Featured Post

10/2/09

गांधी बोले तो मुन्नाभाई वाले बापू!



साल में एक बार फिर याद आए बापू. अब आप इसे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहें या कुछ और. अखबार के दफ्तर में ढेर सारे प्रेस नोट आए गांधी जयंती को लेकर. लगा कल कुछ और नहीं होगा सिर्फ गांधी जयंती मनाई जाएगी. पूर्व संध्या पर हमने भी शहर का चक्कर लगाया कि पता करें लोग गांधी जी के बारे में क्या सोचते हैं. कुछ को गांधी जी का पूरा नाम याद नही था. कुछ के लिए गांधी जयंती का मतलब था छु्ट्टी, गांधी का मतलब था मुन्नभाई वाले बापू और गांधीगिरी, गांधी का मतलब था फेशन लेकिन थोड़ा डिफरेंट. गांधी उनके हीरो थे लेकिन अलग कारणों से. गांधी साहित्य कम ही लोग पढ़ते हैं लेकिन माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ लोग इस लिए पढऩा चाहते हैं क्योंकि यह बेस्ट सेलर है. अब यहां 'बेस्टसेलर' की बहस में नही पडऩा चाहता. बेस्ट सेलर तो जसवंत सिंह की जिन्ना भी है. आज गांधियन थॉट नहीं, गांधी का नाम बिकता है अब यह चाहे टी-शर्ट पर हो या फिल्मों में. आज गांधी जयंती के दिन दोपहर शहर में संडे जैसा सन्नाटा है. लोग हफ्ते में दूसरी बार संडे मना रहे हैं गांधी की बदौलत. हो सकता है शहर के कुछ सभागारों में मुट्ठीभर लोग गांधी पर चर्चा कर रहे हों, हो सकता है कुछ लोगों ने सुबह गांधी की प्रतिमा पर फूल चढ़ाए हों, हो सकता है शाम को कुछ लोग उनकी प्रतिमा पर कैंडल भी जलाएं लेकिन ये भी सच है कि आज शाम मॉल्स में भीड़ कुछ ज्यादा होगी, रेस्त्रां में लोग कुछ स्पेशल खाएंगे और ये भी सच है कि आज मैं देर से उठा क्योंकि आज छुट्टी है, क्योंकि आज गांधी जयंती है.

9/30/09

रावण आसानी से नहीं मरते



मायावी रावण ने जुगाड़ कर ही लिया और पूरे परिवार के साथ मुख्य मैदान में आ डटा विजयदशमी के दिन. शाम को काफी भीड़ जुटी राम-रावण युद्ध देखने. अंतत: वही हुआ, बुराई पर अच्छाई की जीत और रावण धू-धू कर जला. मैदान से बाहर आ रहा था कि किनारे रामलीला के कुछ पात्रों में तकरार सुन कर रुक गया. रावण मरा नहीं था. वह किनारे खड़ा हो कर बीड़ी फूंक रहा था और व्यवस्थापकों से कुछ और पैसे मांग रहा था. हुआ ये कि किराए की तलवार, गदा और तीर-धनुष वही लाया था. युद्ध में तलवार टूट गई और तरकश आतिशबाजी की चपेट में आ कर जल गया. रावण थोड़ा तोतला था. वह बार-बार कह रहा था, अब भला मैं टारिक भाई को ट्या जवाब दूंगा. एक दिन के लिए टीर और टलवार टिराए पर लाया ठा. कौन पेमेंट टरेगा, मेरी तो टकदीर ठराब है. खैर उन्हें झगड़ता छोड़ आगे बढ़ा तो रावण दहन देख कर लौट रही भीड़ में कुछ और रावण दिखे. दो शोहदेनुमा रावण एक ग्रामीण महिला पर फिकरे कस रहे थे. कुछ रावण अपनी हार का गम गलत करने देशी के ठेके पर जा बैठे थे. आगे मोड़ पर वर्दी में कुछ रावण ट्रक वालों से वसूली कर रहे थे. घर पहुंचते पहुंचते जीत का जोश ठंडा पड़ चुका था. टीवी खोला तो क्रिकेट में भी आसुरी ताकतों ने भारत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. पता चल गया कि कलियुग में रावण इतनी आसानी से नहीं मरते.

9/24/09

कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है...




किसी से कहूं के नहीं कहूं ये जो दिल की बात है, कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है पर छुपके इस दिल में तनहाई पलती है....यही है आज का सच जिसका सामना अर्बन सोसायटी का एक बड़ा तबका कर रहा. टीवी पर एक सीरियल आता था 'सच का सामना'. अंतिम कड़ी में रूपा गांगुली ने अपना सच सामने रखा. इसके बाद खबर आई कि इस अंतिम कड़ी को देख कर आगरा में एक महिला ने सुसाइड कर लिया. सीरियल तो खत्म हो गया लेकिन जोरदार बहस शुरू हो गई. यहां हम सीरियल की समीक्षा नहीं कर रहे बल्कि इससे उठे ढेर सारे सवालों में से एक का जवाब खोजने की कोशिश कर रहे हैं. एक सवाल उठा कि हम अपनों से क्या और कितना शेयर करें. कहा जाता है कि साइलेंस इज गोल्ड, लेकिन क भी कभी चुप्पी दमघोंटू हो जाती है. कुछ बातें हम अपने काउंटर पार्ट से, कुछ दोस्तों से, कुछ पैरेंट्स से कुछ भाई-बहनों से और कुछ अपने बच्चों से शेयर करते हैं. लेकिन कुछ बातें हम किसी से शेयर नहीं करते. इसकी जरूरत भी नहीं है. फैंटसी के जंगल में भटकना ह्यूमन नेचर है. दिल की हर बात सामने आने लगी तो अराजकता फैल जाएगी. हम छोटी-छोटी खुशियां और परेशानियां भी शेयर नहीं करते, जिससे हमारा मन हल्का हो सकता है. कहां घूमने जा रहे हो? मत बताओ, कुछ नया खरीदा? मत बताओ, कितने नंबर आए? मत बताओ. आज के शहरी समाज का ताना-बना कुछ ऐसा बनता जा रहा है कि हमारे इर्दगिर्द तनहाई की दीवारें ऊंची होती जा रही है. पहले लोग डायरी लिख कर मन हल्का कर लेते थे लेकिन अब वो भी कम होता जा रहा है. ब्लॉग मन की बात कहने का अच्छा विकल्प हैं लेकिन सार्वजनिक होने की वजह से उसमें भी हिचक होती है लेकिन बातें शेयर करना उतना ही जरूरी है जितना शरीर के लिए ऑक्सीजन. किससे क्या और कितना शेयर करना है इसका फैसला तो आपको ही करना है.

9/16/09

बंदर, गुरुवा और भांग के लड्डू


मेरे अजीज ज्ञानदत्त जी प्रकृति प्रेमी हैं. उन्हें पशु-पक्षियों, वनस्पति और नदियों से उतना ही लगाव है जितना मुझे. एक कुक्कुर उन्होंने पाल रखा है. उस जीव ने पिछले जन्म में कुछ पुण्य किया होगा जो पांडे जी जैसे सात्विक और संस्कारी परिवार की सेवा कर रहा है या उनसे करवा रहा है. बाकी पशु-पक्षी तो वहां आते जाते हैं. जैसे पिछले दिनों एक बंदर कही से आ गया था. लहट ना जाए इसके लिए उसे डायजापॉम की गोली खिलाकर काशी छोड़ आने की योजना बनी लेकिन वह परिस्थिति भांप कर खिसक लिया. हो सकता है जल्द ही लौटे. इस घटना से मुझे अपने काशी के अपने मित्र तुलसीदास मिश्र का किस्सा याद आ गया. वही तुलसी गुरू जिनका जिक्र काशीनाथ सिंह ने अपनी किताब 'देख तमाशा लकड़ी का' में किया है. बात उन दिनों की है जब मैं और तुलसी गुरू काशी में एक ही अखबार में काम करते थे. तुलसी बीएचयू की रिपोर्टिंग करते थे. वे यूनिवर्सिटी के हास्टल रीवा कोठी में रहते थे. रीवा कोठी अस्सी के घाट पर एकदम गंगाजी के ऊपर बनी कोठी है जिसे फाइन आट्र्स, स्कल्प्चर और म्यूजिक के छात्रों के हास्टल में कनवर्ट कर दिया गया है. वहां छात्रों के साथ ढेर सारे बंदर भी रहते हैं. वहीं तुलसी गुरू का एक और दोस्त रहता था. नाम तो ठीक से याद नहीं लेकिन सब उसे गुरुवा कहते थे. एक बार गुरुवा घर से लौटा था. मां ने देसी घी के लड्डू दिए थे. गुरुवा एक दिन रूम बंद करना भूल गया. लौटा तो कई बंदर लड्डू की दावत उड़ा रहे थे. उसे देख बंदर तो भाग गए लेकिन बचे लड्डू बिखेर गए. आहत गुरुवा ने ठान लिया कि इनको सबक सिखाना है. वह चुपचाप अस्सी से भांग की गोलियां ले आया और बचे लड्डुओं में मिला कर छत पर रख आया. काशी के लंठ वानर इस साजिश को भांप नहीं सके और फिर लड्डू की दावत उड़ाई. करीब एक घंटे बाद गुरुवा छत पर पहुंचा. वहां कई बंदर भांग के लड्डू खा कर लोटे पड़े थे. फिर क्या था गुरुवा ने उन्हें जी भर कर लठियाया और उतर आए. तुलसी गुरू रात को लौटे तो देखा गुरुवा बाल्टी में पानी और लोटा लेकर छत पर जा रहा था. तुलसी भी पीछे हो लिए. छत पर अभी भी वानर लोटे हुए थे और गुरुवा उन पर लोटे से पानी डाल रहा था. माथा ठनका. गुरुवा थोड़ा परेशान था. उसने कहा गुरू दिनवा में जी भर के लठियउलीं. रात हो गई पर इनकर भांग नाही उतरल. डेरात हईं कि एकाक मिला मर गइलन त पाप लगी. लेकिन गुरुवा के जान में जान आई जब देखा कि थोड़ी देर में सब बंदर गिरते पड़ते चले गए. अब रीवा कोठी में ना गुरुवा है ना वो बंदर लेकिन उनके वंशज अभी वहां धमाचौकड़ी मचाते हैं. कहानी नहीं सच घटना है. तुलसी गुरू इस समय काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाते हैं.

9/14/09

टेंशन में रावण



वैसे तो न$फासत और नजाकत के शहर लखनऊ के लोग आमतौर पर खुशमिजाज होते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां का रावण दशहरा आते ही टेंशन में आ जाता है. आप गलत समझे. रावण को दहन को लेकर कभी टेंशन में नहीं हुआ. ही..ई ..इ हा...हा...हा करते वो खुशी-खुशी जलता है. लेकिन यहां दशहरे के पहले उसकी स्थिति 'ना घर का ना घाट का' वाली हो जाती है. वैसे गली-मोहल्लों में छुटभैये रावणों के दहन में कोई समस्या नहीं है. लेकिन ऐसा कुछ सालों से हो रहा है कि शहर में सबसे बड़ा रावण सीने में जलन आंखों में तूफान लिए दर-दर भटकने लगता है कि किसी मैदान में जगह मिल जाए. पहले वह शहर के बीचों बीचों बीच बेगम हजरत महल पार्क में फुंकता था. फिर जगह छोटी पडऩे लगी तो उसे गोमती किनारे लक्ष्मण मेला मैदान में खदेड़ दिया गया. एक-दो साल सब ठीक रहा फिर लक्ष्मण रूपी पर्यावरण प्रेमी नाराज हो गए, कहा- भैया राम, रावण तो गोमती नदी प्रदूषित कर रहा है. बस फिर क्या था, रावण को शहर के बाहर स्मृति उपवन में ठेल दिया गया. कहा जा रहा था कि इस साल रावण वहीं जलेगा. तैयारियां शुरू हो गई थी. आश्वस्त रावण का आकार और वेट इस खुशी में बढ़ गया था. लेकिन ऐन वक्त पर उस मैदान में सभी काम रोकने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया. अब रावण फिर टेंशन में है. वह बाइक से पूरे शहर में घूम घूम कर मैदान तलाश रहा है. दशहरा करीब आ रहा है. आशंका है कि कही टेंसना कर मैदान के बाहर ही आत्मदाह ना कर ले. बाकी प्रभु की इच्छा. देखिए शायद उसे स्मृति उपवन में घुसने की अनुमति मिल जाए.

यूं ही कोई गुजर गया यारों

हर्षित और गगनदीप आईईटी लखनऊ के होनहार छात्र थे. बीटेक थर्ड ईयर के इन छात्रों के आंखों में सपने थे कुछ बनने के, कुछ कर दिखाने के. दोनों रोबोट का मॉडल बननाने में जुटे थे. देर रात चाय की तलब लगी. कैम्पस की कैंटीन रात आठ बजे ही बंद हो जाती है सो रात दो बजे दोनों बाइक से दो किलोमीटर दूर एक ढाबे तक गए थे चाय पीने. लौटते समय किसी वाहन की चपेट में आकर दोनों की जान चली गई. वो तो चले गए लेकिन कुछ सवाल छोड़ गए हैं हमारे आपके लिए. कहा जा रहा है कि हॉयर एजुकेशन के क्षेत्र में हमने तेजी से प्रगति की है. हर नए सेशन में हर बड़े शहर में कई नए प्रोफेशनल कॉलेज और इंस्टीट्यूट्स खुल जाते हैं. इन कालेजों की फीस अच्छी खासी होती है फिर भी इनमें स्टूडेंट्स की कमी नहीं रहती. पैरेंट्स काफी पैसे खर्च कर अपने बच्चों को यहां भेजते हैं कि उनके लाडलों को अच्छी शिच्छा मिल सके और करियर बन सके. जब हम क्वालिटी एजुकेशन की बात करते हैं तो इसका मतलब सिर्फ अच्छी फैकल्टी और स्टूडेंट्स ही नहीं होता. क्वालिटी एजुकेशन का मतलब अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर, माहौल और कैम्पस भी होता है. स्पेशियस कैम्पस, बेहतर हॉस्टल और शहर से अच्छी कनेक्टिविटी को ध्यान में रखकर नए इंस्टीट्यूट्स अक्सर शहर के आउटस्क्ट्र्स पर हाईवे के किनारे होते हैं. किसी भी बड़े शहर से लगे हाईवे पर निकल जाइए आपको हर रोड पर ऐसे दर्जन भर कालेज मिल जाएंगे. लेकिन क्या खेतों में खड़ी इनकी शानदार बिल्डिगों में हम क्वालिटी एजूकेशन के साथ एक आइडियल कैम्पस की अपेक्षा कर सकते हैं? सरकारी कालेज हों या प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स, सभी अच्छे हास्टल और फूडिंग-लॉजिंग फैसिलिटी का दावा करते हैं. इनमें से कुछ के दावे सही भी होते हैं. लेकिन इनमें से कितने हैं जो हास्टल्स में चौबीसों घंटे प्योर ड्रिंंिकंग वॉटर और लेटनाइट स्नैक्स और टी-काफी की फेसिलिटी से लैस हैं? शायद एक भी नहीं. भूलना नहीं चाहिए कि यहां स्टूडेंट्स टफ काम्पटीशन के बाद प्रोफेशनल कोर्सेज को पढऩे आते हैं. उपके लिए पढ़ाई के चौबीस घंटे भी कम होते हैं. ऐसे में ब्रेक के लिए उन्हें देर रात एक-दो कप चाय की तलब होती है तो उन्हें कैम्पस के बाहर किसी ढाबे में जाना पड़ता है. तीन रुपए की चाय के लिए रात में अगर स्टूडेंट्स को तीन किलोमीटर दूर जाना पड़े और इसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़े तो यह उस कालेज के क्वालिटी एजुकेशन के दावे पर सवाल खड़ा करता है.

8/15/09

Stupid common man


देशभक्त कैसे होते हैं पता नहीं लेकिन आम आदमी के ढेर सारे गुण अपने में पाता हूं. तभी तो इंडिपेंडेंस डे पर ना तो प्रधान मंत्री का भाषण मुझे बांध सका ना ही देश भक्ति के गाने और फिल्में. १५ अगस्त को छुट्टी थी. बाहर बूंदाबांदी हो रही थी सो घर में बैठे- बैठे टीवी पर कुछ मनपसंद देखने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता था. ढेर सारे चैनल्स में भटकने के बाद एक लोकल चैनल पर रिमोट अटक गया. उस पर फिल्म 'वेडनस डे' शुरू ही हुई थी. क्या गजब की फिल्म थी. पॉवरफुल स्क्रिप्ट, डायलॉग और शानदार डायरेक्शन. डेढ़ घंटे की फिल्म सांस रोके देखता रहा. उसमें नसीरुद्दीन शाह का डायलॉग था, 'आई एम जस्ट स्टुपिड कॉमनमैन'. बस मेरे अंदर कामन मैन जाग उठा. पिछले दो दिनों में क्या हुआ, एक कॉमनमैन के नजरिए से जस का तस रख रहा हूं . ना कोई पूर्वाग्रह न दुराग्रह. इसमें एक-एक घटना और कैरेक्टर रीयल हैं लेकिन नाम जानबूझ कर नही दे रहा हूं, क्योंकि किसी को अनजाने में भी आहत करने की मंशा नहीं है.
मेरे एक करीबी मित्र के निकट संबंधी का अचानक निधन हो गया. उनको मैं भी जानता था, एक-दो बार मिला था. खबर सुन कर दुख हुआ कि जब कोई अपने कॅरियर के सर्वोच्च पद पर आसीन होने जा रहा हो और उसके जस्ट पहले अचानक चल बसे. मित्र का संदेशा आया कि फलां तारीख को तेरही है बनारस में. लखनऊ में कुछ और कॉमन मित्रों के पास भी संदेशा आया. पांच मित्रों ने तय किया कि साथ चला जाए. इत्तफाक से अगले दो दिन छुट्टी भी थी. पांच मित्रों में मुझे लेकर तीन जर्नलिस्ट थे, एक बिजनेसमैन और एक बड़े अधिकारी. अधिकारी ने बड़ी एसी कार का इंतजाम किया और हम सुबह ही निकल पड़े बनारस की ओर. योजना बनने लगी कि तेरही के बाद बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए जाएं फिर लौटा जाए. ये सब काम शाम छह बजे तक हो जाएगा. मित्रों में मुझे छोड़ सब सोमरस के प्रेमी थे सो किसी ने सलाह दी कि यार जल्दी क्या है इसके बाद कहीं 'बैठा' जाए. कल तो छुट्टी है. अधिकारी मित्र बोले अरे मेरा बैचमेट जिले में... है, तीन महीने पहले ही पोस्टिंग हुई, अभी फैमिली नहीं लाया है. मित्र ने अपने बैचमेट को फोन कर शाम छह बजे का टाइम फिक्स कर लिया. साथियों की संख्या भी बता दी. इसके बाद तो सब जोश में आ गए. यात्रा के शुरू में पान मसाले के पाउच खरीदे गए. एक बार में सौ का पत्ता खर्च होते देख मैं थोड़ा और दुबक कर बैठ गया. क्योंकि उस गुट में आर्थिकरूप से सबसे नीचे मैं ही था. पत्नी ने कुछ पैसे दिए थे इस हिदायत के साथ की संभाल कर खर्च करना. इस लिए पेमेंट का इनिशिएटिव नहीं लिया और ना ही किसी ने कहा. अब सब को भूख भी लग गई थी. एक बढिय़ा से ढाबे पर रुके. शरीर से खाते-पीते घर का लगता हूं लेकिन वास्तव में मेरी डायट बहुत कम है. थोड़ी सी पकौड़ी, चौथाई आलू के पराठे के एक गिलास लस्सी के बाद मुझे लगा कि अब तेरही भोज में क्या खाऊंगा. और भाई लोग मक्खन मार के पूरा का पूरा पराठा चांप रहे थे. तीन बजे करीब हम लोग बनारस पहुंच गए. वैसे 74 की उम्र में जिनका निधन हुआ था वो भरापूरा परिवार छोड़ गए थे. हम रास्ते भर ठहाका लगाते आए थे लेकिन तेरही में आए थे इस लिए गंभीरता ओढ़े श्रद्धांजलि अर्पित कर चुपचाप बैठ गए. मेरे करीबी मित्र जिनके संबंधी का निधन हुआ था, वो पंाच मिनट से ज्यादा गंभीर नहीं रह सकते. वही हुआ जिसका डर था. बैठक में बड़ी बड़ी डिग्निटरीज और लाल बत्ती वाले लोग बैठै थे. मित्र ने बारी बारी से लखनऊ से पहुंची हमारी मंडली का परिचय कराया. फिर वहीं पर बैठे एक सज्जन का परिचय हास्य कवि के रूप में कराते हुए उनसे एक-दो कविताएं सुनाने का अनुरोध कर डाला. कवि भी लोकल लंठ किस्म के थे सो दनादन सुनाने लगे लंठई भरी कविता. इसके बाद तो बैठक में गुलाब की माला में लिपटी दिवंगत शख्सियत की मुस्कराती तस्वीर के साथ बाकी लोग भी मुस्करा रहे थे. यही है जिंदगी का सच.
खैर आगे बढ़ते हैं. अब हमारी मंडली को बाबा विश्वनाथ के दर्शन से ज्यादा जल्दी शाम को 'बैठने' में थी. हमने फटाफट बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए और पहुंच गए होस्ट अधिकारी के यहां. वो बनारस प्रशासन में बहुत ही सीनियर पोस्ट पर थे. बड़ी आत्मीयता से मिले लेकिन उनकी हालत देख दिल बैठने लगा. छह बजे के पहले ही लगता था पूरी बोतल उतार चुके थे. प्लेट में फ्राइड फिश के कुछ अस्थि पिंजर पड़े थे. हम लोगों देखते ही चपरासी फ्राइड फिश और भुने हुए काजू रख गया. फिर निकली महंगी बोतल. मैं अंदाज लगाने लगा कि बोतल कितने की होगी और काजू का क्या भाव चल रहा. शायद कामन मैन के आधे महीने की पगार के बराबर. लोग स्माल और पटियाला पैग की नापजोख में उलझे थे और मेरा सारा कंस्ट्रेशन भुने हुए काजू पर था. होस्ट अधिकारी में गजब का स्टेमना था देखते ही देखते आधी बोतल गटक गए. फिर तय हुआ कि अब देर ज्यादा हो गई है. सुबह लखनऊ लौटा जाए. रुकने के लिए होस्ट अधिकारी ने कहा फलाने क्लब में चलते हैं वहां 'बैठने' ,खाने और ठहरने का इंतजाम हो गया है. सब लोग जा पहुंचे क्लब में. क्लब के पदाधिकारी ने इतनी गर्मजोशी से स्वागत किया किया जैसे कोई दामाद की करता है. लगता है होस्ट अधिकारी से उसकी गोटी जरूर फंसी होगी. लेकिल वो मेहमाननवाजी (या चापलूसी) इतने भौंडे ढंग सें कर रहा था कि बार- बार एक्सपोज हो रहा था. क्लब का वो पदाधिकारी भी सरकार से वेतन ले रहा था, शहर में कारोबार कर रहा था और क्लब का पदाधिकारी भी था. खैर, एकबार फिर से चला पैग का दौर. मैं नहीं लेता सो मेरे लिए पहले फ्राइड शाही पनीर टाइप की कोई चीज आई स्प्राइट के साथ. बाकी लोग चिकन और मटन पीसेज ले रहे थे. मेरे लिए फिर वेज सूप आया. प्याज के साथ पीनट्स भी रखे थे. इसके बाद क्लब के पदाधिकारी ने डिनर की जिद की. अपनी मंडली की डाइट देख दंग रह गया. मैंने दो चम्मच चावल खा कर हाथ खड़े कर दिए. अब तक कामनमैन के पेट में लस्सी, पराठे, पकौड़ी (तेरही में ग्रहण किए गए गुलाब जामुन, पूड़ी, रायता बूंदी) काजू, पीनट्स, स्प्राइट और सूप में घमसान मचा हुआ था. लेकिन बाकी लोग चांपे जा रहे थे. रात में एसी कमरे में ठीक से नींद नही आई. सुबह तय किया कि चाय के अलावा किसी चीज की तरफ देखूंगा भी नहीं. भाई लोगों ने सुबह फिर टोस्ट बटर चांपा. लखनऊ लौटते समय मेरा पेट जलोदर के मरीज की तरह तन गया था. टोली सुल्तानपुर में फिर उसी ढाबे पर रुकी और फिर चला मक्खन मार के आलू पराठे और पकौड़ी का दौर. दोपहर घर पहुंचा. दिन भर कुछ नहीं खाया. पत्नी ने ताना मारा - ज्यादा भकोस लिया होगा. सोचने लगा इस ट्रिप में अगर हर चीज के पैसे देने पड़ते तो कितना खर्च होता? शायद एक मिडिल क्लास कॉमनमैन की एक महीने की पगारके बराबर. मैं खुश था कि पत्नी ने जो पैसे दिए थे वो बचे हुए थे. अब इसे आप इसे स्टुपिड कामनमैन मेंटेलिटी कहें या मिडिल क्लास का संत्रास.

8/7/09

इंटेलिजेंट कलुआ



इधर कई दिनों से खबरें आ रहीं है कि शहर में आवारा कुत्तों ने गदर काटा हुआ है. जिसे देखो उसे काट खाते है. इसी संदर्भ में कलुआ और उसके बाऊ के बारे में बताता चलूं. कलुआ का बाऊ हमारे मोहल्ले का कुत्ता था. दिन में दुम हिलाता रात में गुर्राता. कलुआ का बाऊ गुजर गया. अब उसके स्थान पर बेटा कलुआ है. उसे आवारा इस लिए नहीं कहेंगे क्योंकि वह मेरे ब्लॉक के आसपास ही रहता है. मेरी कालोनी में और भी ढेर सारे डॉगी रहते हैं. कुछ सो काल्ड विदेशी ब्रीड के और कुछ क्रास ब्रीड के हैं. इनमें ज्यादातर एसी में रहने के आदी हैं. कुछ फस्र्ट फ्लोर और कुछ सेकेंड फ्लोर पर रहते हैं. समय समय पर कार से घोड़ा अस्पताल इंजेक्शन लगवाने जाते हैं. इधर उधर मुंह नहीं मारते. उन्हें साहब या उनका चपरासी सुबह शाम फारिग कराने के लिए कालोनी में टहलाते हैं. मिसेज खोसला कह रहीं थी कि उनका जर्मन शेफर्ड तो बहुत इंटेलिजेंट है उसे घर के ट्वायलेट को यूज करना आ गया है. वैसे कलुआ भी इनसे कम इंटेलिजेंट नहीं है. उसने फिलहाल मोहल्ले के किसी बाशिंदे को नहीं काटा है. ज्यादा शोर भी नहीं मचाता. कालोनी के अप मार्केट डागी से पंगा भी नहीं लेता. सुना है कि पामेरियन और इसी तरह के दूसरे डागी को ट्र्रेंड करने के लिए लोग बड़ी मेहनत करते हैं, ट्रेनर भी रखते हैं. लेकिन कलुआ तो सेल्फ ट्रेंड है. आपके मन की बात जान लेता है. जुगाड़ू भी नंबर वन. तेज धूप में पेड़ की छांव उसे उतना सुकून नहीं देती जितना मेरे ब्लॉक की सीढिय़ों की ठंडी फर्श. लेकिन कलुआ को पता है कि सीढ़ी पर लेटा वो मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता. सो उसने जुगाड़ खोज लिया है. मेरे आफिस जाने के बाद ही वो सीढ़ी पर अड्डा जमाता है. मेरे स्कूटर की आवाज पहचानता है. स्कूटर की आवाज सुनते ही सीढ़ी से उतर कर बाहर खड़ा हो जाता है. मेरे घर के दरवाजे की आवाज भी पहचानता है और कुंडी खड़कते ही मेरे आगे आगे धीरे धीरे सीढ़ी उतरने लगता है और मेरे जाते ही फिर सीढ़ी पर विराजमान. ब्लॉक में और किसी का लिहाज नहीं करता. एक-आध बार उसने मुझसे भी लिबर्टी लेते हुए ढिठाई दिखाने की कोशिश की और दुम हिलाता हुआ वहीं लेटा रहा लेकिन एक भरपूर लात खाने के बाद अब मेरी इज्जत करता है और सम्मान में बाहर आ कर खड़ा हो जाता है. कई बार डाग कैचिंग स्क्वाड वाले आ चुके हैं. कलुआ उनके हाथ कभी नहीं लगा. उनको देखते ही सट से सेकेंड फ्लोर की सीढ़ी पर दुबक गया. डेस्परेट डाग कैचर्स बाहर फारिग होने निकले एक पट्टे वाले पालतू डागी को ही उठा ले गए. बड़ा हंगामा मचा. अब आप ही बताइए इन टफ कंडीशंस में कलुआ अगर सर्वाइव कर रहा है तो वो इंटेलिजेंट तो होगा ही.

8/2/09

तन डोले मेरा मन डोले




सावन मतलब पवन करे शोर, सावन मतलब नागपंचमी, सावन मतलब सांप सपेरे मेले-ठेले. सावन जाने को है तो जाते जाते थोड़ा नागिन डांस की बात हो जाए. आज कल फिर बीन की धूम है. एक तो सावन का महीना और दूसरे लव आजकल में सैफ अली खान और दीपिका पाडुकोण का मस्त नागिन रीमिक्स डांस. कुछ दिन पहले नागपंचमी भी थी. सड़कों पर सांप-संपेरे और बीन की धुन कम सुनाई पड़ी लेकिन टीवी चैनलों ने कसर पूरी कर दी. एक चैनल ने बीन बजाई तो देखादेखी दूसरे चैनल भी नागिन डांस करने लगे. फिल्म नागिन में ...तन डोले मेरा मन डोले... ये कौन बजाए बांसुरिया.. गाने में जो बीन बजी वो आधी सदी बाद आज भी हिट है. उसकी धुन पर आज भी लोग झूम रहे हैं. अब ना तो उतने सांप रहे ना ही सपेरे लेकिन बीन की धुन का नशा बरकरार है. बीन की धुन पर नागिन डांस हिट होने की गॉरंटी है. इसी लिए तो मधुमती फिल्म के गाने... दैया रे दैया चढ़ गयो पापी बिछुआ... में बिच्छू के डसने पर भी बीन की धुन ही बजी. और अब लव आजकल में फिर इसी धुन की धूम है. लोक कथाओं में इच्छाधारी सांपों के बारे में पढ़ा था जो किसी का भी रूप धारण कर सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं. सांपों पर बनी फिल्मों में कभी जितेन्दर, कभी रीना राय तो कभी श्रीदेवी इच्छाधारी नाग और नागिन का किरदार निभा चुके हैं. लव आजकल फिल्म सांप-सपेरों पर नहीं है लेकिन जब इसके म्यूजिक डायरेक्टर इच्छाधारी हो सकते हैं यानी बीन की धुन बजा सकते हैं तो मैं 'इच्छाधारी' क्यों नहीं बन सकता?
पता नहीं क्यों छुट्टी के दिन मैं 'इच्छाधारी' बन जाता हूं. कुछ भी सोचने सोचते कहीं भी पहुंच जाता हूं. छोटी-छोटी बातें और यादें मन को उसी तरह हल्का कर देती हैं जैसा कि ध्यान या योगा के बाद महसूस होता है. ये बचपन की यादें भी हो सकती हैं और एक दिन या हफ्ते पहले घटी कोई घटना भी. जैसे बात सावन के पहले की है. एक दोस्त के रिश्तेदार की बारात में गया था. बारात दरवाजे पर पहुंचते ही नागिन धुन बजने लगी. अचानक देखा कि चमकीली पगड़ी और शेरवानी पहने दूल्हे राजा भी दोनों हाथ ऊपर किए मगन हो नागिन डांस कर रहे हैं. पहली बार दूल्हे को लड़की वालों के दराजे पर डांस करते देखा तो पक्का विश्वास हो गया कि बीन की धुन में कोई जादू है.
समय के साथ भागते और बदलते रहने की जद्दोजहद के बीच पुरानी रेल, कारें, कोठियां, दरख्त, फिल्म, म्यूजिक, गाने और यादों के झोंके रोमांच और रूमानियत से भर देते हैं. कुछ लोग मार्डन कहलाने के चक्कर में पुराने की तारीफ करने में पता नहीं क्यों हिचकिचाते हैं. वे भूल जाते हें कि पुराने की नींव पर ही मार्डनिटी की इमारत खड़ी होती है. आज जो बेहतरीन है वो पुराना होने पर क्लासिकल बन जाती है. क्लासिकल और मार्डनिटी में एक फ्यूजन है जिसे अलग नहीं किया जा सकता. इस फ्यूजन में एक खास तरह का नशा है. इसी लिए तो पुराने गानों और थीम को बार बार नई फिल्मों में लिया जाता है और लोग उसे बड़े चाव से देखते -सुनते हैं. मैं अक्सर रात को पुराने फिल्मी गाने सुन कर सोता हूं. ये मन को सुकून देते हैं. कुछ लोग छुट्टी में पूरे हफ्ते का पेंडिंग घरेलू काम निपटाते हैं, कहीं आउटिंग पर जाते हैं, कुछ बढिय़ा खाते हैं और कुछ चादर तानकर सोते हैं. छुट्टी का असली मजा लेना हो तो आप इच्छाधारी बन अपने तन और मन को बिल्कुल छुट्टा छोड़ दें, बिंदास. तन डोलाने का मन ना हो तो मन डोलाएं फिर देखिए अगले दिन कैसे रिचार्ज होते हैं.

7/15/09

ब्लैकबेरी



वो जमाने लद गए जब मोबाइल रखना प्रेस्टिजियस माना जाता था. हां, महंगे मोबाइल अब भी शान समझे जाते हैं जैसे ब्लैकबेरी. हमारा एक साथी रिपोर्टर अचानक कहीं से एक ब्लैकबेरी ले आया है. उसके हाथ में ब्लैकबेरी किसी ब्रेकिंग न्यूज से कम नहीं. ले आया इस लिए कि इस पर विवाद है कि ये फोन उसे कहां से मिला. आप कुछ और समझें इसके पहले बताता चलूं कि वह अल्लाह से डरने वाला एक मेहनतकश रिपोर्टर है. जहां ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि की स्टाइल में काम करता है. आइडियाज इतने इनोवेटिव कि बाकी रिपोर्टर दांतों तले उंगली दबा लें लेकिन कभी कभी इनोवेशन के चक्कर में सीनियर्स की डांट भी खा जाता है. फिलहाल उसके ब्लैकबेरी को लेकर जितने मुहं उतनी बातें. किसी ने कहा, अबे किसी ने गिफ्ट किया होगा, उस जैसा सूम और इतना महंगा मोबाइल. दूसरा बोला, महंगा मोबाइल लेने से चिरकुटई थोड़े ही कम हो जाएगी, अभी भी ब्लैकबेरी से मिसकॉल मारता है. तीसरा बोला, सेकेंडहैंड लिया होगा. चौथे ने ध्यान से उसेे उलटा पलटा, ये तो डुप्लीकेट है-चाइनीज. और बेचारा ब्लैकबेरी, अपनी किस्मत को कोस रहा है कि कहां फंस गया डाउन मार्केट लोगों के बीच. तीन दिनों में उसे इतने हाथों ने नचाया कि उसकी हालत वैसी हो गई जैसे रजिया फंस गई हो गुंडों में. कोई उसके फीचर्स परख रहा है कोई नेट सर्फिंग और एसएमएस भेजने के जुगाड़ देख रहा है. और रिपोर्टर साहब हैं कि कमर में ब्लैकबेरी रिवाल्वर की तरह खोंसे टेढ़े टेढ़े घूम रहे हैं. जेब में नही रखते. पूरी कोशिश है कि ये फोन ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजरों में आए. किसी बड़े अधिकारी से मिलने जाता है तो बहाने से सेलफोन सामने टेबुल पर जरूर रख देता है. हद तो तब हो गई जब खादी आश्रम में 75 साल के वृद्ध भैया जी के सामने भी उसने तीन बार ब्लैकबेरी घुमाया. भैया जी को देख कर नहीं लग रहा था कि उन्होंने कभी साधारण मोबाइल भी प्रयोग किया होगा. रिपोर्टर साथियों में चर्चा है कि ब्लैकबेरी पाकर वो बौरा गया है. कॉल आती है तो हैलो भी स्टाइल से बोलता है. किसी ने बता दिया है कि इस फोन में आवाज छन छन कर आती है. सो बात करने वाले से पूछना नहीं भूलता कि बताओ मेरी आवाज कैसी आ रही है, बिल्कुल साफ छन कर आ रही है कि नहीं? दरअसल मैं ब्लैकबेरी से बात कर रहा हूं. आपके पास उसका फोन आए तो कुछ पूछने से पहले ही कह दीजिए कि यार तुम्हारी आवाज छन छन कर आ रही है. उसका नंबर है 09450874346.

7/12/09

व्हाट ऐन आइडिया सर जी!



पॉपुलेशन कंट्रोल के लिए बिजली जरूरी है. बिल्कुल सही बात है. बिजली मतलब विकास, विकास मतलब बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य यानी बेहतर जीवन स्तर और बेहतर जीवन स्तर से आबादी अपने आप काबू में आने लगती है. ये तथ्य प्रमाणित है. लेकिन गांव-देहात में आबादी पर काबू पाने के लिए बिजली की एक और भूमिका पर तो ध्यान ही नहीं गया था. गांवों में बिजली होगी तो लोग टीवी ज्यादा देखेंगे. इतना ज्यादा देखेंगे कि उनको रतिक्रीड़ा का समय ही नही मिलेगा. मिलेगा भी तो टीवी देख देख कर इतना थक चुके होंगे कि कमरे की बत्ती बुता कर चुपचाप सो जाएंगे. यानी नो मोर बच्चा. बिजली और टीवी का प्रयोग कंट्रासेप्टिव के रूप में ? क्या आइडिया है सर जी!
सर जी का एक आइडिया और है कि शादी ३० तीस साल के बाद की जाए. शहरों में तो लोग अब वैसे ही कैरियर बनाते ३० के हो जाते हैं. शादियां ३० के बाद ही होती हैं. लेकिन गांव में ३० साल के लोग पुरायठ माने जाते हैं यानी शादी की एक्सपायरी डेट पार कर चुके. काश, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद जैसा सोचते हैं वैसा ही होता लेकिन व्यावहारिक रूप में स्थिति तो ठीक उलट है. सर जी ने ये कैसे मान लिया कि रात को जितने लोग टीवी देखते हैं वो प्रवचन, भजन कीर्तन और अन्य बड़े सात्विक टाइप के कार्यक्रम ही देखते होंगे और फिर पत्नी से कहते होंगे कि हे प्रिये जब मैं टीवी देख कर इतना थक जाता हूं तो तुम तो और थक जाती होगी क्योंकि तुम्हें तो घर के बाकी काम भी करने पड़ते हैं लिहाजा शुभरात्रि. लेकिन माफ कीजिएगा शालीनता से परे जाकर कर बात कर रहा हूं. रात में टीवी पर पारा गरम जैसे देसी ठुमके वाले मसालेदार सेक्सी कार्यक्रम, एमटीवी और एएक्सएन पर हॉट रियलिटी शोज और एडल्ट मूवी की भरमार होती है. ऐसे कार्यक्रम देख थकाहारा व्यक्ति भी जोश में आ जाता है और अपने पतिधर्म को तत्काल पूरा करना पुनीत कर्तव्य समझता है भले ही उसकी घराली किसी भी स्थिति में हो. नतीजा- पॉपुलेशन में कुछ और वूद्धि. तो सर जी, आपके कश्मीर क्या किसी भी राज्य में ये आइडिया कारगर होगा इसमें संदेह है.

7/1/09

किसिम किसिम के एटीएम






छोटा एटीएम, मोटा एटीएम, खोटा एटीएम, सोता एटीएम, रोता एटीएम. एक साल में हर तरह के एटीएम से मेरा पाला पड़ चुका है. ना तो मैं कोई धन्नासेठ हूं ना जालसाज और ना ही चिरकुट लुटेरा. मैं बंधी पगार वाला एक आम नागरिक जो महीने में एटीएम का तीन-चार चक्कर जरूर लगाता है. दरअसल एटीएमीकरण से जो समाजवाद आया, उसी का नतीजा है ये. अब तो सब धान बाइस पसेरी. कोई कार्ड किसी में ढुकाइए (ठेलिए) पैसा बराबर मिलेगा. आपके पास किसी सिटी बैंक का कार्ड हो या घाटे वाले नेशनलाइज्ड बैंक का अब तो सब कार्ड सब में चलता है. जहां तक याद पड़ता है मेरे शहर में टाइम और आईडीबीआई बैंक ने एटीएमए कार्ड सबसे पहले शुरू किए लेकिन इसकी लिए खाते में मिनिमम दस हजार बैलेंस की शर्त थी. लोग एटीएमए कार्ड उसी तरह शान से चमकाते फिरते थे जैसे शुरू में मोबाइल. मैंने भी उस समय हिम्मत कर एक कार्ड बनवाया था. पैसा निकालने से ज्यादा ध्यान इस पर रहता था कि बैलेंस दस हजार से कम न हो जाए. अब तो समाजवाद है. पूरा खंगाल लो, जीरो बैलेंस नो प्राब्लम. जहां मैं रहता हूं वहां दो किलोमीटर के दायरे कम से कम दस एटीएम तो होंगे ही. सब की नब्ज टटोल चुका हूं.
सबसे पहले एक बड़े बैंक के छोटे एटीएम बात करें. मजाल है कभी उसने पूरा पैसा दिया हो. मांगो दस हजार देता है पांच. थोड़ी दूर पर है एक मोटा एटीएमए. केबिन में एक नहीं तीन मशीनें. मस्त एसी. शीशा भी लगा है सूरत देखने के लिए (सुना है शीशे के पीछे खुफिया कैमरा लगा होता है). लेकिन तीनों मशीनें तीन तरह की. एक में टच स्क्रीन, जिसको कई बार अपना पैसा टच कराने में उंगली दुखने लगती है. दूसरे में कार्ड स्वैपिंग सिस्टम है. अक्सर कई बार स्वैप करने पर ही रिसपांस देता है. और तीसरी मशीन तो पूरा कार्ड गड़प कर जाती है. पैसा देने के बाद ही कार्ड उगलती है. कभी कभी ना पैसा देती है ना कार्ड उगलती है. जब नया कस्टमर कार्ड ठेलता है तब जाकर पुराना कार्ड उगलती है. बगल में ही एक खोटा एटीएम है जिसमें कभी पैसा नहीं होता कभी स्टेटमेंट स्लिप. एसी तो शायद ही कभी चलता हो. पास में एक सोता एटीएम भी है. पांच में चार बार आउट आफ आर्डर. कभी चालू मिलेगा तो गारंटी नहीं कि कब बीच में ही ठेंगा दिखा दे, कार्ड बैरंग लौटा दे. और एक है रोता एटीएमए. मैं उस पर अधिक भरोसा करता हूं क्योंकि वो जैसा भी है, दगाबाज नहीं है. उस एटीएमए मशीन की चेचिस तो ठीक है लेकिन भले ही सौ रुपए निकाले, आवाज इजना करता है कि किसी पुरानी एंबेसडर का इंजन अंदर लगा दिया गया हो. बड़ी देर तक खड़ खड़ खड़-घर्र घर्र घर्र जैसे सौ रुपया देने से पहले गुस्से में मशीन बार बार पैसा गिन रही हो और कह रही हो पता नहीं कहां से चले आते हैं कंगाल. कभी लगता है आपनी पूरी थैली खाली कर देगी या नाराजगी में आपका पूरा बैलेंस ही मुहं पर दे मारेगी. लेकिन गनीमत है इन मशीनों ने कभी पैसा कम नहीं गिना और फर्जी नोट नहीं दिए. पड़ोस में एक और नया एटीएम खुल रहा है जल्द ही उस पर भी कार्ड फेरूंगा, देखें किस कैटेगरी में आता है.

6/28/09

लखनऊ का 'बंद' रायबरेली का 'पापा'



चाय के साथ पावरोटी खाने में जो मजा है वो पिज्जा, बर्गर और हॉटडाग में कहां. तभी तो ममता दीदी ने रेल मंत्री बनने के बाद आफिस जाकर सबसे पहले डबलरोटी और चाय का नाश्ता किया. पावरोटी के कई चचेरे भाई हैं रस्क, बंद और जीरा, ये ब्रेड ना मिलने पर वैकल्पिक संतुष्टि के लिए उपलब्ध रहते हैं. बंद के साथ खास बात है कि मक्खन ना हो तो भी चलेगा. इसी तरह रस्क और जीरा भी सेल्फसफिशियेंट हैं. जीरा समझ गए ना सूखी लकड़ी या चैला या नमकीन खाजा टाइप की चीज जिसे चाय में डुबो कर खाया जाता है. यह चाय की आधी कीमत पर मिलता है लेकिन अगर आपने इसे कप में दो बार डुबो दिया तो पूरी चाय सोख लेगा. इसका नाम जीरा शायद इस लिए पड़ा कि इसके मुंह में चाय जीरा समान ही होती है. और इसी तरह बंद भी दो डुबकी में पूरी चाय सुड़क जाता है. अक्सर आधा बंद हाथ में ही रहता है और चाय का पूरा कप खाली. इस लिए बंद खाएं तो एक लोटा चाय लेकर बैठें. पता चला है कि रायबरेली में जीरा का एक फुफेरा भाई 'पापा' भी आ गया है. इस के बारे में लोग अभी कम ही जानते हैं. पता चला है कि बंद जब पुराना होने लगता है तो उसे आंच में सुखा कर 'पापा' बनाया जाता है. चाय सुड़कने में यह बंद और जीरा से भी बड़ा उस्ताद है.

6/21/09

कलुआ का बाऊ


रात के डेढ़ बजने को हैं और फिर मन में धुक-धुकी लगी है कि साला कलुआ फिर बैठा होगा अपने गैंग के साथ मेरी ताक में. पहले कलुआ के बाऊ (बाबू) से त्रस्त था अब उसके बेटे से त्रस्त हूं. बाप भी काला बेटा भी काला, तन से भी और मन से भी. ऐसे डबल कैरेक्टर वाला जीव आज तक नहीं देखा. दिन में इतना शरीफ और निरीह जैसे रात में कुछ हुआ ही नहीं. कई बार बंद और डबलरोटी खिलाई लेकिन कोई असर नहीं. डाटो तो भी भीगी बिल्ली बना रहता है और उसके साथी भी बड़े दोस्ताना अंदाज में मिलते हैं और रात को दुश्मन बन जाते हैं. पुलिस वाले भी मदद नहीं करते, कहते हैं मेरे महकमे का मामला नहीं है. क्षेत्र के दबंग कारपोरेटर से भी मदद की गुहार लगाई, उसने भी हाथ खड़े कर दिए. कहा शाम छह बजे के बाद संबंधित विभाग कार्रवाई नहीं कर सकता, संसाधनों की कमी है. मेरे घर के रास्ते में कलुआ का इलाका पड़ता था. कमबख्त मेरी स्कूटर की आवाज पहचानता था. हेड लाइट देखते ही पूरा गैंग एलर्ट हो जाता था. मैं स्कूटर आराम से चलाने का आदी हूं सो जब बहुत करीब आ जाता तभी अचानक पूरा गैंग झपट पड़ता. दहशत में एक-दो बार गिरते-गिरते बचा. उसका हमला होते ही अनायास एक्सीलेटर बढ़ा देता. कलुआ के साथी पीछे छूट जाते लेकिन कलुआ गली के छोर तक खदेड़ता था. दूसरी रणनीति आजमाई कि जब कलुआ का गैंग झपटे तो खड़े हो जाओ लेकिन इसमें जोखिम ज्यादा नजर आया. लगा कि न जाने कलुआ के मन में क्या हो. सो गति में ही ज्यादा सुरक्षा महसूस हुई. कलुआ का इलाका करीब आते ही स्कूटर की गति बढ़ा देता था कि देखें कितनी तेज भागता है स्प्रिंटर की औलाद. रणनीति कारगर लग रही थी. कुछ दूर दौडऩे में उसकी हफनी छूट जाती थी और मैं विजयी भाव से फिनिश लाइन पार कर जाता था. लेकिन ये ज्यादा दिन नहीं चला. कलुआ ने भी इसकी काट निकाल ली. स्कूटर की आवाज सुनते ही कलुआ पहले से ही स्कूटर वाली दिशा में आगे-आगे दौडऩे लगता, उसी तरह जैसे रिले रेस में पीछे से आ रहे साथी का बैटन लेने से पहले ही टीम मेंबर स्टार्ट ले लेते हैं. और स्कूटर करीब आते-आते कलुआ अच्छी स्पीड में होता. मुझे स्वभाव के विपरीत स्कूटर और तेज गति से भगानी पड़ती. एक-एक रात मुश्किल से कट रही थी. लेकिन एक रात कलुआ ने नहीं दौड़ाया, उसके साथी भी नहीं दिखे. सुखद एहसास, आतंक का खत्मा. तो क्या कलुआ युग का अंत हो गया? सुबह आफिस जाते समय नजर इधर उधर कलुआ को खोज रही थीं तभी सड़क किनारे कलुआ लेटा दिखा. पास गया, कोई हरकत नहीं. कलुआ की सांसे नहीं चल रहीं थीं. किसी वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी. उसका मुंह खुला हुआ था. लग रहा था वह हंस रहा है और मुझसे कह रहा, क्यों बच्चा खा गए ना गच्चा. कुछ महीने सब शंाति से चला लेकिन फिर एक नया कलुआ पैदा हो गया और आजकल फिर मुझे दौड़ा रहा है.
अब आप समझदार हैं जान ही गए होंगे कलुआ कौन था और कौन है. फोटो से भी नहीं समझ आया तो इंतजार करिए.. कलुआ के बेटे की कहानी.. का

6/19/09

चित्रकूट के घाट पर 'केवट' से मुठभेड़


मेरे पापा सबसे बहादुर: घायल इंस्पेक्टर के साथ उनकी बेटी (फोटो: साभार आई नेक्स्ट)
...............आपने देखा होगा १६/६ यानी चित्रकूट में ५० घंटे तक चला लाइव एन्काउंटर. २६/११ से भी ज्यादा देर तक चली मुठभेड़. २६/११ में विदेशी आतंकी थे, १६/६ में था एक देसी डाकू. खबरिया चैनल्स और अखबारों में तीन दिन यह मुठभेड़ सुर्खियों में रही. सब यूपी पुलिस को पानी पी-पी कर गरिया रहे थे. हमेशा यही होता है. क्योंकि एसी कमरे में बैठ कोल्ड ड्रिंक के साथ किसी खबर या कवरेज पर टिप्पणी करना, गल्तियां निकालना बहुत आसान है लेकिन जमीनी हकीकत में बहुत फर्क होता है. ४३ डिग्री की गर्मी में बीहड़ में बिना दाना-पानी पांच घंटे बैठने में बड़ों बड़ों को गश आ जाता है. पुलिस वाले तो ५० घंटे तक डटे रहे. पुलिस की रणनीति में, संसाधनों में लाख कमी हो लेकिन उसके मनोबल और बहादुरी पर सवाल उठाना, मारे गए पुलिस कर्मियों और उनके परिवार वालों का अपमान है. १६/६ की मुठभेड़ में डाकू घनश्याम के मारे जाने के कुछ ही पहले शहीद होने वाले कांस्टेबल वीर सिंह को कमरे में छिपे डाकू ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी. डाकू के पास कोई विकल्प नहीं था. अगर डाकू निकल कर गोली नहीं चलता तो वहीं मारा जाता लेकिन वीर सिंह के पास तो विकल्प था. वह अन्य साथियों की तरह पेड़ या दीवार की आड़ में पोजीशन लिए बैठ सकता था लेकिन उसने तो मिशन पूरा करने के लिए आगे बढ़ कर सांप के बिल में हाथ डाल दिया. वीर सिंह की बहादुरी को सलाम. माना कि पुलिस फोर्स में ढेर सारे लोग तोंदियल और लेथार्जिक हैं लेकिन चुस्त दुरुस्त जवानों की भी कमी नहीं है. अगर ये ना होते तो ५० घंटे में भी डाकू का काम तमाम ना होता.
दूसरी सबसे आसान चीज है सिस्टम को भ्रष्ट कह देना. हम भी तो उस सिस्टम का हिस्सा हैं और हम भ्रष्ट हैं तभी तो सिस्टम भ्रष्ट है. नौकरी के कुछ सालों बाद ही हम तोंदियल, आलसी और आरामतलब हो जाते हैं. जाहिर है हम अपना काम ठीक से नहीं कर रहे या संसाधनों का मिसयूज कर रहे हैं. क्या ये सब भ्रष्टाचार नहीं है? घनश्याम केवट एक निहायत धूर्त और दुर्दांत अपराधी था. जब वह मकान से निकल कर भागा तो लोग उसकी फुर्ती देख कर दंग रह गए. यह उसका फिट और छरहरा शरीर ही था जिसके बल पर वह पचास घंटे तक टिका रहा. यह देख कर मुझे लखनऊ चिडिय़ा घर का वो आदमखोर बाघ याद आ गया जो आधा दर्जन लोगो ंकी जान लेने के बाद पकड़ा गया था. उसने मजबूत पिंजरे में अलग रखा गया था. मझोले कद का एक दुबला पतला यह नरभक्षी कोने में बैठा गुर्रा रहा था. मुझे जू के आलसी और स्थूलकाय बाघ देखने की आदत थी जो कितना भी छेडऩे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते थे. मैंने अनायास ही उसकी ओर हाथ उठा दिया. अचानक वह इतनी जोर से दहाड़ा कि रूह कांप गई. लगा कि पिंजरा तोड़ मुझे कच्चा चबा जाएगा. जू का गार्ड मुस्कराया, साहब यही फर्क है पिंजरे में बंद और जंगली जानवरों में. घनश्याम एक ऐसा ही छरहरा हिंसक जंगली डाकू था. लेकिन आपरेशन घनश्याम केवट पर उंगली उठाने वाले लोग भी मुझे जानवरों जैसे ही लगे जो कमरों में बैठे बैठे आलसी, आरामतलब और स्थूलकाय हो गए हैं

6/15/09

झूठ बोले कुत्ता काटे.



न तो मैं नगर निगम की डॉग कैचर स्क्वाड में हूं न पशु प्रेमी और ना ही पशुओं के प्रति हिंसा का भाव रखता हूं. आवारा कुत्ते हों या किसी घर के दुलारे स्वान, उनके प्रति तटस्थता का भाव ही रहता है. मैं एक आम आदमी हूं जिसे कभी पैदल, कभी साइकिल से तो कभी स्कूटर से सड़कों पर रोज ही गुजरना पड़ता है और जो किसी कुत्ते या उनके झुंड को आसपास देखते ही एक अनजाने भय और रोमांच से घिर जाता है. क्योंकि अलग अलग परिस्थितियों में कुत्तों को पुचकारने और दुत्कारने के फारमूले आजमा चुका हूं लेकिन दोनों का इफेक्ट सेम होता है यानी कुत्तों को जो करना हैं करेंगे. कई बार कुत्ते काटते काटते रह गए और दो बार डॉग बाइट झेल चुका हूं. दोनों ही बार मुझे 'लूसी' ने ही काटा. 'लूसी' मेरे एक अजीज मित्र की दुलारी .....? थी. कुत्तों की वाइफ को क्या कहते हैं, आप जानते ही होंगे लेकिन मित्र उस शब्द का प्रयोग करने पर नाराज हो जाते थे सो 'लूसी' ही ठीक है. मित्र के घर जाने पर इंश्योर करवाता था कि 'लूसी' आसपास ना हो लेकिन फिर भी उस कम्बख्त ने दो बार काटा. पिछले जनम की कोई खुन्नस रही होगी. मैंने दोनों बार सिंगल डोज के महंगे एंटी रैबिक इंजेक्शन ठोंकवाए. ऐसे ही एक दिन मित्र के यहां पहुचा. कॉलबेल बजाने पर 'लूसी' के भूंकने की आवाज नहीं आई. लगा कि आज जरूर उसी सोफे के नीचे दुबक कर बैठी होगी जहां से निकल कर दो बार मुझे काट चुकी है. मित्र मुहं लटकाए निकले, मैं सहमा सा ड्राइंगरूम की तरफ यह कहते हुए बढ़ा कि 'लूसी' को बांध दो. तभी भाभी जी की उदास आज आई, भाइया 'लूसी' कहीं चली गई है. चली गई मतलब? कोई उसे उठा ले गया. अरे अड़ोस पड़ोस के कुत्तों के साथ होगी, आ जाएगी. नहीं भइया सुबह से है गायब है. इन्होंने तो तब से एक निवाला मुंह में नहीं डाला है.
शाम के सात बज रहे थे. मित्र का परिवार बिना खाए पीए बैठा था लेकिन मुझे लगा रहा था कि अचानक किसी ने मेरे मुहं में गुलाब जामुन डाल दिया हो, खुशखबरी सुना दी हो. लेकिन खुशी को भरसक दबाते हुए मैंने भी सहानुभूति जताई कि कैसे पूरे घर को गुलजार रखती थी. अब कितना सूना लग रहा है. लेकिन उम्मीद मत छोड़ो रातबिरात शायद लौट आए. अगले दिन सुबह ही मित्र को फोन कर पता किया कि लूसी लौटी कि नहीं. लूसी अब तक नही लौटी थी. जिसने भी लूसी को गायब किया था उसके प्रति मन श्रद्धा से भर गया. मित्र के प्रति भी सहानुभूति थी लेकिन ये भी पता था कि कुछ दिन में वो दूसरा स्वान ले ही आएंगे. इसके बाद मैं निर्भय होकर मित्र के घर लाने लगा. जैसा फील किया सच सच बता दिया. झूठ बोलूं तो कुत्ता काटे. ये तो है पहली कड़ी. अगली कड़ी में कलुआ की कहानी.

6/11/09

जरा बचके जरा हट के...ये है इंडिया मेरी जान



ये है जिब्राल्टर का एअरपोर्ट. भौगोलिक स्थिति ऐसी कि हाई-वे और एअरपोर्ट रन-वे एक दूसरे को क्रास करते हैं. अब से रेलवे की लेवल क्रासिंग तो है नहीं कि सब-वे या ओवरब्रिज से काम चल जाएगा सो वर्केबल सॉल्यूशन यही निकाला गया कि जब प्लेन टेकऑफ या लैंड कर रहा हो तो हाई-वे बंद कर दिया जाए और जब रोड चालू हो तो रन-वे बंद. वहां ये व्यवस्था अभी तक तो ठीक से काम कर रही है और कोई हादसा नही हुआ. अब जरा उस स्थिति की कल्पना कीजिए कि अगर ये व्यवस्था भारत के किसी शहर में होती खास कर यूपी और बिहार में तो नजारा कुछ ऐसा होता...
सीन एक... प्लेन टेकऑफ करने वाला है, रोड का बैरियर गिरा हुआ है. वहां तैनात गार्ड या सिपाही लघुशंका करने या पान मसाला लाने गया हुआ है. कुछ मोटर साइकिल और स्कूटर वालों ने अपने वाहनों को तिरछा कर या लिटा कर बैरियर के नीचे से निकलने में सफलता पा ली है और चक्कर में हैं कि प्लेन निकलने से पहले रन-वे के उस पार पहुंच जाएं. तीन-चार लोग निकल भी चुके हैं और एक दूधिया जिसकी मोटर साइकिल पर दूध के कैन बंधे हैं, रनवे के बिल्कुल पास रुक कर प्लेन के निकलने का इंतजार हर रहा है.
सीन दो...
रोड के बैरियर गिरे हुए हैं. रन-वे पर प्लेन टेकऑफ के लिए दौडऩे लगा है कि अचानक प्लेन के आगे-आगे एक गाय और उसके पीछे - पीछे दो सांड़ दौड़ते दिखते हैं
सीन तीन...
फ्लाइट का टाइम हो गया है लेकिन रन-वे क्लीयर नहीं है. ठीक रन-वे को क्रास करने वाली रोड पर वसूली को लेकर ट्रैफिक पुलिस कांस्टेबल का ट्रक और टेम्पो वालों से झगड़ा हो गया है. और उन्होंने अपने वाहन अड़ा कर जाम लगा दिया है और वाहनों की कई मील लंबी कतार लग गई है.
ऊपर वाले का शुक्र है कि भारत में इस तरह की क्रासिंग नहीं है. अगर होती तो रन-वे पर टेम्पो दौड़ते और बोइंग ७४७ क्रासिंग पर डग्गामार बसों की तरह रुक कर सवारी भरते नजर आते.

6/8/09

ट्रेनों में गूंजता संगीत...


समर वेकेशंस, झुलसाती गर्मी और उसमें रेलयात्रा. सोचकर ही पसीना छूटने लगता है. लेकिन कभी आपने महसूस किया है कि रेल और इसकी भीड़ के रेले में भी एक रिद्म है. तो आइए आज आपको इस रिद्म से निकलते संगीत को सुनाएं. बोगियों के भीतर गूंजता संगीत, प्लेटफार्म पर सरकता संगीत. अब ये आप पर है कि आपका 'सेंसर' इस रेडियो की कौन सी फ्रीक्वेंसी पकड़ता है.
आपको मिलवाते हैं रेलवे के रोडीज, जॉकी और रॉकी से. ये सब हैं डेली पैसेजर्स यानी रोज मिलने वाले वे चेहरे जिन्हें देख कर सामान्य यात्री टेंशन में आ जाते हैं पर इन कम्यूटर्स के माथे पर शिकन तक नहीं. भागती-धक्का खाती कभी गुर्राती, कभी मुस्कराती इस कम्युनिटी के पास होता है एमएसटी. एमएसटी बोले तो 'मैनेजमेंट का सीजन टिकट'. क्योंकि ये टिकट उन्हें सिखाता है टाइम मैनेजमेंट, सोशल नेटवर्किंग और उन्हें बचाता है मोनोटोनस लाइफ की ऊब से.
एक बार मैंने भी अपने में एक एमएसटीहोल्डर मित्र के साथ यात्रा की उन्हीं के अंदाज में. यात्रा क्या पूरे दो घंटे की फिल्म थी. एमएसटीहोल्डर्स के रूप में इसमें कई किरदार मिले. कहीं राजू श्रीवास्तव, कहीं जसपाल भट्टी, कहीं मोहम्मद रफी, कहीं बशीर बद्र तो कहीं मुकेश.
फिल्म की शुरुआत हुई मोबाइल कॉल से. नवल भाई, किस ट्रेन से जाते हो? इंटरसिटी से... आज मैं भी चलूंगा तुुहारे साथ.. वेलकम सरजी.. स्टेशन पहुंच कर काल करते हैं.. 8.10 पर ट्रेन है. मैं आधा घंटे पहले स्टेशन पहुंच गया. इंक्वायरी बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, कुली ने बताया इंटरसिटी छह नंबर से जाती है. 8.05 पर नवल भाई का फोन आया, कहां हैं? छह नंबर पर खड़ा हूं. अरे.. ट्रेन तो आ गई..तीन नंबर पर आइए, ट्रेन में हूं. ये कैसी व्यवस्था है, कोई एनाउंसमेंट नहीं, ऐसे तो ट्रेन छूट जाती. मैं प्लेटफार्म नंबर तीन की ओर भागा. ट्रेन खड़ी थी. गजब की भीड़. फिर फोन किया, नवल कहां हो. इंजन की तरफ आइए, कोच 4463. मैं फोन कान में लगाए बढऩे लगा. आप दिख गए सरजी...बस सामने वाले डिब्बे में चढ़ जाइए. मैं हकबकाया सा सामने वाली कोच में चढ़ गया. भीतर पैर रखने की जगह नहीं. अंदर की तरफ आइए.. मैं यात्रियों ठेलता हुआ धीरे धीरे बढऩे लगा. तभी आवाज आई..मिल गए. मुस्कराते नवल भाई अपनी कम्युनिटी के साथ बैठे थे. बर्थ पर पहले से ही छह लोग थे. सब के सब थोड़ा हिले और मेरे लिए भी जगह बन गई. सबसे इंट्रोडक्शन हुआ..ये हैं ज़हीर भाई. उम्र 55 लेकिन जज्बात टीनएजर्स जैसे, चंदन का इत्र लगाए नफासत की मिसाल. बगल में बैठे थे रवींदर सिंह. पसीने से बचने के लिए कालर में रुमाल लगाए, कम्यूटर्स कम्युनिटी के परमानेंट मेंबर लेकिन पता चला कि साल में छह महीने बिना एमएसटी के डब्लूटी चलते हैं. उनके बगल में ईयरफोन लगाए बैठे थे रियाज भाई. पहले विंडो के पास बैठना पसंद करते थे, लेकिन अब नहीं. कुछ दिन पहले रियाज ईयरफोन लगा आंख बंद किए संगीत का लुत्फ ले रहे थे, मोबाइल उनके पेट पर रखा था ट्रेन स्पीड पकड़ती इसके पहले उचक्का उनका मोबाइल ले उड़ा. तब से विंडो से तौबा कर ली. तभी नवल का फोन बज उठा, कोई और साथी लोकेशन ले रहा था. ट्रेन सरकने लगी थी. कोच नंबर बताने का वक्त नहीं था. एक साथी ने झट से रुमाल निकाली और विंडो पर बैठे अजनबी को थमाते हुए बोला भाई साहब हाथ निकाल कर रुमाल हिलाते रहिए और लाकेशन लेने वाले से बोला सफेद रुमाल दिखे उसी कोच में चढ़ जाओ. अब ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी. तभी उन्हें अपने मिसिंग साथी की याद आई. अरे, धीरू नहीं आया? फोन लगाओ. जाने दो... आजकल उनके..? साथ बैठता है दूसरे कोच में. फिर शुरू हुआ लतीफों का सिलसिला. बीच में जहीर भाई मोहम्मद रफी के अंदाज में सुरीली तान छेड़ देते थे. साथ में एक लेडी कलीग थीं सो लतीफे संभाल कर दागे जा रहे थे. एमएसटी मंडली कुछ देर के लिए गभीर भी हुई जब पता लगा कि एक साथी के फादर बहुत बीमार हैं.
तभी किसी ने कहा अच्छा सिगरेट निकालो. क्या बात कर रहे हो भाई.. ३१ मई यानी नो टोबैको डे को ही छोड़ दी, एक हफ्ता हो गया छोड़े.. किसी ने टिप्पणी की... भाई ने तीसरी बार छोड़ा है. अब ट्रेन फुल स्पीड में थी. उमस थोड़ी कम हो गई थी. लोग एडजस्ट हो चुके थे. जहीर भाई ने फिर मूड में थे.. मैं पल दो पल का शायर हूं.. पल दो पल मेरी जवानी है.. और जिंदगी अपनी रफ्तार में थी.

6/1/09

नो टोबैको डे और 'भूत'



आपने कभी सुना है कि भूत भी छुट्टी पर रहता है और भूतों में भी 'भइया' होते हैं. आपके जमाने में नहीं होता होगा लेकिन मार्डन भूत कैजुअल लीव पर रहते हैं और वीकली ऑफ भी मनाते हैं. ऐसे ही भूत से मेरा पाला पड़ा ३१ मई को. इस दिन यानी संडे को नो टोबैको डे था. मेरा आर्गनाइजेशन सामाजिक सरोकारों से जुड़े अभियानो में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. सो नो टोबैको डे पर हमने भी रैली निकाली. शहर की कई संस्थाओं ने इसमें उत्साह के साथ हिस्सा लिया. एक और आर्गेनाइजेशन जो इस अभियान में हमारे साथ आया उसका नाम था 'हॉन्टेड हाउस' यानी भूत की हवेली. हर शहर-गांव में एक दो ऐसी कोठियां या खंडहर जरूर होते हैं जो भूतिया या अभिशप्त कहलाते हैं. लखनऊ के पॉश मार्केट हजरतगंज में भी एक 'हॉन्टेड हाउस' है. अब इसमें भूत तो होंगे ही. लेकिन ये भूत नुकसान नहीं पहुंचाते बल्कि लोगों का मनोरंजन करते हैं. सो नो टोबैको डे पर 'हॉन्टेड हाउस' भी हमारे साथ आया और रैली में भाग लेने के लिए दो भूत देने की इच्छा जताई. सिगरेट-पान मसाला के नतीजे खौफनाक होते हैं सो इस मैसेज को देने के लिए भूत से बेहतर कौन हो सकता है. हम तैयार हो गए. रैली शुरू होने वाली थी और भूत नदारद. अब ये असली भूत तो थे नहीं कि अचानक कहीं भी प्रकट हो जाएं. एक रिपोर्टर को दौड़ाया गया कि जाकर देखो भूत कहां रह गए. रिपोर्टर थोड़ी देर बाद लौटा लेकिन एक भूत के साथ. मैंने भूत से पूछा, दूसरा कहां है? भइया आज उसकी छुट्टी है. यार पहले बताना था. खैर, तुम्हारा नाम क्या है? भइया. असली नाम? सब मुझे भइया ही कहते हैं. ठीक है तैयार हो जाओ. इसके बाद भइया भूत ने सड़क पर 'नो टोबैको' की तख्ती लेकर जो पिशाच डांस किया वो देखने लायक था. मुझे लगा भूत एक हो या दो, इम्पैक्ट समान होता है.

5/12/09

फुफ्फा फिर रिसिया गए




कहते हैं शराब जितनी पुरानी होती है उतना ही मजा देती. लोग कहते हैं स्कॉच जितनी पुरानी होती जाती है उसका महत्व उतना ही बढ़ता जाता है. शराब में जो दर्जा पुरानी स्कॉच का है, रिश्तेदारों में वही दर्जा जीजा का है. फर्क बस इतना है कि जीजा जब पुराने हो जाते हैं तो फुफ्फा (फूफा) बन जाते हैं. लेकिन इम्पार्टेंस की इंटेसिटी वैसी ही रहती है. यह जरा सी भी कम होती दिखती है तो फुफ्फा रिसिया कर (नाराज हो कर) उसे जता देते हैं. जैसे स्कॉच का सुरूर धीरे धीरे चढ़ता है वैसे ही फुफ्फा की नाराजगी भी हौले-हौले बनी रहती है लेकिन उतनी नहीं की वो बेकाबू हो जाए. शादी-बारात और घर का कोई भी बड़ा आयोजन जीजा या फूफा के बिना अधूरा होता है. और जिसमें फुफ्फा रिसियाएं ना वो शादी कैसी. जैसे अदरक जब पुरानी या सूख जाती है तो सोंठ कहलाती है. उसी तरह दामाद जब पुराना हो जाता है तो फूफा कहलाता है. फूफा यानी घर का पुराना दामाद. वैसे शादी-ब्याह में अब समाजवाद आ गया है. शादी में घराती और बाराती में बहुत अंतर नहीं रह गया है. वधू पक्ष के रिश्तेदार अब अपने को वर पक्ष के रिश्तेदारों से किसी माने में नीचा नहीं समझते. शहर की शादियों में बारात आने में जरा देर हुई नहीं कि लड़की पक्ष के गेस्ट भोजन पर टूट पड़ते हैं. बाद में दूल्हे के यार दोस्त दरवाजे पर कितना ही नागिन डांस करें और जयमाल में नखरे दिखाएं , उन्हें देखने के लिए मुïी भर लोग ही बचते हैं. बाकी सब भोजन भट्ट बुफे फील्ड में नजर आते. ऐसे में गले में गेंदा फूल की माला डाले जीजा और फूफा घूमा करें, कोई उन्हें नहीं सेटता. घराती उन्हें ठेल-ठेल कर आगे से कचौड़ी और पूड़ी उचक ले जाते हैं. बस फूफा नाराज. जीजा-फूफा घराती हों या बाराती, अगर किसी ने पानी नहीं पूछा तो नाराज, उनके ठहरने का अलग से प्रबंध नहीं किया तो नाराज, उनका ठीक से इंट्रोडक्शन नहीं कराया तो नाराज, ठीक से विदाई नहीं दी तो नाराज. और तो और फूफा खा म खा बिना बात के नाराज. कई पुरायठ फुफ्फा तो रंग में भंग के लिए पहचाने जाते हैं. शादियों में एक से एक लजीज पकवान बने हों लेकिन फूफा की हांड़ी अलग से चढ़ती है और जरा सी लापरवाही हुई नहीं कि फूफा का चूल्हा अशुद्ध. इसके लिए अलग से एक आदमी तैनात किया जाता है कि घर के लड़के-गदेले उधर ना जाएं जिधर फूफा की हांड़ी चढ़ी होती है. वह आदमी चिल्ला-चिल्ला कर आगाह करता रहता है कि उधर नहीं जाओ फुफा खाना पका रहे हैं. गलती से गुजरे नहीं कि फूफा रिसियाए. फूफा अक्सर रिसियाए हुए ही विदा होते हैं. यह नाराजगी अगले किसी शुभ आयोजन में ही मान-मौव्वल के बाद दूर हो पाती है. लेकिन उस नए आयोजन में फुफ्फा फिर से रिसिया जाते हैं. अरे.. अरे.. उधर कहां, फुफ्फा रिसिया जाएंगे?

My Blog List