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6/14/16

का.. बे चिल कर रहे हो का?


बात बहुत पुरानी नहीं है। यही कोई दो- ढाई दशक पहले, अंगरेजी बोलने वाला अपने को नवाब समझता था भले ही लिखने में बहुत मिस्टेक करता हो। लेकिन ढेर सारे ऐसे लोग थे जो ग्रामेटिकली करेक्ट अंगरेजी लिखते लेकिन पब्लिक में बोलने में लटपटा जाते। रैपिडेक्स भी उनका हौसला नहीं बढ़ा सका। भला हो इंटरनेट, सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन का, अंगरेजी का अब सोशलाइजेशन हो गया है। 
अब सब धान बाइस पसेरी।  एफबी, वाट्सऐप पर जिसे देखो अंगरेजी ढेले हुए है। नुक्कड़ पर बरफ बेचने वाला बबलू भी और चौराहे पर गुटखा बेचने वाला गुड्डïू भी। बस कम्युनिकेट हो जाए कि आप कहना क्या चाहते हैं, ग्रामर भले ही गलत हो.? हू केयर्स। जस्ट चिल यार टाइप। हाथ में स्मार्ट फोन (भले ही चीनी ब्रांड), दोनों कान में ठेपी, फटही जींस उसके पीछे खोंसा हुआ माबाइल, खोपड़ी के बचे बाल को बार-बार खड़ा करने का असफल प्रयास करते हाथ, बिना मोजे का कैनवस का जूता। सब लगे हैं कूल डूड बनने और दिखने की कोशिश में।  इन्हें देख अपको लगेगा वॉव..क्या कूल हैंं। लेकिन तभी देसी लहजे में सवाल दागेगा - का.. बे चिल कर रहे हो का? नहीं यार एक फिलिम देख रहे .. क्या माइंड ब्लोइंग फिलिम है गुरू। 
कूल डूड सा दिखने और कडक़ अंगरेजी तोडऩे वाला यह लौंडा इंटर फेल हो तो अचरज नहीं। ऐसे लोग मोमो या चाऊमीन में चिली सॉस कस के पेलते हैं फिर सुबह घंटा भर कमोड पर चिलकते हुए चिल करते (निकालते) हैं। गुद्दी (खोपड़ी के पीछे का हिस्सा) घुटाए और आगे के बाल को जेल लगा कर खड़ा किए डूड इसी तरह की बात करते कहीं भी मिल जाएंगे। लोअर, मिडिल और अपर सब क्लास में यही हाल। पूरा समाजवाद है। अपर क्लास का डूड महंगे पार्लर में गुद्दी घुटवाता है तो गरीब डूड अपनी गल्ली के सैलून में खोपड़ी पर चाइना मशीन चलवाता है। 
एक जमाना था जब लोग बाल को सलीके से संवारने के लिए जेब में कंघी रखते थे। अब कैजुअल दिखने के लिए बाल बार बार बिगाड़ते चलते हैं, अपलोड- डाउनलोड टाइप।  वाई-फाई स्पीड  बढिय़ा है तो चिल करते नहीं है नही तो चीखते हैं। और हम चिलचिलाती धूप में चिल करते इन कूल डूड को देख बोल ही देते हैं .. वॉव.. माइंड ब्लोइंग..!  

5/29/16

जवान होता एक बूढ़ा घर..

मेरा ननिहाल।मिर्जापुर का यह घ्रर बूढ़ा होकर भी जवान है। काेई ढाई सौ साल पुराना। इसका ऊपरी कलेवर बदलता रहता लेकिन दिल वही पुराना वाला।  इस घर के आगे एक नीम का पेड़ हुुआ करता था। वो उम्र पूरी कर चला गया तो उसके बाद एक गुलमोहर  लहलहाता था इस घर के सामने। पीछे एक पोखरी थी ...भटवा की पोखरी..वोभी सूख गई।  पहले बाहर वाला गेट नहीं था, सिर्फ चबूतरा था।  ऊपर टिन शेड।                                                                                                    बगल में एक कूआं था। कूओं अब भी है लेकिन उसमें पानी नहीं। धमाचौकड़ी होती। थी। दलगिरिया की माई..बिल्लाड़ो बो, किलरू साव...बिस्सू ...सेठ,  गोबरहिया गच्च..भटवा की पोखरी,पातालतोड़ कुआं ...उफ..! कितने किस्से,कितनी यादें । पहले गर्मी की छुट्टी की मतलब होता था ननिहाल और ननिहाल का मतलब मिर्जापुर, मतलब मस्ती। रोज गंगा नहाते थे। गंगाजल पीकर आते फिर चार आने की शुद्ध घी की जलेबी खाते। अब न गंगाजी वैसी रहीं न जलेबी। जाने कहां गए वो लोग जो पा..लागी और राम भज...का जवाब जियत रहा बच्चा.. से देते थे।  वो दिन भी क्या दिन थे।

5/23/16

मैं हूं न..!
थोड़ी आस्था, थोड़ी जुबानी, आज सुनाता एक सच्ची कहानी। मेरा एक दोस्त है चंद्रशेखर। बड़ा गुणी। जी न्यूज में कई साल तक मंथन करता रहा। अचानक मन उचटा, नौकरी छोड़ जा बैठा संतों के चरणों में। पूरी तरह बाबा तो नहीं बना लेकिन आजकल बाबाओं पर डाक्यूमेंट्री बनाने की धुन सवार है। जुबान पर सरस्वती जेहन में श्याम, अब यही है उसका नया मुकाम। जब राधे-श्याम हैं तो गृहलक्ष्मी का क्या काम। सो किराए के घर में चंद्रशेखर अकेले ही रहता है। और साथ रहता है माखन चोर श्याम। वैसे एक-दो मोटे चूहे भी हैं साथ देने को। मठ, मंदिर, आश्रम जहां भी जाते माखनचोर श्याम की छोटी सी प्रतिमा हमेशा साथ रहती। एक दिन चंद्रशेखर ने श्याम से पूछ ही लिया.. तुमको साथ लिए घूमता, तुम हो भी या नहीं? श्याम कहां कुछ बोलने वाले थे..।
इसी बीच चंद्रशेखर कुछ दिनों के लिए बाबा के आश्रम गया हुआ था। इस बार श्याम को साथ नहीं ले गया, छोड़ गया था घर की रखवाली को। हालांकि घर में पूंजी के नाम पर तीन लाख का एक कैमरा, एक लाख का कंप्यूटर, लैपटाप और टीवी के अलावा कुछ खास नहीं था।
लेकिन एक रात सूने घर पर चोरों की नजर पड़ ही गई। चोर छत की जाली तोडऩे लगे। पड़ोसी को आहट हुई, उसने चुपके से देखा तो चार चोर जाली तोड़ छत पर पड़ी सीढ़ी लगा आंगन में उतर रहे थे। चोरों ने फटाफट कैमरा, कंप्यूटर सब बांध लिया था , बस पैसे की तलाश में थे। पड़ोसी चुपके से छत पर उतरा। उसने आंगन में लगी सीढ़ी खींच ली और शोर मचाया। पूरा मोहल्ल जमा हो गया। पुलिस भी आ गई । चोर फंस चुके थे। पुलिस घर में घुसी, चोरों की तलाश शुरू हुई। चारों उसी कमरे में बेड के नीचे दुबके मिले जहां श्याम विराजमान थे। चोरों को क्या पता था कि जिस घर में घुस रहे हैं वहां उनसे भी बड़ा एक चोर (माखनचोर)पहले से मौजूद है। एक चोर की सुताई होने लगी तो दार्शनिक अंदाज में बोला- साहेब हम तो झोपड़ी में सोअत रहे, इहां कैसे पहुंचे नहीं पता। चंद्रशेखर को अगले दिन सूचना दी गई। घर आकर देखा तो सारा सामन तहस नहस था। लेकिन श्याम अपनी जगह विराजमान थे.. वैसे ही शांत भाव से मुस्कराहते हुए..जैसे कह रहें हों - मैं हूं न..।
....चंद्रशेखर को जवाब मिल गया था।

3/12/16

एक सफर मुख्तसर सा...!


दिल्ली मेट्रो में नैनो सी मुलाकात...इंद्रप्रस्थ से नोएडा सेक्टर 18 तक का मुख्तसर सा सफर। ...आप तो बिल्कुल नहीं बदले, कहां ठहरें हैं, कहां—कहां गए, किससे—किससे मिले, इंडिया फिर कब आएंगे, अच्छा फिर मिलते हैं,फिर से लिखना शुरू कीजिए... हमदोनों गले मिले...बाय...!
कुछ ऐसी ही थी शनिवार को मित्र अभिषेक ओझा से मेरी मुलाकात। अभिषेक अमेरिका से कुछ दिनों के लिए भारत आए थे। संडे को वापस जाएंगे। भागदौड की​ जिन्दगी में हमदोनों बस इतना सा समय निकाल सके। लेकिन दुनिया के दूसरे छोेर से आया दोेस्त मिला तो सही...मेट्रो सिटी में तो पडोसी हाथ भी नही्ं मिलाते।

10/16/14

मौसम है सेल्फियाना..

 जिसको देखो वही सेल्फी ले रहा है आजकल। जब पहली बार ‘सेल्फी’ का नाम सुना तो लगा जैसे यह कुल्फी टाइप की कोई चीज है। बाद में पता चला स्मार्टफोन की बर्फी है यह सेल्फी। लोग बार-बार इसका स्वाद चख रहे हैं और चखा रहे हैं। पपीता, खरबुज्जा, लौकी, कद्दू, सेब, सब एक भाव। सब आत्ममुग्‍ध हैं। टीन एज में आईने के सामने स्टाइल मारने में बड़ा मजा आता था अलग अलग एंगल से। लेकिन वो अदा और उसका मजा अब सेल्फी में आने लगा है-एक बार देखो, हजार बार देखो कि देखने की चीज हूं मैं .. स्टाइल में। वैसे पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से लोग ज्यादा सेल्फियाना हो गए हैं। वोट दिया और सेल्फी लिया। समझ नहीं आता कि वो अपनी बत्तीसी दिखाना चाहते हैं या टेढ़ी-मेढ़ी उंगली में लगी वोट की स्याही । मैंने भी वोट दिया और अपने पुराने सिंगल कैमरा फोन से सेल्फी लेने की कोशिश की। लेकिन रिजल्ट अच्छा नहीं आया। कैमरे का एंगल थोड़ा बिगड़ गया सो चेहरा पपीते की तरह और उंगली ककड़ी जैसी सामने आई।
      सोचिए जब कैमरा या स्मार्टफोन नहीं थे तब लोगों का काम कैसे चलता होगा। क्योकि समय के साथ इंसान ने प्रगति की है लेकिन हमारी मूल सोच(बेसिक इंस्टिंक्ट) में बहुत बदलाव नहीं आया है। जब कैमरे नहीं थे तब लोग, चित्रकार के सामने सज संवर कर बैठ जाते थे और वो कैनवास पर उनकी तस्वीर उतारता था (जैसे टाइटेनिक में हीरो के सामने हीराइन ने बैठ कर स्केच बनाया था)। लोग तेजी से सेल्फियाना हो रहे हैं। डर लगता है कि कहीं कोई प्राण न्योछावर न कर दे, जैसा कि जैसा कि प्राचीन ग्रीस में नारसिसस के साथ हुआ था। कहा जाता है कि नारसिसस(नरगिस) नाम का खूबसूरत युवक पानी में अपना प्रतिबिंब देख, उस पर इतना मोहित हुआ कि उसका हार्ट फेल हो गया था। लेकिन लगता है ‘सेल्फियाना’ बुखार भी जल्द ही उतर जाएगा। पहले सेल्फी केवल टेक सैवी अपर क्लास का शगल माना जाता था। अब कबाड़ी और खोमचे वाले भी अखबार और करैला तोलते हुए वाट्-एप और फेसबुक पर सेल्फी फेंक रहे हैं और जो ‘खास’ चीज आम हो जाए उस पर कोई जान क्यों देगा।

3/24/14

अब तेंदुआ क्या करेगा..!


बाघ, बाघिन और अब तेंदुआ! अचानक क्या हो गया है इन सब को। जान हथेली पर लेकर जंगल से शहर की ओर भाग रहे हैं। क्या जंगली जानवरों का जायका बदल गया है? तभी तो बारहसिंघे और बकरी को छोड़ बच्चों और बड़े, बूढ़ों को चखने के लिए कस्बों और शहरों के चक्कर लगा रहे हैं। और कुद दिन पहले एक तेंदुए ने तो हद ही कर दी, सीधे मेरठ कैंट होता हुआ शहर के पॉश इलाके में जा घुसा। कहीं इन जानवरों को शुद्ध देसी मांस की जगह जंक फूड का चस्का तो नहीं लग गया। वैसे मेरठ में झलक दिखला जा स्टाइल में तेंदुआ आया और गायब हो गया।  वाइल्ड लाइफ वाले पहले तो आए नहीं जब आए तो ज्ञान बघारने लगे कि तेंदुआ जंगल लौट गया है।
      दरअसल तेंदुआ सदमें में है। उसे शहर में इतने घटिया ट्रीटमेंट की उम्मीद नहीं थी। मान लीजिए शहर घूमने का मन हो ही गया तो इसमें मजमा लगाने जैसा क्या है। लोग कामधाम छोड़ कर तमाशा देखने लगे। एक तो मजा ले रही भीड़ और ऊपर से एक्सपर्ट शिकारी की जगह लाठी-डंडे से लैस सिपाही और होमगार्ड भेज दिए स्थिति संभालने के लिए। जैसे तेंदुआ ना होकर आंदोलित आंगनबाड़ी कार्यकर्ता या दिहाड़ी संविदा कर्मी हो कि जब चाहो लाठिया दो।
    तेंदुए ने नहीं सोचा था कि शहर में जंगली जानवरों के साथ सडक़ छाप कुत्तों जैसा ट्रीटमेंट होता है। वैसे तो वो चुपचाप निकलने के फिराक में था लेकिन सामने डंडायुक्त पुलिस देखकर उसे तैश आ गया और उसने पुलिस वालों को लगा दिए दो-तीन लप्पड़। छुपते छिपाते वो मॉल के बेसमेंट में इंतजार कर रहा था कि टीवी चैनल वाले उसकी बाइट लेने जरूर आएंगे। पहले शहर से जंगल लौटे उसके एक साथी ने बताया था कि लकड़ी गोदाम में छिपे होने के बावजूद टीवी चैनल वाले उसके पास बाइट लेने पहुंच गए थे। बड़े तेज हैं, ये चैनल वाले, कहीं भी छिपो खोज निकालते हैं। इसी चक्कर में वो रात भर पॉश एरिया में टहलता रहा लेकिन जब चैनल वाले नहीं आए तो जंगल लौट गया। अगले दिन पता चला कि उसके लप्पड़ का व्यापक असर हुआ था और सेना बुलानी ली गई थी। जहां पहले दिन तमाशाइयों का मजमा था वहां अखबारों में कफ्र्यू जैसे सन्नाटे की फोटो छपी थी। उसे अफसोस हुआ कि नाहक जल्दबाजी की, शहर में एक-दो दिन और रुक जाना था। तेंदुआ फिलहाल जंगल में है। उसे इंतजार है कि कोई चैनल वाला उसकी बाइट लेने आए तो वो बताए कि उसका अगला कदम क्या होगा।

2/17/14

बाघिन मारें गाजी मियां, मजा करें अधिकारी


अजग-गजब है । आदमखोर बाघिन मुरादाबाद -बिजनौर में दस लोगों को निपटा चुकी है। बड़े बड़े शिकारी लगे हैं लेकिन बाघिन के दीदार तक नहीं हुए लेकिन बिजनौर के विधायक गाजी मियां को लगता बाघिन खोजना और वधू खोजना एक जैसा है तभी तो घोड़ी पर चढ़ कर अपने चेले-चापड़ की बैंड पार्टी के साथ जंगल में निकल गए । हां , घुड़चढ़ी की फोटो खिचवाना नहीं भूले। गनीमत है कि घोड़ी को नही पता था कि वो वधू नहीं बाघिन की तलाश में जा रहे वरना जंगल में ही उन्हें कहीं पटक कर निकल लेती। बाघिन को जब से पता चला है कि विधायक  जी बिना परमीशन के घटिया असलहों के साथ उसके पीछे लगे हैं तब से वो नाराज है और कई दिनों से दूसरे शिकार का एक निवाला भी नहीं मुंह में डाला है। इधर वन विभाग के अधिकारी मस्त हैं कि बाघिन ने उनकी रेंज में  कुछ नया टेस्ट नहीं किया है। लेकिन चिंता तो इस बात की हो रही है कि बाघिन और गाजी मियां का सामना होगा तो बाघिन पहले किसे चखेगी- घोड़ी को या घुड़सवार को !

2/3/14

कच्छी पुराण!


सल्लू की फिल्म जय हो देखी । बड़ा हल्ला मचा रखा था। बिजनेस चाहे जैसा करे लेकिन फिल्म ने भेजा फ्राई कर दिया । रजनीकांत सर जब थोड़ा और बूढ़ा होने पर येड़ा हो जाएंगे तो वो जैसे रोल करेंगे वैसा सल्लू ने इस फिल्म में किया है। सीमेंट वालों को अपने विज्ञापन में हाथी की जगह सलमान को रख लेना चाहिए। अपनी खोपड़ी से कुछ फोड़ पाएं या ना फोड़ पाएं लेकिन खोपड़ी सलामत रहेगी।
      फिल्म देख्र कर लगा कि साला सेंसर बोर्ड वाला भी सटक गया है। लगता है वहां भी जेन-एक्स वालों का बोलबाला है। ये लोग सेक्स और सब्जी में कोई फर्क नहीं करते। तभी तो छोटे चूहे वाला लौंडा पूरी फिल्म में मम्मी जैसी लडक़ी की कच्छी का रंग बताता घूम रहा है। यहां फिल्म समीक्षा नहीं हो रही, मुद्दा कच्छी का है। चूहे वाले लौंडे की उम्र को हमने पटरे वाली जांघिया पहन कर बिताया । ढीली ढाली और इतनी हवादार कि कभी कभी भीतर कुछ ना पहनने का अहसास होता था। पता ही नहीं चला कब पटरे वाली जांघिया विंटेज कारों की तरह धरोहर बन गई। उसकी जगह स्लीक, स्मार्ट कच्छियों ने ले ली। सच बताऊं शुरू में छोटी वाली कच्छी पहनने में शर्म महसूस होती थी। लगता था कि इसे तो लड़कियां पहनती हेंैं। किसी ने बताया, अबे ये तो फ्रेंची हैै, लड़कियां जो पहनती उसे पैंटी कहते हैं। लगता है छोटी चड्ढी सबसे पहले फ्रेंच लोग पहनते होंगे तभी इसका नाम फ्रेंची पड़ा। अब से मैं फ्रेंच भाइयों को छोटे चूहे वाला कहूंगा।

11/23/13

हेल्लो, अपमार्केट....!


हेल्लो, अपमार्केट ! पता है ये क्या बला है? अपमार्केट का मतलब अमीर और डाउनमार्केट का मतलब गरीब नहीं होता. कहने भर से ही थोड़े हो जाता हैअप और डाउन. सब दिमागी कीड़ा है बॉस. ये तो स्टेट ऑफ माइंड है. जिसे देखो वही कद्दू जैसी तोंद और भिंडी जैसी टांगों पर बरमुडा टांगे घूम रहा है अपमार्केट बना. तो चलिए आपको मार्केट की थोड़ी सैर करा दूं - नोएडा टू लखनऊ वाया दिल्ली. वैसे हर जगह मार्केट एक जैसा ही है- थोड़ा अपथोड़ा डाउन.

  आप नोएडा के किसी सेक्टर में हैं और मेट्रो स्टेशन के लिए के ऑटो हायर करते हैं तो आप अपमार्केट और अगर शेयरिंग वाले डग्गेमार ओवरलोडेड टेम्पो पर बैठते हैं तो डाउन मार्केट. लेकिन मेट्रो में बैठते ही अप-डाउन का भेद मिट जाता है. पूरी ट्रेन एसी और वहां थूकने-गंदगी फैलाने की बहुत गुंजायश नहीं. इसके बाद आ जाता है नई दिल्ली रेलवे स्टेशन. अप और डाउन मार्केट को समझने के लिए भारतीय रेल से बेहतर कुछ नहीं. जब एसी कोच नही थे तब ट्रेन में फर्स्टसेकेंड और थर्ड क्लास हुआ करते थे. फर्स्ट और सेकेंड अपमार्केट और थर्ड क्लास डाउन मार्केट था. फिर सेकेंड और थर्ड क्लास खत्म कर एसी स्लीपर और जनरल कम्पार्टमेंट शुरू किए गए. तब जनरल कम्पार्टमेंट डाउनमार्केट और एसी और सेकेंड क्लास स्लीपर अपमार्केट था. धीरे-धीरे सेकेंड क्लास स्लीपर भी डाउनमार्केट हो गया और जनरल कम्पार्टमेंट तो वेजीटेबल क्लास हो गया माने यहाँ यात्री बोरियों में साग-सब्जी की तरह ठुंसे रहते हैं.

  तो चलते हैं दिल्ली से लखनऊ. सेकेंड क्लास स्लीपर या साधरण दर्जे की चेयरकार अप-डाउन मार्केट का मिक्स मसाला है. सामने बैठा बंदा ‘एक्स’ फैक्टर वाला परपफ्यूम लगाए अपनी सूखी टांगों में घुटन्ना फंसाए समार्ट फोन से चैट कर रहा हो तो वो अपमार्केट है लेकिन जैसे ही एक रूपये छाप सस्ता गुटखा पाउच फाड़ कर फांके और पिच्च करे तो डाउन मार्केट है. ईयर फोन लगा ढिंचैक म्यूजिक का मजा लेने वाली जींस क्लैड लेडी अपमार्केट लेकिन अगर वो बैग से तीखे लहसुन की गंध वाली रसेदार-मसालेदार सब्जी और चावल सीट पर फैला कर खाने-खिलाने  लगे तो सीट पर रायता और कम्पार्टमेंट में जो बॉस फैलेगी वो डाउनामर्केट है....अरे बात करते करते लीजिए लखनऊ आ गया...चमकता चारबाग स्टेशन.
रिक्शा.. गंज चलोगे ? जी बाबूजी, एक और सवारी बैठा लें ? नहीं... एक और सवारी बैठा ली तो दोनों डाउनामर्केट.   उफ्फ...अचानक अपनी सोच डाउनमार्केट लगने लगी थी. क्या बिगड़ जाता अगर उसको एक सवारी बैठा लेने देता. लेकिन कभी-कभी हम इन जरा सी बातों पर अपने बड़े से ईगो के कारण कितने छोटे हो जाते हैं. अपमार्केट और डाउनमार्केट तो सोच होती है, व्यक्ति नहीं. तभी हजरतगंज आ गया. गंज में फुटपाथ पर दुकान सजाए चाट, चनाजोर और मूंगफली वाले सब अपमार्केट हैं. एसयूवी से सफेद जूतों और सफारी में उतरे बाबूसाहब अपमार्केट हैं लेकिन वो जैसे ही फुटपाथ की स्टायलिश बेंच पर बैठ कनमैलिए से कान साफ करने लगते हैं तो डाउनमार्केट हो जाते हैं. किसी शोरूम के सामने बोरा बिछाए कंधों खिलौने सजाये कोई विकलांग डाउन मार्केट कैसे हो सकता है क्यूंकि उसके कस्टमर्स अपमार्केट हैं... अब घूरिये मत, घूरने वाले भी डाउन मार्किट केटेगरी में आते हैं .


10/17/13

बत्ती बना लो ...!


...हमरी न मानो रंगरेजवा से पूछो ... जिसने गुलाबी रंग दीना दुपट्टा मेरा..जी हाँ जब फिल्म पाकीज़ा बनी थी तो रंगरेज दुपट्टे गुलाबी कर दिया करते थे, तब गाल और चेहरे भी शर्म से लाल हो जाया करते थे लेकिन आजकल रंगरेज नहीं रंगबाजों का जमाना है . जो जहाँ, जब, जिसकी चाहें उसकी लाल कर दें. लॉ एंड आर्डर की भी लाल करने में वो परहेज नहीं करते क्यूंकि वो लालबत्ती वालों के लाल हैं. अब आप पूछेंगे ये लालबत्ती वाले कौन हैं? ये लालबत्ती वाले वो लोग हैं जो डिजर्व नहीं करते फिर भी लाल बत्ती लगा कर घूमते हैं और लॉ की बात करने पर क्रोध से लाल हो जाते हैं और नियम-कानून की बात करने वालों की लाल कर कर देते हैं. वैसे ये लॉ एंड आर्डर के लूज होते करेक्टर की ही अवैध संताने हैं. ये हैं अवैध रूप से लालबत्ती लगाकर सडकों पर घूमने वाले रंगबाज. लालबत्ती के फ़्लैश के साथ इनकी गाड़ियों में हूटर भी बजता रहता है जो चीख चीख कर निरीह आम जनता को आगाह करता रहता है – लाल बत्ती लगा लो, लॉ एंड आर्डर की बत्ती बना लो.
   कितना क्यूट सा शब्द है ‘बत्ती’ लेकिन इसकी मारक क्षमता बहुत घातक है. आप किसी से कह कर तो देखिये ‘बत्ती’ बना लो. वो इसे भीतर तक महसूस करेगा, तिलमिला जाएगा. शर्त लगा लीजिये, वो पलट के जवाब जरूर देगा. वैसे ‘बत्ती’ शब्द बहुत पुराना है. स्कूलों में बच्चे स्लेट-बत्ती लेकर ए बी सी डी सीखते थे. हमारी कोशिश होती थी की स्लेट पर बत्ती टूटे ना. दिमाग में भी बत्ती होती है जो कभी जल जाती है और कभी गुल हो जाती है. पहले पंसारी के यहाँ स्लेट वाली बत्ती के आलावा एक ‘बत्ती’ और मिलती थी. मुझे लगता है आजकल ‘बत्ती बना लो’ का जो जुमला लोकप्रिय है उसका ओरिजिन वही ‘बत्ती’ है. उस ‘बत्ती’ का इस्तेमाल एक जगह और होता था. ये बत्ती भी पंसारी के यहाँ बड़े सस्ते में मिलती थी और बच्चों को कांस्टेपेशन की समस्या होने पर यदाकदा इसका प्रयोग किया जादा था. लेकिन आजकल ये बच्चों की चीज नहीं रह गयी. बड़े लोग बात बात पर ‘बत्ती’ बना रहे हैं. इसका प्रयोग मास स्केल पर किया जा रहा है. लेकिन ध्यान रहे, आप दूसरों की क्षमता आक कर ही उसे ‘बत्ती’ बनाने को कहें नहीं तो अपनी ‘बत्ती’ का प्रयोग खुद ही करना पड सकता है. सो प्लीज हैंडल योर ‘बत्ती’ विथ केयर. 
  लेकिन अब उन बत्तियों से ज्यादा जलवा लाल बत्ती का है. चौराहे पर लाल बत्ती ? नो टेंशन , अपनी गाडी में लाल बत्ती लगा लो और ट्रैफिक सिपाही से कहो- अपने सिग्नल की ‘बत्ती’ बना लो.  और कहीं इन लाला बत्ती वाले  रंगबाजों की गाडी रोक कर ट्राफिक पुलिस ने चालान की पर्ची काटने की कोशिश की तो वो तमंचे की स्टाइल में अपना मोबाइल निकाल कर कॉल दागेगा - लो बात करो...बात करने के बाद सिपाही बोलेगा जी सर...और लाल बत्ती वाला रंगबाज टेढ़ा होकर गाड़ी स्टार्ट करेगा, सिपाही की चालान बुक को कुछ इस अंदाज़ में घूरेगा जैसे कह रहा हो...इसकी बत्ती बना लो...

8/16/13

काशी में बौराए से गिरिजेश !

आपने कभी किसी जवान बछड़े या गाय को सड़क पर पूंछ उठा के दौड़ते देखा है अगर नहीं तो किसी बछड़े के सामने अपना छाता भक से खोलिए फिर देखिए तमाशा...बछड़ा दुम उठा कर कड-बड, कड-बड दौड़ेगा. गली या सड़क पर पर ये दृय देख बड़ा मजा आता है.  मेरे एक मित्र हैं गिरिजेश राव, अरे लुंगी लगा कर रसम और इडली सांभर सुड़कने वाले राव गारू नहीं, अपने पर्वांचल के बाबू सा हैं. गलती से आजकल बनारस की गलियों में पहुंच गए हैं. उनकी स्थिति उसी बछड़े की तरह हो गई है जिसे हर बनारसी छाता खोल कर भड़का रहा है. और गिरिजेश थूंथन फुफकारते हुए बनारसियों को रपटा रहे है ऐसा फेसबुक पर उनकी टिप्पणियों से जाहिर हो रहा है. गए तो लखनऊ से हैं और रहने वाले कुशीनगर के हैं लेकिन बनारस पहुंच कर उनकी हालत बूटी वाले बाबा की तरह हो गई है. निहायत शरीफ और सेंसिटिव किस्म के इंसान का भोले बाबा भला करें.

8/4/13

हमहूं सलमान


हमहूं सलमान....

मेरे घर के पास एक डेवलप्ड झोपड़पट्टी है नाम है रमैयाजीपुरम. जब रमैयाजीपुरम से गुजरता हूं तो अक्सर रमैया वस्तावैया की ये लाइंस सुनाई पड़ती हैं...जीने लगा हूं...पहले से ज्यादा तुम पर मरने लगा हूं.. रमैयाजीपुरम में रमैया वस्तावैया का गाना, –क्या बात है. मुझे मुंबई की डेवलप्ड झोपड़पट्टी धारावी याद आने लगती है. रमैयाजीपुरम.. नाम कैसे पड़ा ये तो पात नहीं लेकिन रमैयाजी कोई दलित महानुभाव थे या दक्षिण भारतीय नेता, इसकी कोई जानकारी मेरे पास नही है. वैसे तो ये बेतरतीब पक्के मकानों की ऐसी बस्ती है जहां लोग अपने घर के सामने ही कूड़ा फेंकते हैं, मुर्गी और बकरी भी पालते हैं+ और उनके सामने ही बच्चों को शौच भी कराते हैं. पॉश कालोनी के पहलू में पली-बढ़ी इस गली पट्टी और कॉलोनी वासियों में कूड़ा फेंकने को लेकर हमेशा सीमा विवाद रहा है. यहां के हर तीसरे घर में सल्लूभाई बनने का सपना पाले कोई ना कोई मिल जाएगा. 
  रमैयाजीपुरम में बाई, नाई और चारपाई के बीच में एक जिम भी है नाम है अर्नाल्ड जिम. अरे वही अपने अर्नाल्ड शवाजनेगर. दरवाजे पर बंधी बकरियों और दाना चुगती मुर्गियों को देख कर नहीं लगता कि अंदर कोई जिम भी है. यह जिम ऐसावैसा नहीं, मोहल्ले के सल्लुओं और गोविंदाओं और किंग खानों से लबरेज है. इस जिम की मशीने  सेकेंड हैंड हैं, हर मशीन  के सामने  शीशा  लगा हुआ है और बैकग्राउंड म्यूजिक भी बजता रहता है. बस एसी नहीं है. अब पसीना बहाना है तो एसी का क्या काम.
    निठल्लई में डोले-शोले बनाना सबसे बढ़िया टाइमपास है. सो लाल और काली गंजी वाले मोहल्ले के रोमियो सुबह-शाम यहां बैकग्राउंड म्यूजिक ...जीने लगा हूं...के साथ धका-पेल पुशअप्स करते हैं नजर आते हैं. कभी कभी-कभी पारा गरम छाप भोजपुरी फिल्मों के गाने भी सनाई पड़ते हैं लेकिन गाने चाहे जितने इशकिया  और छिछोरेपन वाले बजे, जिम के अंदर का माहौल बिलकुल सीरियस होता है, कोई हंसी-मजाक नहीं.. डम्बल उठाओ, डंड पेलो और पुशअप्स करो, वो भी लगातार शीशा में देखते हुए. लखनउ में वैसे तो ढेर सारे हाई-फाई जिम है लेकिन जितनी भीड़ इस जिम में दिखती है उतनी कहीं और नहीं. यहां कर हर मेम्बर  डोले-शोले बना कर जरूर सोचता होगाकि ...हमहूं सलामन. इस जिम के मालिक का नाम नहीं पता है क्योंकि खाली मोबाइल नंबर लिखा है, कभी फोन रक के बोलूंगा जरूर...रमैया वस्तावैया, जिम से निकलेगे सल्लू भैया... 

3/16/13

इस रात की सुबह नहीं...



बात इसी सर्दी के दिनों की है जब रात का पारा जीरो के नीचे चला गया था. रजाई भी उस रात बहुत कारगर नहीं था. ठंड ने कई बार जगाया. सिहरन भरी रात उसकी याद बार-बार डरा रही थी. उस फेरी वाले की काया आंखों के सामने घूम गई.. क्या वो मर जाएगा, क्या इस ठंड का झेल पाएगा? वो रोज ही तो मिलता था प्राइमरी स्कूल की दीवार के सहारे फुटपाथ पर कूबड़ निकाले बैठा हुआ. मैला पजामा, फटा कोट और उस पर हिलता हुआ उसका सिर. दीवार से टिकी लाठी, पेप्सी की बोतल में पानी और बगल में रखी चप्पल. पर फटपाथ पर दुकान बड़े करीने से लगाता था वो. अखबार बिछा उस पर संभाल कर रखता था पान मसाला की चार-पांच लडिय़ां. सुबह करीब दस बजे से शाम चार बजे तक वो वहीं बैठता था. कभी कभार मसाला खरीदता कोई ग्राहक भी दिख जाता था वहां. कभी-कभी उसकी दुकान नहीं दिखती. कभी दुकान तो दिखती लेकिन वो नहीं दिखता. लेकिन नजर दौड़ाने पर दिख भी जाता, कभी थोड़ी दूर पर पेशाब करते या चाय पीते हुए.
    ...तो जीरो डिग्री वाली रात की अगली सुबह वो नहीं था उस जगह. लगा कि ठंड में हो गया उसका काम तमाम. इधर-उधर नजर दौड़ाई तो रोड की दूसरी साइड बैठा मिल गया. वहां धूप पहले आती थी शायद इस लिए वहां बैठा था. उसकी दुकान के सामने उस दिन मेरे कदम ठिठक गए थे. मैंने दस का नोट बढ़ाया...वो पूछ रहा था...कौन सा दें बाबूजी.. मैं मसाला नही खाता..उसके हिलते चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी.. रोज कितना कमा लेते हो?.. दो-चार पैसे मिल जाते हैं...लो चाय पी लेना..उसने नोट लेकर सिर पर लगाया और उसी तरह सिर झुका कर बैठ गया. चेहरे पर कोई खुशी न गम. मैं भी आगे बढ़ गया. मैंने उसे दस रुपए दिए थे लेकिन वो तो रोज मुझे कुछ ना कुछ देता था...जूझते रहने, कभी लडऩे और कभी हार ना मानने की प्रेरणा. सुबह उसे देखते ही निराशा के सारे बादल छंट जाते थे. उसे जूझते देख ऑफिस में हर दिन एक नई शुरुआत होती थी. लेकिन अब मेरे ऑफिस का रास्ता बदल गया है इस लिए वो नहीं दिखता. शायद अब भी वो वहीं बैठा होगा हिलते हुए सिर को संभालने के लिए जूझता हुआ, पर न जाने क्यूं लगता है कि उसकी जिंदगी तो एक सिहरन भरी रात है जिसकी सुबह नहीं.

2/21/13

डाउन मार्केट, अपमार्केट...!



ये कहानी कानपुर शहर की है. स्टेशन से ऑफिस तक रिक्शेवाले के साथ एक छोटा सा सफर...
ओ रिक्शा.. खाली है? जी बाबूजी. चलो.. एक सवारी और बैठा लें बाबू? क्यों, पैसा तो पूरा दे रहे हैं, सीधे चलो, लेट हो जाऊंगा. बाबू, पांच रुपया और कमा लेते..! नहीं.. ठीक बाबू, जैसा कहें... और रिक्शा वाला बढ़ चला कभी 'साम्बा' कभी 'हिप-हॉप' करते. पता नहीं क्यों ज्यादातर रिक्शे वाले सीट होते हुए भी उसी तरह 'हिप-हॉप' स्टाइल में रिक्शा चलाते हैं. जी हां, इसे 'हिप-हॉप' ही कहूंगा. वो ऐसे ही चलाते हैं. एक बार हिप्स उछाल के दाएं साइड, फिर उछाल के बाएं, भले ही सवारी हो ना हो. ये बात मुझे हमेशा परेशान करती है कि रिक्शे वाले अपनी सीट पर बैठ कर क्यों नहीं चलाते.
तभी 'हिप-हॉप' करते उस रिक्शे वाले का मोबाइल बजा. वो रिक्शा चलाते बतियाने लगा. एक हाथ में मोबाइल दूसरे में हैंडल...अरे यार ड्राइव करते समय मोबाइल पर बात नहीं करते...रिक्शा पल्टाओगे क्या? उस पर कोई असर नहीं पड़ा था. 
वो कुछ परेशान सा फोन पर बाते कर रहा था...मम्मी जी अब और नहीं कर सकता, घर छोड़ आया हूं. मेरा ध्यान उसके हुलिए पर गया. पैंट-शर्ट, साधारण सा जूता और स्वेटर. मुझे लगा ये स्कूली बच्चों को ले जाता होगा, कुछ तकरार हो गई होगी, शायद उसी बारे में किसी मेमसाहब से बातें कर रहा है. ..ये मम्मी जी कौन हैं? जी, मेरी सास हैं...कितना पढ़े हो?..ग्रेजुएट हूं..नाम? फलाने शुक्ला..सास क्या करती हैं? ..ग्राम प्रधान हैं.
अचानक मुझे लगा कि परेशान सा यंग ग्रेजुएट, जिसके हाथ में मोबाइल था और जो अपनी ग्राम प्रधान सास को मम्मीजी बोल रहा था, वो भला डाउन मार्केट कैसे हो सकता था. भले ही वो चला रिक्शा रहा था. 
  अब सास थी तो वाइफ भी होगी, सो मैंने पूछ ही लिया.. कितने दिन पहले शादी हुई है?...15 जनवरी को. अरे वाह..फिर क्या प्रॉब्लम है? बाबूजी वही तो प्राब्लम कर रही है. क्यों..? ठीक से नहीं रखते क्या, लव मैरेज की थी? बहुत ज्यादा दहेज तो नही मांग लिया, सताते तो नहीं..? सवालों की बौछार से वो थोड़ा नाराज हो गया... अरे बाबू जी, पांच भाइयों के बीच छह एकड़ खेत है. क्यों सताऊंगा, ससुराल वालों ने अच्छा दहेज दिया है, पल्सर बाइक भी दी है. उसका बहुत ध्यान रखता हूं. आज उसका व्र्रत था, आधा किलो अंगूर और सेब रख कर आया हूं. किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी पता नही क्यों नाराज रहती है...अच्छा तुमने वाइफ को बताया है कि रिक्शा चलाते हो? नहीं.. 
रोज रिक्शे से कितना कमा लेते हो? ...जब तक चार सौ नहीं कमा लेता घर नहीं जाता. रोज वाइफ को चालीस रुपए देता हूं,जबकि सारा राशन-पानी घर से आता है...
उफ्फ...अचानक, मुझे अपनी सोच डाउन मार्केट लगने लगी थी. क्या बिगड़ जाता अगर उसको एक सवारी बैठा लेने देता, दस रुपया और कमा लेता. लेकिन कभी-कभी हम इन जरा सी बातों पर अपने बड़े से ईगो के कारण कितने छोटे हो जाते हैं. रिक्शा चला रहे उस ग्रेजुएट की सोच तो किसी भी अपर या अपर मिडिल क्लास यंगस्टर्स जैसी ही थी, जिसमें सेल्फ रिस्पेक्ट था. तभी तो वो घर से पैसा नहीं लेना चाहता था. अपने बूते आगे बढऩा चाहता था, वाइफ साथ नहीं दे रही थी फिर भी हार मानने को तैयार नहीं था.
क्या ये मेड सर्वेंट, चौकीदार, चायवलों और रिक्शेवालों जैसे सो-कॉल्ड डाउन मार्केट लोग सपने नहीं देख सकते? सो-कॉल्ड अपमार्केट सोसायटी का काम क्या इन सो कॉल्ड डाउन मार्केट मेड सर्वेंट, माली, गार्ड, ड्राइवर और रिक्शेवालों के बिना चल पाएगा? दरअसल अपमार्केट और डाउनमार्केट तो सोच होती है, व्यक्ति नहीं. पता नही क्यूं रिक्शेवाले ने वाइफ को नहीं बताया कि वो रिक्शा चलाता है? ये उसका ईगो था या सेल्फ रिस्पेक्ट, पता नहीं. पर ये सवाल मुझे परेशान कर रहा था और रिक्शे वाला मेरी इस उधेड़-बुन से बेखबर बढ़ा जा रहा था अपनी मंजिल की ओर- हिप-हॉप, हिप-हॉप..हिप-हॉप, हिप-हॉप..

2/20/13

Ek chinta....


गंगा..तुम बहती हो क्यूं..!
चाहे चार करोड़ लोग गंगा में डुबकी लगाएं या दस करोड़, तब भी ढेर सारे पापी बचे रहेंगे क्योंकि वो डुबकी लगाएंगे तो भी उनके पाप नही धुलेंगे. हां, गंगा पहले से ज्यादा गंदी हो जाएंगी. इलाहाबाद स्टेशन पर जो भगदड़ मची उसके लिए जिम्मेदार लोगों के पाप तो कभी नही धुलेंगे भले ही जिंदगी भर गंगा में खड़े रहे.  पानी फिर भी अभी समय है आप नहीं जाएंगे संगम में डुबकी लगाने? सारे पाप धुल जाएंगे! ऐसा हम आस्था की वजह से कह रहे हैं. इंडिया में तो नदियों को पूजा जाता है, उन्हें मां और देवी का दर्जा दिया गया है. कहा जाता है कि कुंभ के दौरान संगम में डुबकी लगाने से सारी बुराई धुल जाती है क्यों कि वो जल अमृत के समान होता है. वैसे गंगा हों या यमुना, उद्गम स्थल पर इनका निर्मल जल अमृत समान ही होता है. लेकिन सालों साल हमने इतनी गंदगी, मैल और पाप इन नदियों में धोए हैं कि अमृत तो दूर, नदियों का पानी पीने लायक भी नहीं रह गया. बुरा मत मानिएगा लेकिन आपको क्या लगता है साल भर जो पाप हम सब इन नदियों को गंदा करने में करते हैं वो क्या कुछ मिनट की डुबकी से धुल जाएगा?
आस्था को जाने दें, वैज्ञानिक आधार पर भी ये बात सिद्ध हो रही है कि देश भर की नदियों को गंदा करने में हमने कोई कसर बाकी नहीं रखी है. कहां तो नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता लेकिन अब इन नदियों का पानी हमने पीने लायक छोड़ा है क्या? लेकिन गंगा फिर भी यूं ही बहती रहेगी, मां जो ठहरी.

1/25/13


'मिस्ड टॉपअप'
निर्मल बाबा की तरह और लोग भी किरपा बरसाते हैं कभी कभी. ये किरपा डावर्ट  हो कर आपके फोन  में घुस जाती है, कभी मिस्ड काल के रूप में तो कभी 'मिस्ड टॉपअप' के रूप में. एक बार एक ब्वायफ्रेंड ने अपनी गर्ल फ्रेंड के नंबर पर टॉपअप कराया. पता नहीं कैसे नंबर के घालमेल से टॉपअप मेरे सेल पर आ गया. तुरन्त बाद ही उस जीएफ का फोन आ गया कि गल्ती से आप के सेल मे चला गया, प्लीज किसी पीसीओ से मेरे नंबर पर वो आमउंट डाल दीजिए. पहले मैं तैयार हो गया फिर डर गया कि ये लड़की फंसा ना दे कि मेरे पीछे पड़ा है कि फोन पे बात करो, बिना कहे मेरे सेल में पैसा डाल दिया. सो मैंने कहा, देवी जी आप अपने बीएफ को मेरे ऑफिस भेज दीजिए, कैश दे दूंगा. फिर बीएफ का फोन आया कि अच्छा मेरे सेल में डाल दीजिए. मैंने मना कर दिया कि कैश ही मिलेगा. फिर न फोन आया ना वो आए. मैं इंतजार में हूं कि निर्मल बाबा की किरपा से मिस्ड कॉल आए ना आए लेकिन एक बार  फिर 'मिस्ड टॉपअप' हो जाए...कोटि कोटि परनाम..

12/11/12

ओ..त्तेरी की...

ओ..त्तेरी की...

तुम भी बड़े वाले हो...माइंड ब्लोइंग, ओ...त्तेरी की...लग गई वॉट...इट इज हॉट...
चक्कर क्या है? जिसे देखो वही इन शब्दों को दाग रहा है और इनको रचने वाले कॉमनमैन ही हैं. वैसे भी आजकल कॉमनमैन इन-फैशन है. जैसे पहले फिल्मों की 'इमोशनल '  कर देने वाली कहानी उनके हिट होने की गॉरन्टी हुआ करती थी और उसमें मुख्य किरदार अक्सर कॉमनमैन ही निभाता था. हीरो होकर भी वो निरीह कॉमनमैन था. ये अलग बात है कि वो अक्सर अपना दिल हवेली में रहने वाली हीरोइन से लगा लेता था. अगर हीरो अमीर तो हीरोइन आपके मोहल्ले की कॉमन गल्र्स की तरह होती थी. इसके बाद तो आंसुओं का जो दरिया बहता उसमें आम दर्शक तीन घंटे डूबता-उतराता और फिक्चर हाल के बाहर वो 'पैसा वसूल ' वाले अहसास के साथ निकलता. इसके बाद कुछ दिनों उस दर्शक रूपी कॉमनमैन में हीरो-हीराइन समाए रहते और फिल्म हिट. आजकल भी यही हो रहा. कोई मुद्दा हो, प्राब्लम हो, उसे कॉनमैन से जोड़ दो. बस मामला हिट. लेकिन कौन कहता है कि कॉमनमैन बेचारा होता है. कॉमनमैन अब सयाना हो गया है. वो जितना बेचारा दिखता है उतना है नहीं. जिस तरह शब्द, समय के साथ चोला बदलते रहते हैं उसी तरह ये 'कॉमनमैन ' का चोला बदलता रहता है. कॉमनमैन के शब्द भी बदलते रहते हैं, अर्थ बदलते रहते हैं या यूं कहिए वो नए-नए शब्द गढ़ते रहते हैं. एक जमाना था जब 'गुरु ' शब्द की बड़ी रिस्पेक्ट थी. अब तो कहा जाता है.. अरे वो बड़ी 'गुरू ' चीज है. गुरु, गुरूघंटाल हो गया. 'उस्ताद ' का भी यही हाल है. पहले उस्ताद की बड़ी रिस्पेक्ट थी अब किसी से कहिए कि उस्तादी दिखा रहे तो वो बुरा मान जाता है. इसी तरह आजकल 'कॉमनमैन ' का एक बड़ा हिस्सा भी गुरू या उस्ताद हो गया है. समझ गए ना वही ', 'बड़े वाले '. और कॉमनमैन का माइंड तो डिफेक्टिव कुकर की सीटी का तरह जब-तब ब्लो करता रहता है. बात-बात पर 'माइंड ब्लोइंग '. पहले जो धत् तेरी की था वो अब 'ओ त्तेरी की ' हो गया है. जब कुछ ऐसा हो जाए जिसमें एम्बैरेसमेंट के साथ मजा भी आए तो समझिए हो गया 'ओ त्तेरी की '. जैसे गर्लफ्रेंड के साथ आप फिल्में देखने गए और इंटरवल में पता चले कि अगली रो में आपका बॉस अपनी फ्रेंड के साथ बैठा है तो इसमें मुंह से निकलेगा.. ओ त्तेरी की. पहले जहां खाट खड़ी होती थी अब वॉट लगती है. क्योंकि अब खाट का चलन कम हो गया है. और हां, जिसे देखो वही हॉट है इंडक्शन चूल्हे की तरह, जो टच करने से गर्म नहीं लगता लेकिन सम्पर्क में आते ही स्टीम बनने लगती है. इंजन और मौसम को गरम होते सुना था. कभी-कभी मिजाज भी गरम हो जाता है लेकिन अब जिसे देखो वही 'हॉट ' है. 'हॉट 'होना काम्प्लीमेंट है.
वैसे इन शब्दों को कॉमनमैन मुंह में मसाले की तरह भरे घूमता रहता है. और जहां मौका मिला..पिच्च. वो फिफ्टीज-सिक्स्टीज की फिल्मों के कॉमनमैन की तरह निरीह नहीं, थोड़ा चालू किस्म का है, थोड़ा-थोड़ा करप्ट भी है और अक्सर नियम-कानून भी तोड़ता है. सिस्टम को कोसता है लेकिन अकसर दफ्तर लेट पहुंचता है. कहीं भी कूड़ा फेंक देता है, कहीं भी मसाला खाकर थूक देता, फिर गंदगी के लिए नगर निगम को कोसता है. नो पार्किंग पर बाइक खड़ी करता है फिर ट्रैफिक जाम के लिए पुलिस को भला-बुरा कहता है. अपने वाहन के पेपर्स दुरुस्त नहीं रखता फिर वसूली का आरोप लगाता है. अपने घर के कूड़े की पॉलिथीन पड़ोसी के दरवाजे के सामने फेंक कर सिविक सेंस पर लेक्चर पिलाता है. पॉवर कट पर बिजली वालों को पानी पी-पी कर बुरा-भला कहता है लेकिन मीटर खराब करवा कर या कटिया मार एसी चलाता है. रेलवे से तो उसका सास- बहू वाला रिश्ता है, मजाल है कभी रेलवे की तारीफ कर दे लेकिन मौका मिलने पर 'डब्लू टी ' सैर का मजा लूट आता है लेकिन फिर भी वो 'निरीह ' कॉमनमैन कहलाता है. लेकिन मार्डनिटी और ट्रेडिशन तो साथ-साथ चलते हैं सो अभी भी ढेर सारे 'कॉमनमैन ' पुराने वाले फॉरमैट में जी रहे हैं जो कानून को मानते है, नियमों का पालन करते हैं और उनको ऐसा करते देख सयाना कॉमनमैन बोलता है..ओ त्तेरी की...

10/26/12

ना.. लो ‘यूथ’ के प्राण रे....
आज बात करते हैं यूथ सिंड्रोम की. यानी यूथ के नाम पर आप जो करते हैं,
खाते, पीते, पहनते और बोलते हैं, वही सही है. जो
जरूरत से ज्यादा टेक्नो सैवी है, गैजेट के चक्कर में क्रेजी-वेजी है वही
यूथ है. वही यूथ है जिनका  बिहेवियर हॉस्टल रूम और पब्लिक प्लेस पर एक
जैसा होता है, स्लैंग और एब्यूसिव लैंग्वेज जिनकी जुबान पर और दुनिया
ठेंगे पर होती है. जो टीन एज में तोरई, लौकी और कद्दू से 'हेट' करता है,
दूध से दूर  भागता है पर
कोल्ड ड्रिंक का वेट करता है. वो अक्सर पैटीज से पेट  भरता है. बर्गर,
बिरयानी और पास्ता से है उसका वास्ता.
      माना कि इंडिया में आधी आबादी युवा है लेकिन जिसको देखो वही
'यूथ' को डिफाइन करने पर तुला है. जब  खास किस्म का 'स्टेट ऑफ माइंड'
बुद्धि और विवेक पर डॉमिनेट करने लगता है तो वो 'सिंड्रोम' बन जाता है.
यूथ सिंड्रोम से ग्रस्त बंदा हमेशा अपने को युवा और दूसरों को अंकल या
आंटी समझता है  भले ही वो उससे
पांच-छह साल ही बड़े हों. ये सिंड्रोम बड़ा इंफेक्शियस होता है. वैसे तो
अंकल-आंटी बड़ा सम्मान सूचक शब्द है लेकिन आजकल जिस तरह से इस बाण का
प्रयोग हो रहा, उससे तो अच्छे  खासे यूथफुल लोगों के प्राण  भी बॉडी से
निकलने को आते हैं. अगर नहीं निकले तो वो ना चाहते हुए  भी 'अंकल-आंटी
सिंड्रोम' से ग्रस्त हो जाते हैं. सब्जीवाला, दूधवाला, कबाड़ीवाला,
परचूनिया उम्र
में बराबर या बड़ा होने पर  भी आपको आंटी बोले तो चलता है लेकिन कोई
हमउम्र यंग सेल्समैन, बैंक एग्जीक्यूटिव या कोई हैंडसम 'गाय' या गर्ल
आपको अंकिल बोले तो..?
बची खुची कसर टीवी पर तरह-तरह के ऐड ने पूरी कर दी है. जैसे ग्रे हेयर
वाले को एक लड़की अंकल बोलती है तो वो डिप्रेशन में आ जाता है और अगले
दिन हेयर डाई लाकर उसी लड़की को रिझाता है. इसी तरह स्मार्ट फोन वाली
लड़की, पुराना फोन यूज कर रहे एक
सज्जन को 'अंकल' कह कर चिढ़ाती है. जब रिस्पेक्ट वाली 'आंटी' युवाओं के
लिए चिढ़ाने वाली 'आंटी' बन जाए तो इसे सिंड्रोम ही कहेंगे. यूथ जब
उम्रदराज हो जाता है तो यूथफुल जाता है. इसकी वजह से 'यूथ' और 'यूथफुल'
में एक तरह का पर्सनालिटी क्लैश शुरू
हो गया है. यूथ, यूथफुल लोगों को युवा मानने को तैयार नहीं और यूथफुल
अपने को बजुर्ग मानने को तैयार नहीं. इसी क्लैश का नतीजा है 'डीके बोस'
और अब 'तेरी मां की यूथ'.
क्या जिसकी जुबान पर बात बात पर गॉली या डबल मीनिंग वाले वड्र्स हों वही
यूथ है? और जवाब में सफेद बालों के बावजूद अपनी हेयर स्टाइल और टैटू
जडि़त शरीर के कारण यूथफुल दिखने वाली सपना
 भवनानी जब सलमान  खान को 'तेरी मां की यूथ लिखा' टी-शर्ट  भेंट करती है
तो इसे क्या माना जाए? वो यूथ को क्या मैसेज देना चाहती हैं?
पहले इस तरह के द्विअर्थी शब्द गली मोहल्ले में सुनाई पड़ते थे. लोग
उन्हे इग्नोर कर जाते थे. लेकिन अब ये अपमार्केट और ग्लोबल हो गए हैं. अब
इग्नोर नहीं कर सकते. सुन कर हूट या ट्वीट नहीं किया तो आउट फैशन्ड और
स्टीरियो टाइप माने जाएंगे. ये स्टीरियो भी अजब बला है स्टीरियोफोनिक हुए
तो मार्डन और स्टीरियो टाइप हुए तो बोरिंग. सब बजाने और सुनने का फर्क
है. सिचुएशन बड़ी का प्लेक्स्ड है और इसमें नुकसान सबका हो रहा
है. कभी सोचा है कि जिन्हें हम 'यूथ' कह कर डिफाइन कर रहे हैं वो रूरल और
सेमी अर्बन को जाने दें, खालिस अर्बन यूथ के एक चौथाई हिस्से को  भी
रिप्रेजेंट नहीं करते. क्या शहरों में रहने वाले बाकी तीन चौथाई युवा,
यूथ नहीं हैं. जो शालीन, संजीदा और करियर को लेकर कांशस हैं. वो भी
मार्डन है और आगे बढऩे की सोचते हैं. जो सोचते हैं अपने देश और सिस्टम के
बारे में, करप्शन उन्हें परेशान करता है. लेकिन वो 'यो-यो'
टाइप नहीं या बियर कैन लेकर पब्लिक प्लेस पर हुल्लड़ नहीं मचाते,
लड़कियों को नहीं छेड़ते, तोडफ़ोड़ नहीं करते. वो  भी नेट सैवी हैं, नए
गैजेट-शैजेट पसंद करते हैं, पार्टी में जमकर इंज्वाय करते हैं लेकिन
दूसरों की कीमत पर नहीं. ढिंडोरा पीटने, स्लोगन लिखने या चीखने से कोई
युवा या यूथफुल नहीं हो जाता. ये भी एक स्टेट ऑफ माइंड है. इस 'यूथ
सिंड्रोम' के शोर में आपके शहर का दो तिहाई यूथ क्या चाहता है इसकी फिक्र
किसी को नहीं.

8/2/12

आज कुछ तूफानी करते हैं



'वेरी सिम्पल '  कितना सरल है कहना और कितना कठिन है करना. जिसे देखो जुटा है कुछ तूफानी करने में. आखिर ये तूफानी कहां से आया? सिम्पल..ये तो ऐड का स्लोगन है. ऐसे ही कुछ दूसरे स्लोगन भी याद हैं...ठंडा मतलब... डर के आगे जीत है... दाग अच्छे हैं..और भी पता नहीं क्या-क्या. आखिर इनमें ऐसा क्या खास है कि हजारों स्लोगंस के बीच कुछ खास लाइंस हमारी जुबां से चिपक जाती हैं. इनमें एक बात कॉमन है वो है सिम्प्लीसिटी. लेकिन सिम्पल उतना सिम्पल होता नहीं. एक सज्जन से पूछा, यार ये तूफानी करना क्या होता है? उन्होंने झट से मोबाइल स्क्रीन सामने कर दिया और संता-बंता के कई तूफानी जोक सामने आ गए. समझ गए ना, उन्हें सबके सामने शेयर किया तो तूफान खड़ा हो जाएगा.
        कुछ लोग सेलफोन और नेट पर तूफानी करना ज्यादा पसंद करते हैं. जैसे नोमान नाम के एक जनाब अपना मोबाइल सेट जितनी तेजी से बदलते हैं उससे कही तेज गति से उनकी रिंग और कॉलर टयून बदलती है. उनको तूफानी कॉलर ट्यून लगाने का बड़ा शौक है. एक  से एक इनोवेटिव और नॉटी. स्टूडेंट्स और टीन्स में तो ये चलता है लेकिन अगर आप किसी कॉरपोरेट ऑफिस में काम करते हैं तो तूफानी करने में थोड़ा सावधानी बरतनी चाहिए वरना बॉस तूफानी मोड में आ जाते हैं. हुआ ये कि उन्होंने एक कॉलर ट्यून लगाई जिसमें कॉल करने पर उधर से लड़की की आवाज कुछ यूं आती थी...अरे पहले मुझसे बात करो ना..पॉज के बाद वो फिर कहती..अरे मुझसे बात करो ना प्लीज, मेरा मन कर रहा है तुमसे बात करने का, बहुत सताते हो. उनके कई दोस्त इस ट्यून के झांसे में आ गए और कुछ सेकेंड्स तक खीसें निपोर कर बातें भी की. लेकिन दो दिन भी नहीं बीते थे कि उनके बॉस का फोन आ गया. पहले शांति से ट्यून को सुना फिर उन्होंने नोमानी के साथ जो तूफनी किया, उसके बाद से तो नोमानी के फोन पर कुछ दि जय अंबे.. जगदंबे मां.. वाली कॉलर टयून ही सुनाई पड़ी. 
     वैसे 'चलो आज कुछ तूफानी करते हैं ' ..यह स्लोगन कोल्ड ड्रिंक लेने वालों से ज्यादा दूसरे ड्रिंक्स लेने वालों को हिट करता है. झाग वाला कोई भी ड्रिंक हो, पहले वो जिगर में झाग और आग पैदा करता है फिर बाहर आता है तूफान बन कर फिर लोग सड़कों पर तूफानी करने लगते हैं. अगर सन्नाटे में कोई कार डिवाइडर तोड़ कर दूसरी साइड चारों टांगे ऊपर कर पलटी मिले तो समझ लेना चाहिए कि ड्राइवर ने झाग वाला ड्रिंक लेकर तूफानी किया है. कभी-कभी दो झाग वाले जब आमने-सामने होते हैं तो वहां उठे तूफानी में गरजने और कड़कने की आवाजें भी आती हैं. उस कड़क से किसी की कार का शीशा टूटता है और किसी का सिर फूटता है. इसके बाद पुलिस वालों को तूफानी करने का मौका मिल जाता है. ऐसे ही कुछ लोग ड्रिंक्स लेने के बाद गटर या नाली के पानी के साथ तूफानी अवतार में नजर आते हैं. 
 सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो तूफानियों की भरमार है. वो साधारण सी फोटो या घटना में अपनी क्रिएटिविटी डाल कर उसे तूफानी बना देते हैं. कुछ दिन पहले फेसबुक वॉल पर एक छोटे बच्चे की तस्वीर देखी. गली की नाली में गिरने से ऊपर से नीचे तक कीचड़ में सना हुआ. वैसे तो वो रो रहा था. लेकिन वो ऐसे पोज में खड़ा था और उसके फोटो पर किसी ने स्लोगन लिख दिया था 'आज कुछ तूफानी करते हैं ' , इनसब से उस फोटो को देखने का नजरिया ही बदल गया था. एक साधारण सी फोटो तूफानी फोटो बन गई थी. तूफानी करने में महिलाओं को भी उतनी ही महारत हासिल है. जैसे कई महिलाएं मई में तूफानी होने इंतजार करती थी कि एक-दो तूफाननुमा अंाधी के दौर हो जाएं तो कच्चे आम सस्ते हों और तूफानी गति से अचार बनने में जुटें. लेकिन जून भी खत्म होने को है, तूफान की जाने दें ठीक से आंधी भी नहीं आई इस बार. कच्चे के बजाय पके आमों से पट गए हैं बाजार. जो चलिए पके आमों से ही कुछ तूफासनी करते हैं.

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