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1/28/09
ये एक्स फैक्टर क्या होता है
लुकिंग सेक्सी, लुकिंग यंग. जिसको देखो सेक्सी और यंग होने की बात कर रहा है. पहले तो लोग सेक्स शब्द जुबान पर लाने में भी संकोच करते थे. और अब सेक्स का भाई एक्स भी आ गया है. यंग बोले तो सिक्स पैक ऐब्स, मोर यंग बोले तो एट पैक ऐब्स, स्लिम, जिरो फिगर, नो ग्रे हेयर, कूल, रिंकल फ्री फेस और एक्स फैक्टर. यूथ यानी एनर्जी, फैशन, पैशन, जुनून. यूथ माने सिक्सटीन प्लस, ट्वेंटी प्लस और हद से हद थर्टी प्लस. जो लोग लाइफ स्पान की इस हद को पार कर चुके हैं उनके लिए क्या? उनके लिए है यूथफुल होना. यूथफुल होने की कोई बंदिश नहीं. यानी जो अच्छा लगे करो, जो जी में आए करो, जी खोल कर करो, जब तक चाहे करो. मुझे नहीं लगता इससे दूसरों को कोई परेशानी होती है. आप जि़ंदगी भर युवा बने रहिए, किसने रोका है. आप समय से पहले बुजुर्गों की तरह बिहेव करने लगिए, कौन रोकेगा. रोकने और टोकने से कुछ होता है भला. गुननेे-बुनने, सुनने-सुनाने, एज और आइडिया में तालमेल बैठाने में लगे रहेंगे तो समय से पहले ही ओल्ड हो जाएंगे, लाइफ की हाफ सेंचुरी के बाद ही बोल्ड हो जाएंगे. ये थॉट हमेशा एनर्जी से भर देता है कि यंगस्टर्स को बिग बी आज भी भी फेसिनेट करते हैं. जीन हैकमेन, चार्स ब्रॉनसन, ब्रूस विलिस जैसे एक्टर आज भी युवाओं की पसंद हैं. इनके सिक्स पैक ऐब्स को नहीं, एक्स फैक्टर को पहचानिए. आपने सोचा है कि यूथफुल थिंकिंग के इस खेल में केमिकल लोचा है. यस, यूथफुल थाट का डोज देने वाला केमिकल तो आपके और हमारे मगज में बैठा है. मैं इसे रुमानियत कहता हूं. साइंस में इस केमिकल का नाम है डोपामिन. और मेरा मानना है कि रूमानियत, खुशनुमा एहसास, कुछ-कुछ होने की फीलिंग है 'एक्सÓ फैक्टर.
जो एक्ट्रेस आपको टीन एज में सेक्सी लगती थी वह फॉट्टी प्लस या फिप्टी प्लस वालों को सेक्सी क्यों नहीं लगनी चाहिए. ये नियम मेन और वुमन, दोनों पर एक ही तरह से लागू होते हैं. किसी पार्क, मार्केट, में किसी लेडी या गर्ल को
देखते ही आपके आंखों में फैंटसी तैर जाती है या रुमानियत का सुरूर छाने लगता है, आपको बीते दिनों की कोई कहानी, कोई साथी कोई, शरारत याद आ जाती है, आप खुश हो जाते हैं, तो इसमें हर्ज ही क्या है. किसी में एक्सÓ फैक्टर नजर आता है तो कहे का टेंशन. बस अपने प्रति ईमानदार रहिए और ध्यान रखिए कि आपका बिहेवियर और फैंटसी किसी को हर्ट न करे, इसमें ऐब्सीनिटी न हो. आजमा कर देख लीजिए यही है हेल्दी फीलिंग्स का एक्स फैक्टर, जो आपको हमेशा तरोताजा रखता है. बिल्कुल मस्त. यह बोर नहीं होने देता. यही फार्मूला सब पर लागू होता है. बचपन से ट्रेन पर बैठना और दे ाना अच्छा लगता था, अब भी लगता है. एक दिन रेलवे क्रासिंग पर दोस्त से कहा यार पांच मिनट रुक जाओ, एक ट्रेन दे ा लूं. उसने अजीब नजरों से घूरा. दोस्त शायद मुझसे उम्र में छोटा था लेकिन उसकी आंखों के पीछे बुजुर्गियत कहीं जयादा नजर आ रही थी, वैसी ही जैसी उम्र बढऩे के साथ बालों पर नजर आती है. और मेरे अंदर डोपामिन हिलोरे मार रहा था. तभी धड़धड़ाती हुई ट्रेन निकल गई. मेरी धडक़न थोड़ी बढ़ी हुई थी-वाह! क्या स्पीड थी. ये फीलिंग वैसी ही थी जैसी कोई खूबसूरत सी लडक़ी अचानक सामने आ जाए और लगे वॉव! ये आपकी फीलिंग्स हैं इसे कोई नहीं छीन सकता. तो सोच क्या रहे हैं रुमानियत में गोते लगाइए और ईमानदारी से बताइए कि किसी को देख कर आपके मन में कुछ कुछ होता है. नहीं होता तो आपमें कुछ केमिकल लोचा है. मेरी डोपामिन की डोज तो ठीक काम कर रही है. अच्छा फिर मिलते हैं.
1/25/09
स्लम, शिट, स्मेल...जय हो
आई एम प्राउड ऑफ स्लमडॉग मिलिनेयर, जय हो! आई एम प्राउड आफ इंडियन सिनेमा, जय हो! एक सच्चे भारतीय की तरह मुझे भी खुशी हो रही है कि भारतीय परिवेश पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर ने गोलडेन ग्लोब अवार्ड जीत लिया. एक पेट्रियाटिक इंडियन की तरह इस खबर से और एक्साइटेड हूं कि ऑस्कर अवार्ड की दस कैटेगरीज के लिए इस फिल्म को नॉमिनेट किया गया है और इसमें तीन कैटेगरीज में एआर रहमान है. कैसा संयोग है कि रिपब्लिक डे मना रहे हैं और किसी भारतीय संगीतकार का डंका ऑस्कर अवाडर्स के लिए बज रहा है. ये देख कर अच्छा महसूस हो रहा है मीडिया में २६/११ की खौफनाक खबरों के बाद नए साल में कुछ अच्छी खबरें आ रही हैं. इंडियन मीडिया में अब स्लमडॉग् मिलिनेयर की धूम मची हुई है. अखबार-टीवी पर इसकी जय हो रही है. होनी भी चाहिए. लेकिन एक बात थोडी खटकती है. देश में अच्छी फित्म बनाने वालों की कमी नहीं है. रंग दे बसंती, चक दे इंडिया, तारे जमीं पर, गज़नी.. इधर बीच कई अच्छी फिल्में आईं. इनके रिलीज होने से पहले इन पर काफी चर्चा हुई, शोर हुआ हर कोई जान गया कि फलां फिल्म बड़ी जोरदार. इनमें से कुछ ने ऑस्कर में नॉमिनेशन के लिए दस्तक भी दी लेकिन सफलता नहीं मिली. लेकिन स्लमडॉग मिलिनेयर एक बहुत ही शानदार फिल्म है, इसका म्यूजिक लाजवाब है, इसका पता हमें बाहर से तब चलता है विदेशों में इसकी जय होती है. ठीक है फिल्म वल्र्ड के लोग और क्रिटिक इसके बारे में जानते होंगे लेकिन आम आदमी को इसके बारें में बहुत नहीं पता था. न इंडियन मीडिया में इसका कोई शोर था. लोगों का ध्यान तब गया जब इसने गोल्डेन ग्लोब अवार्ड जीता. मैंने स्लमडॉग मिलिनेयर देखी, एक फिल्म की तरह बहुत अच्छी लगी. कुछ लोगों अच्छा नहीं लगा कि भारत के स्लम, शिट, स्मेल को सिल्वर फ्वॉयल में लपेट कर वाहवाही लूटी जा रही है. फिल्म देखते समय मुझे कभी अमिताभ, कभी दीवार, कभी कभी जैकी श्राफ याद आ रहे थे और तो कभी मोहल्ले की बमपुलिस (सुलभ शौचालय का पुराना मॉडल...अमिताभ बच्चन ने यह नाम जरूर सुना होगा) के बाहर क्रिकेट खेलते बच्चे. मुझे तो फिल्म में गड़बड़ नहीं दिखी. बाकी तो लोकतंत्र है. यह आप पर है कि स्लम के स्मेलिंग शिट, और गारबेज पर नाक दबा कर निकल जाएं या उसके कमपोस्ट में कमल खिलाने का जतन करें.
1/18/09
बुढ़ऊ खेलें कम्प्यूटर
कभी करें मेल
कभी मैसेज फेल
कोई मियामिट्ठू
कोई बजरबट्ट
कंमेंट करे दीदी और भैया
पढ़ पढ़ मगन होएं बुढ़ऊ
धाय धाय लें बलैया
क्या लिख दिया हाय दैया.
सो सीखने की कोई उम्र नहीं होती और न सीखने के दस बहाने होते हैं. अब कमप्यूटर को ही लें. ये अब हमारी लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन चुके हैं. अब ये हमारी जरूरत हैं. घर में और बाहर भी. न्यू जेनरेशन कम्प्यूटर एज में ही पल बढ़ रही है. उसके लिए कम्प्यूटर खिलवाड़ है लेकिन ओल्डर जेनरेश में एक बड़े चंक के लिए किसी खलनायक से कम नहीं. उनके पास रेडीमेड बहाना है- अरे अब इस एज में अब कहां कम्प्यूटर सीखें. लेकिन डे टु डे लाइफ में बार-बार ऐसा कुछ होता है कि उनके लिए सिजुएशन थोड़ी एंबेरेसिंग हो जाती है. किसी ऑफि़स में जाते हैं, कोई फार्म भरते हैं, कोई लेटर लिखते हैं तो उनसे कहा जाता है अपना ई-मेल एड्रेस बताइए. साहब बगले झांकने लगते हैं. फिर ऐसे लोग कम्प्यूटर सीख आपरेट करना सीख जाते हैं. अपनी ई-मेल आईडी शान से विजिटिंग कार्ड पर छवाते हैं. दोस्तों से कहते फिरते हैं फलां चीज नेट पर दखी? नहीं देखी तो मैं मेल कर दूंगा. अब उन्हें ए-थ्री, ए-फोर, पेन ड्राइव, जीबी-एमबी, रैम का मतलब पता है. वे हैकिंग की बात करते हैं, क प्यूटर वायरस की बात करते हैं. कुछ लोग कह सकते हैं कि क प्यूटर सैवी कहलाना फैशन है जैसे स्टाइलिश मोबाइल सेट, आईपॉड और दूसरे गैजेट्स लिए गजनी स्टाइल में सिर घुटाकर घूमते यंगस्टर्स माल्स से लेकर मोहल्लों तक में मिल जाएंगे. लेकिन नहीं, कम्प्यूटर अब जरूरत है. इसीलिए तो ढेर सारे लोग हैं जिन्होंने ओल्डर जेनरेशन का होते हुए भी कम्प्युटराइजेशन की गति से तालमेल बैठा लिया है. इसी लिए तो मेट्रोज से शुरू हुआ कम्प्यूटराइजेशन अब छोटे टाउन्स के गली-मोहल्लों तक पहुंच चुका है, मल्टी नेशनल कंपनीज से चला कम्प्यूटर अब यूनिसपैलिटी के दफ्तरों तक में घुस चुका है. भले ही बिजली दफ्तर या नगर पालिका का इम्प्लाई अभी कंप्यूटर पर फर्राटे से काम नहीं कर पा रहा है लेकिन वो काम कर रहा है, बहाना नहीं बना रहा, यह क्या कम है?कम्प्यूटर की बात चले और ब्लॉगिंग पर बात न हो, ये भला कैसे हो सकता है. ब्लागिंग का बुखार भी धीरे-धीरे चढ़ा. शुरू में ब्लॉंिगंग बेकार का शगल माना जाता था. जिन लोगों को इसके बारे में अधिक नहीं पता था या जिन्हें ब्लॉग लिखना नहीं आता था, वे इसे 'टाइमपासÓ या 'टाइम वेस्टÓ मानते थे. लेकिन जब अमिताभ बच्चन, आमिर खान जैसे सेलेब्रिटी और कई जानेमाने इंटेलैक्चुअल्स ने ब्लागिंग के बवंडर में अपने रथ दौड़ा दिए तब से लोग इसे सीरियसली लेने लगे. यह ऐसा ई-लिटरेचर है जिसमें हम अपने समय और समाज का रिफ्लेक्शन देख सकते हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं और जो ओपीनियन जेनरेट करते हैं. जिस तरह तरह लोग मनपसंद किताबे पढ़तें हैं उसी तरह किस ब्लॉग को हम पढऩा या उसपर कमेंट करना चाहते हैं, ये हमारी च्वाइस है. ये देखना सुखद है कि इस ई-प्लेटफार्म पर बड़े बड़े खुर्राट और नौसिखिए, सब हाथ आजमा रहे हैं. अब ये आप पर है कि चाहे इसका लुत्फ लीजिए या कोई बहाना खोजिए.
1/16/09
सोमालिया के पाइरेट्स
आह और आउच्
कुछ साल पहले तक न टीआरपी का नाम सुना था और न ही पता था कि यह क्या बला है. अब बात बात पर इसका जिक्र होता है क्योंकि आजकल रेटिंग का जमाना है. सफलता-असफलता, पॉपुलैरिटी, पॉवर, इमेज, क्वालिटी, सब का आकलन रेटिंग से होता है. इलेक्ट्रानिक सामान हो या चैनल, सबसे पहले ध्यान उसकी रेटिंग पर जाता. नई मूवी रिलीज होते ही सबसे पहले लोग उसकी स्टार रेटिंग पर नजर डालते हैं. आजकल तो इंसानों की भी रेटिंग होने लगी है. हां, इसका पैमाना थोड़ा अलग है. इंसान की रेटिंग खासतौर से दशहरा, दीवाली, ईद, क्रिसमस, न्यू इयर या बर्थडे पर नापी जाती हैं. अगर आपके पास कार्ड्स, कैलेंडर, डायरी, गिफ्ट, मेल और मैसेज ज्यादा आते हैं तो समझ लीजिए कि आप अच्छी पोजीशन पर हैं, एटलीस्ट लोगों की नजर में. इत्तफाक से कुछ दिन पहले ही न्यू ईयर में प्रवेश किया है. इसी बहाने अपनी रेटिंग (सोकॉल्ड) का भी अंदाज लगाने की कोशिश की. और रेटिंग मीटर अभी भी एक्टिव है. हालांकि मंदी, रेसेशन के चलते इस बार रेटिंग मीटर ग्राफ के केवल दो पिलर- मेल और मैसेज ही आसमान छू रहे हैं. डायरी, कैलेंडर और काड्र्स का ग्राफ काफी नीचे है. मंदी की मार में कॉस्ट कटिंग और 'हींग न फिटकिरी और रंग चोखाÓ का फारमूला सबसे चोखा है. तो आप भी मेल और मैसेज के आधार पर अपनी रेटिंग कर सकते हैं कि आप कितने पावरफुल और पॉपुलर हैं.
1/14/09
बहाने खुश होने के
बहुत दिन हो गए हो गए फीलगुड का जिक्र नहीं हुआ। इस लिए इस पर बात करनी जरूरी है. केवल खुश होने के लिए ख्याली फीलगुड नहीं, वास्तव में गुड-गुड फील करने के कुछ वैलिड रीजंस हैं. रेसेशन या इकोनॉमिक स्लोडाउन के बीच कई ऐसे मौके आए जब हमे खुश होना चाहिए था लेकिन फीलगुड का हमें एहसास नहीं हुआ. उस पर चर्चा भी नहीं हुई. पेट्रोल के दाम घटे, देश की प्रमुख एअरलाइंस ने एअर फेयर घटाने की घोषणा की, बैंको ने होमलोन्स सस्ते किए, बिल्डंग मटीरियल्स सस्ते हुए, यहां तक कि कारें भी सस्ती हो गईं. आजकल होटल्स में भी मारा-मारी नहीं है. उनमें आधे दामों पर रुका जा सकता है. अब फिर खबर गर्म है कि तेल के दाम एक बार और कम हो सकते हैं. यह भी कहा जा रहा है कि रेसेशन की शॉक वेव्स को इंडिया कहीं बेतर ढंग से झेल रहा है. विदेशी कंपनियों को जाने दें, इंडियन कंपनीज में रिट्रेंचमेंट की तलवार कम, रैशनल एक्सपेंडीचर की हवा ज्यादा बह रही है. इंडियन्स मेजोरिटी को अभी भी ट्रेडिशनल सूत्र वाक्य 'सेव समथिंग फार हार्ड टाइम्स याद है लेकिन वे इस हार्ड अन्र्ड मनी से एंज्वाय करना भी खूब जानते हैं. फील लगुड का एक और बड़ा कारण है- इंडियंस में सेविंग टेंडेंसी के एनकरेजिंग आंकड़े. शेयर मार्केट भले ही क्रैश कर गए हों लेकिन पोस्ट ऑफिसों और बैंकों के आंकड़े बताते हैं कि आम इंडियंस ने सेविंग ग्राफ को बढ़ाया ही है. ये आंकड़े मेट्रोज के नहीं बल्कि मीडियम साइज और स्मॉल सिटीज के हैं. वे एक तरफ सुरक्षित भविष्य के लिए मनी सेव कर रहे हैं रहे और इस मनी से सेलिब्रेट भी कर रहे हैं. गौर करने की बात है कि लोग अब सेविंग करने के साथ खर्च करने के गुर और बेहतर ढंग से सीख गए हैं. शहरों के लोगों का मूलमंत्र है कि जम कर सेव करो और और खुल कर सेलिब्रेट करो. लोगों ने प्रापर्टी, गोल्ड, म्युचअल फंड, बैंक एफडी, पीपीएफ एकाउंट में जमकर इन्वेस्टमेंट किया है और कर रहे हैं. इन सब सेविंग टेंडेंसीज के बावजदू क्लब, रिसार्ट, वीकेंड पार्टी और और लग्जरी कारें भी इनकी लाइफ स्टाइल का हिस्सा हैं. आम शहरी का रुझान अभी भी कम मुनाफे वाले लेकिन सेफ इनवेंस्टमेंट की ओर है. इसी लिए इनके सेविंग आप्शन डायवर्सिफाइड हैं. से सब पैसा शेयरों, म्यूचुअलफंड, डाकघर या बैंकों में नहीं डालते. लोगों ने थोड़ी थोड़ी पूंजी इनमें लगा रखी है. इससे रिस्क फैक्टर कम हो जाता है. इसी लिए तो मंदी में आम इंडियन मस्त नहीं तो त्रस्त भी नहीं है. क्या यह फीलगुड नहीं? और अगर आप शेयर में कुछ लगाने ही चाहते हैं तो इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा. इस समय कुछ बहुत बड़ी और अच्छी कंपनियों के शेयर उनकी भौतिक परिसंपदा के मूल्य से भी कम मूल्य पर उपलब्ध हैं. इनवेस्टमेंट का ऐसा मौका कम ही मिलता है.
1/11/09
कहा जाता है कि खुशदिल लोग जल्दी बूढ़े नहीं होते. फिजिकली और मेंटली, दोनो. इसी तरह जीवन के प्रति सकारात्मक नजरिया और पॉजिटिव थिंकिंग, जिंदगी के सफर को सहज और सरल बनाने में मदद करती है, लाख मुश्किलों, अड़चनों और अनसर्टेनिटी के बावजूद. लेकिन अगर जीवन में खुशियां ही खुशियां हों या फिर एकरूपता आ जाए तो इससे भी ऊब पैदा होती है. एकरूपता से ऊबना हमारा स्वभाव है. यह हर क्षेत्र में लागू होता है. इंटरटेनमेंट के क्षेत्र में भी. जो बातें आज मनोरंजक लगती हैं या इंटरेस्ट जगाती हैं, लगातार परोसे जाने पर वही उबाऊ हो जाती हैं. टीवी के प्रमुख चैनलों पर दिखाए जा रहे कई लोकप्रिय सीरियलोंं के साथ भी यही हो रहा है. जो सीरियल पहले चैनलों की टीआरपी के ध्वजवाहक थे, अब लोकप्रियता की निचली पायदान पर खिसक रहे हंै. क्यूंकि सास भी कभी बहू थी, कहानी घर घर की और कुमकुम जैसे सीरियलों की लोकप्रियता अब पहले जैसी नहीं रह गई है. यहां तक तो गनीमत हैं. लेकिन जब ये समाज को बीमार करने लगें तो हमें एलर्ट हो जाना चाहिए. कई शहरों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लव ट्रायंगल, एकस्ट्रा मैरिटल अफेयर, बिट्रेयल, कांसपिरेसी, अंधविश्वास और विश्वासघात के मसालों से भरपूर ये सीरियल समाज में निगेटिव थाट्स को बढ़ा रहे हंै. महिलाएं इनसे विशेष रूप से प्रभावित हो रही हैं. इन सीरियलों को लगातार देखने वाली महिलाओं में डिप्रेशन के मामले बढ़ रहे हैं. ये सीरियल अब न केवल बोर कर रहे हैं बल्कि तनाव भी बढ़ा रहे हैं. डाक्टर भी इस बात को स्वीकारते हैं. वे सास-बहू के झगड़ों, अनैतिक रिश्तों और भूत-प्रेत वाले हॉरर सीरियलों को छोड़ कर हेल्दी ह्यूमर से कार्यक्रम देखने की सलाह देते हैं. लखनऊ, आगरा रांची और पटना जैसे शहरों में हर महीने औसतन दो से चार ऐसे मामले आ रहे हैं जिनमें इस तरह के सीरियल देखने वाली महिला डिप्रेशन को शिकार हो गईं. मनोचिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकोंके अनुसार सीरियल देखने वाला व्यक्ति उसके किरदार से खुद को जोड़ लेता है और उसी तरह सोचने लगता है. इससे शरीर में कई तरह के रासायनिक बदलाव होने लगते हैं जा ेधीरे-धीरे तनाव का रूप ले लेते हैं. इसी तरह आत्मा और पुनर्जन्म के की थीम वाले सीरियल देख हमारे मन में दकियानूसी विचार आने लगते हैं.
1/7/09
ऐसी ही होती हैं बेटियां
ऐसी ही होती हैं बेटियां
फ्राइडे को टीवी के प्राइम टाइम पर यूं ही चैनलों के बीच टहल रहा था. टॉप चैनल्स पर टॉप क्लास के सीरियल्स और रियलिटी शोज कहीं बालिका वधू, कहीं कहीं जुनून, कहीं इंडियन आइडल तो कहीं एक खिलाड़ी एक हसीना, किसी चैनल पर वायस आफ इंडिया चल रहा था, किसी पर सारेगामापा की तरंगें थीं, तो कहीं बिग बॉस का जलवा. प्राइम टाइम में सभी चैनल्स अपना बेस्ट झोंक देते हैं. इसलिए इन शो की टाइमिंग एक होती है या उनमें ओवरलैपिंग होती. एक ही समय में उन सभी शोज को इंज्वॉय करना अपने में चुनौती है. इसमें महारत या तो मुझे हासिल है या मेरी छोटी बेटी को. मेरी बेटी तो रोज ही परिवार की नजरें बचा कर रिमोट को चैनल्स पर एक-दो बार भांज देती है. हां, मैं यह काम सिर्फ फ्राइडे को ही कर पाता हूं क्योंकि उस दिन मेरा संडे होता है यानी वीकिली ऑफ। सो आफ के दिन प्राइम टाइम में एक चैनल पर रियलिटी शो में टॉप contestant चार लड़कियों को देख रुक गया। एक अच्छी सी लड़की अच्छा सा गाना गा रही थी. वह मध्य प्रदेश के छोटे शहर रीवां से थी. उसने गजब के confidence के साथ कहा, टैलेंट है तो फर्क नही पड़ता कि वह छोटे शहर से है या बड़े. दूसरी टॉप contestant यूपी के फैजाबाद से थी. उसने भी बड़े गर्व से कहा, रियलिटी शो में इस बार लड़की ही होगी चैंपियन, व्हाई शुड ब्वाय हैव आल द फन? मजा आ गया, लगा कि आजकल ऐसी ही होती हैं बेटियां. कभी तितलियों सी, कभी नटखट गुडिय़ों सी, कभी छुईमुई की पत्तियों सी तो कभी शैतान दोस्त और कभी गंभीर स्त्रियों सी लगती हैं बेटियां। परिवार का स्पंदन और रिश्तों का बंधन होती हैं बेटियां। मुझे न जाने क्यों अच्छी लगती हैं बेटियां। लोगों को बोझ लगती होंगी, मुझे तो भीनी- भीनी सुगंध सी लगती हैं बेटियां।