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10/16/14

मौसम है सेल्फियाना..

 जिसको देखो वही सेल्फी ले रहा है आजकल। जब पहली बार ‘सेल्फी’ का नाम सुना तो लगा जैसे यह कुल्फी टाइप की कोई चीज है। बाद में पता चला स्मार्टफोन की बर्फी है यह सेल्फी। लोग बार-बार इसका स्वाद चख रहे हैं और चखा रहे हैं। पपीता, खरबुज्जा, लौकी, कद्दू, सेब, सब एक भाव। सब आत्ममुग्‍ध हैं। टीन एज में आईने के सामने स्टाइल मारने में बड़ा मजा आता था अलग अलग एंगल से। लेकिन वो अदा और उसका मजा अब सेल्फी में आने लगा है-एक बार देखो, हजार बार देखो कि देखने की चीज हूं मैं .. स्टाइल में। वैसे पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से लोग ज्यादा सेल्फियाना हो गए हैं। वोट दिया और सेल्फी लिया। समझ नहीं आता कि वो अपनी बत्तीसी दिखाना चाहते हैं या टेढ़ी-मेढ़ी उंगली में लगी वोट की स्याही । मैंने भी वोट दिया और अपने पुराने सिंगल कैमरा फोन से सेल्फी लेने की कोशिश की। लेकिन रिजल्ट अच्छा नहीं आया। कैमरे का एंगल थोड़ा बिगड़ गया सो चेहरा पपीते की तरह और उंगली ककड़ी जैसी सामने आई।
      सोचिए जब कैमरा या स्मार्टफोन नहीं थे तब लोगों का काम कैसे चलता होगा। क्योकि समय के साथ इंसान ने प्रगति की है लेकिन हमारी मूल सोच(बेसिक इंस्टिंक्ट) में बहुत बदलाव नहीं आया है। जब कैमरे नहीं थे तब लोग, चित्रकार के सामने सज संवर कर बैठ जाते थे और वो कैनवास पर उनकी तस्वीर उतारता था (जैसे टाइटेनिक में हीरो के सामने हीराइन ने बैठ कर स्केच बनाया था)। लोग तेजी से सेल्फियाना हो रहे हैं। डर लगता है कि कहीं कोई प्राण न्योछावर न कर दे, जैसा कि जैसा कि प्राचीन ग्रीस में नारसिसस के साथ हुआ था। कहा जाता है कि नारसिसस(नरगिस) नाम का खूबसूरत युवक पानी में अपना प्रतिबिंब देख, उस पर इतना मोहित हुआ कि उसका हार्ट फेल हो गया था। लेकिन लगता है ‘सेल्फियाना’ बुखार भी जल्द ही उतर जाएगा। पहले सेल्फी केवल टेक सैवी अपर क्लास का शगल माना जाता था। अब कबाड़ी और खोमचे वाले भी अखबार और करैला तोलते हुए वाट्-एप और फेसबुक पर सेल्फी फेंक रहे हैं और जो ‘खास’ चीज आम हो जाए उस पर कोई जान क्यों देगा।

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