फालोअर्स को निशुल्क ज्योतिष सलाह और भाग्य बांचने में किसी साध्वी से कम नही हैं. हां, संगीता पुरी की व्यस्त ‘नक्षत्रशाला’ में अपनी ग्रहदशा जाननी हो तो अपने कृपया लाइन से आएं और धैर्य रखें.
कानून हो गया, ज्योतिष हो गया. अब शब्दों के अजायबघर की सैर करते हैं. इसके लिए आपको अजित वडनेरकर के ब्लॉग ‘शब्दों का सफर’ का सफर करना होगा. अजित शब्दों के जादूगर हैं और उनके अजायबघर में एक से एक बिंदास, खड़ूस, राप्चिक और झंडू शब्दों की जो व्याख्या यहां मिलेगी वो दूसरे शब्दकोष में कहां. इसी तरह शरद कोकास का ब्लॉग ‘ना जादू ना टोना’ अंधविश्वास, भ्रांतियों और जादू-टोना करने वाले ओझा गुनिया का धंधा चौपट करने पर तुला है. आप ब्लॉगरों में जैकाल (सियार नहीं, जैक ऑफ ऑल) हैं तो कुछ नही होने वाला. कद्दू तोरई और बकरी पर लिखने से कुछ नहीं होगा. कुछ स्पेशल करिए और बनिए भौकाली.

8/21/10

‘लफंगे’ परिन्दे



ब्लॉगरी के बाजीगरों के करतब देख ये कहावत याद आती है- गए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास. ब्लॉगर की प्रोफाइल में झांकना ही पड़ता है कि आखिर इस मदारी की असलियत क्या है. कई टॉप हिन्दी ब्लॉगरों की प्रोफाइल देखी तो यही कहावत याद आने लगी. इंसान बनना कुछ चाहता है और बन जाता है कुछ और. कई दुर्दांत साइंटिस्ट, इंजीनियर, डाक्टर, गणितबाज और टेक्नोक्रेट्स के ब्लॉग देखिए. ये जिस तरह से हिन्दी में लिखते हैं उससे लगता है कोई साहित्यकार, कोई संस्कृताचार्य तो कोई ज्योतिषाचार्य और भाषा शास्त्री जरूर होगा. जैसे रवि रतलामी को ही लें. पहली बार नाम सुना तो लगा कि रतलाम में नमकीन-सेव बेचने वाले कोई बड़े कारोबारी होंगे. जो गद्दी से लौटने के बाद मन बहलाने के लिए कुछ लिखते हैं. लेकिन पता चला पांच-पांच ब्लॉग हैं, रतलामी सेव की तरह पांच अलग-अलग फ्लेवर वाले. चुपके से उनकी प्रोफाइल पर नजर डाली तो ये तो हार्डवेयर और साफ्वेयर दोनों के धुरंधर निकले. इसी तरह ज्ञानदत्त पांडे इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पढ़ कर रेलगाड़ी की रेलमपेल में फंसे-फंसे किसी गुरुकुल के आचार्य की तरह गंगा तीरे ज्ञान की गंगा बहा रहे हैं. शिवकुमार मिश्र चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं लेकिनअपने ब्लॉग में मनी मैटर और वाणिज्य-व्यापार की बातें कम व्यंगबाण ज्यादा छोड़ते हैं. गिरिजेश राव, प्रवीण पांडे, अभिषेक ओझा, स्तुति पांडे, कितने नाम गिनाऊं, ऐसे साइंटिस्ट-इंजीनियर और टेक्नोक्रेट्स की हिन्दी ब्लॉग जगत में भरमार है. यहां पंकज शर्मा जैसे मैनेजमेंट गुरू भी हैं जो हैं तो बुजुर्ग लेकिन उनकी कलम में टीनएजर्स वाले लटके-झटके है. यहां मनीष कुमार जैसे बिजली बनाने वाले इंजीनियर भी हैं. उनकी कविताओं, गजल और शायरी पढ़ शरीर में करंट दौडऩे लगता है. उनका शौक है लफंगे परिदों की तरह घूमना.
इन सबकी प्रोफाइल देख मुझे मिस्टर क्वात्रा याद आने लगते हैं. मि. क्वात्रा नाम के एक सीनियर आर्किटेक्ट पड़ोस में रहते थे. उनकी ख्याति अपने प्रोफेशन में कम कुंडली बांचने में ज्यादा थी. वो कहा करते थे कि हर इंसान में कुछ गॉड गिफ्टेड टैलेंट होती है और उनके हॉरस्कोप में ग्रह दशा इस ओर इशारा भी करती है. बस जरूरत है इसे पहचानने की. सो मैं भी पहुंचा अपना कुंडली लेकर. हाथ जोड़ कहा, हे आर्किटेक्टाचार्य कृपया इस ‘इमारत’ की अंधेरी कोठरियों पर अपने दिव्य चक्षु से प्रकाश डालें. उन्होंने हॉरस्कोप को ध्यान से देखा. फिर बोले, घोर अनर्थ. मैं डर गया कि कहीं ये हॉरस्कोप देख कोई हॉरर स्टोरी तो नहीं सुनाने जा रहे. वो बोले, आपको साइंटिस्ट होना चाहिए था. मैंने कहा, प्रभू इच्छा तो फौजी बनने की थी, अब देर हो चुकी है अगली बार देखा जाएगा. वैसे सपने तो अब भी आते हैं कि आर्मी सर्विस सेलेक्शन बोर्ड में घूम रहा हूं लफंगे परिंदो की तरह. इन ब्लॉगर्स में भी मुझे कोई घूमता दिखता है ऐसे ही परिंदो की तरह.
(जैसा आई नेक्स्ट में लिखा)

8/8/10

झंडुओं का बाम



दो गाने टाप पर बाकी सब झंडू. एक महंगाई डायन दूसरा मुन्नी डार्लिंग का झंडूबाम. झंडू खुदा की नियामत है, ऊपर वाले का नायाब तोहफा. कब कौन झंडू हो जाए कहा नहीं जा सकता. पहले दर्द भगाने वाला एक ही बाम होता था अमृतांजन लेकिन झंडूबाम ने बाकी सब बामों की वाट लगा दी है. झ़ंडुओं का दर्द समझना है तो बनारसियों से पूछिए. अब झंडूबाम की ठंडी-ठंडी जलन सभी झंडुओं को महसूस होने लगी है. ‘मलाई-का’ भाभी ने ठुमके लगा-लगा के जिस तरह अपने कूल्हे पर झंडूबाम मला है उसकी चुनचुनाहट उनको भी हो रही है जिनकी बैटरी डाउन हो चली थी. फिलिम आने से पहले ही गाना सुपरहिट. लेकिन डर तो ये लग रहा है कि ये झंडूबाम सल्लू भाई का काम ना लगा दे. वैसे झंडू शब्द सबसे पहले बनारस में सुना था. तब सिंगल डिजिट वाला एक रुपए का डेली लॉटरी टिकट उसी तरह पॉपुलर था जैसे आजकल गुटखे का पाउच. उस समय दिन में कई बार हल्ला होता था...का राजा दुग्गी निकलल कि छक्का? नंबर मैच कर गया तो आवाज आती थी... जीया राजा बनारस.. और जिनकी नहीं निकली वो ...का हो ..हो गइ-ल झंडू.. यानी बर्बाद.
कब कौन सा शब्द चलन में आ जाए कहा नहीं जा सकता. जैसे एक शब्द है डेंगू. दूसरों का पता नहीं लेकिन मीडिया में ‘डेंगू’ शब्द का खास मतलब होता है-लीचड़. अगर किसी का फीडबैक लेते समय किसी ने कह दिया कि अबे वो तो ‘डेंगू’ है, तो समझिए उसका लग गया काम.
इसी तरह पहले कुछ शब्द थे जिसका प्रयोग सिर्फ लौंडे-लपाड़ी करते थे अब तो लड़कियां भी धड़ल्ले से कर रही हैं. ये शब्द हैं ‘बजाना’ और ‘फाडऩा’. अब तो कब कौन लडक़ी किसकी बजा दे या फाड़ दे पता नही. टीवी रियलिटी शो में तो बात-बात पर महिला एंकर और जज एक- दूसरे की बजा और फाड़ रहे हैं. इन शब्दों का असली अर्थ पता चलने पर बड़ों-बड़ों की बज जाएगी. शायद तब वो बजाने से बाज आएंगे. लेकिन ये शब्द लोगों की जुबान पर इतने चढ़ गए हैं कि सुन कर किसी की नहीं फटती. लेकिन जब से मुन्नी ने झंडूबाम कूल्हे पर मलना शुरू किया है दूसरे गानों की बज गई है.खतरा तो इस बात का है कि दबंगई में मुन्नी मल कर निकल जाए और सल्लू झंडू ना बन जाए. सोच सोच कर उनके फैंस की फट रही है. फिलहाल आप झंडूबाम की चुनचुनाहट का मजा लें.

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