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1/29/10
त्रिवेदी की फोल्डिंग और भटनागर की रजाई
अफवाह उड़ी कि डा. प्रदीप भटनागर उदयपुर जा रहे हैं. खबर कितनी सही है ये तो पता नहीं लेकिन इसी बहाने चंडीगढ़ में उनकी रजाई की याद आ गई, जो पराए की लुगाई की तरह पता नहीं कहां गुम हो गई है. अनिल त्रिवेदी अभी भी चंडीगढ़ में ही हैं और मेरी फोल्डिंग फिर उनके पास पहुंच गई है. जिंदगी की कुछ छोटी-छोटी बातें ऐसी होती हैं जो बार-बार याद आती हैं.
बात बनारस की है. कैरियर शुरू ही किया था. मेरे साथ नगवा में मेरा एक दोस्त रहता था. वो इलाहाबाद बैंक में पीओ था. तीन कमरे के एक शानदार किराए के मकान में हम दोनो रहते थे. एक कमरे में मेरी फोल्डिंग लगी रहती थी, दूसरे में उस दोस्त की और तीसरे कमरे में हम दोनों साइकिल खड़ी करते थे जिससे घर भरा-भरा लगे. एक बड़ा सा किचेन और उससे लगा आंगन भी था. अलग-अलग कमरों में इस लिए सोते थे कि मैं देर रात लौटता था और दोस्त को सुबह जल्दी गंगा पार बैंक जाना होता था. मेरा ऑफिस लहरतारा में था. वही लहरतारा जहां कबीरदास जन्मे थे. मेरा जीवन भी फक्कड़ों जैसा ही था. एक फोल्डिंग, रजाई-गद्दा हवा की तकिया, साइकिल और एक अटैची. मेरा दोस्त राजा बेटा था, मैं सोता ही रहता और वो सुबह नहा धो कर पूरे घर में पोंछा लगा कर स्टोव पर दो कप चाय बनाता था और मुझे डरते-डरते उठाता था. मैं भी ऐसे चाय पीता जैसे बड़ा अहसान किया हो. उसके जाने के बाद फिर रजाई तान कर सो जाता. मेरा दिन 12 बजे शुरू होता. एक बार फिर से चाय बनाता. मस्ती में दिन कट रहे थे.
उस समय हमारे संस्थान में अनिल त्रिवेदी और प्रदीप भटनागर भी थे. दोनों से मेरी खूब छनती थी. एक साल बाद लखनऊ लौटने की घड़ी आ गई. फोल्डिंग बनारस में ही अपने मित्र अनिल त्रिवेदी को दे दी. साइकिल, होल्डाल, अटैची उठा कर चला आया लखनऊ. कैरियर की ज़द्दो-जहद में दो दशक कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. इस बीच त्रिवेदी जी कलकत्ता होते हुए चंडीगढ़ पहुंच गए थे. इत्तफाक से प्रदीप भटनागर भी वहीं थे. संयोग से दो दशक बाद मैं भी वहां पहुंच गया. अनिल और मैं एक संस्थान में और प्रदीप दूसरे में. हम तीनों घर-परिवार वाले हो चुके थे लेकिन मैं और प्रदीप बच्चों के कैरियर के चलते परिवार वहां नहीं ले गए थे. हां, त्रिवेदी जी के साथ उनका परिवार था. मैं चंडीगढ़ वासियों के बीच यूपी के पइये (भैये) और छड़े (फोस्र्ड बैचलर) का लेबल लगाए बछड़ों की तरह उछल कूद मचाता था. यहां भी मेरे साथ एक बैग और कंबल ही था. त्रिवेदी जी बगल में ही रहते थे. एक गद्दा खरीद कर जमीन पर डाल दिया था. त्रिवेदी जी ने यह देखा तो बोले यार फोल्डिंग पड़ी है ले लो. अरे वही वाली जो बीस साल पहले दे गए थे. बीस साल बाद उसी फोल्डिंग पर लेट कर सेंटीमेंटल होने की अब मेरी बारी थी.
चंडीगढ़ में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. कंबल अच्छा था इस लिए उसके नीचे एक ऊनी शाल लगा कर ओढऩे से मेरा काम चल जाता था. इसी बीच प्रदीप भटनागर का तबादला भोपाल हो गया. एक दिन मेरे एक और साथी पीयूष मेरे कमरे में आए और सिर्फ कंबल देख कर परेशान हो गए कि अरे आपको तो ठंड लगती होगी. बोले, प्रदीप जी की रजाई मेरे पास रखी है, ले आता हूं. लाख कहने पर कि मुझे कोई दिक्कत नहीं, पीयूष मुझे प्रदीप की रजाई दे गए. मेरी सर्दी और आराम से कटने लगी. कुछ महीनों बाद घर लौटने का संयोग बन गया. मैंने रजाई पीयूष को थमाई, फोल्डिंग फिर धन्यवाद के साथ त्रिवेदी जी को दे दी और गद्दा एक और साथी को पकड़ा दिया. बैग उठाया और चला आया. कुछ दिन बाद पीयूष भी दूसरे शहर चले गए. त्रिवेदी जी अभी भी चंडीगढ़ में ही डटे हैं. कुछ दिन पहले दो खबरें मिली, एक- डा. प्रदीप भटनागर उदयपुर में संपादक बन कर जाने वाले हैं. दूसरी- पीयूष फिर चंडीगढ़ लौट रहे हैं. सो त्रिवेदी जी की चारपाई (फोल्डिंग) और प्रदीप जी की रजाई और अपनी तनहाई (फोरस्र्ड बैचलरशिप) याद आने लगी. पीयूष से पूछा कि वो रजाई कहां हैं लेकिन उन्हें ठीक से याद नही. फिलहाल प्रदीप जी हिसार में ही हैं और उनकी रजाई की खोज की जा रही है.
1/22/10
...और फोन पर आई भूत की आवाज
अचानक मेरे एक साथी का फोन आया नए वर्ष की बधाई देने के लिए लेकिन मुझे भूत-पिशाच याद आने लगे. मेरे नाम के आगे ओझा जरूर लगा है लेकिन भूत से कोई वास्ता नहीं पड़ा है अभी तक. पता नहीं क्यों मेरे साथी अमित गुप्ता का फोन आते ही भूत याद आने लगते हैं. अमित अम्बाला के रहने वाले हैं. अभी पानीपत में एक बड़े अखबार में बड़े पद पर हैं. बात उन दिनों की है जब मैं चंडीगढ़ में था और अमित अम्बाला में हमारे अखबार के करेस्पांडेंट थे. एक दिन परेशान से अमित ने फोन किया कि सर तबियत ठीक नहीं है. पूछा, वायरल हो गया या कोई और परेशानी है? अमित ने जो कारण बताया तो परेशान होने की बारी मेरी थी. अमित ने फोन पर एक भूत से बात कर ली थी और तब से परेशान थे. अमित गंभीर किस्म के संजीदा इंसान हैं और उनसे किसी मस्खरेपन की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन उनके साथ जो कुछ हुआ, उसका कारण अमित को नहीं समझ आ रहा था.
हुआ ये कि अमित के एक साथी ने राजस्थान से लौटने पर उसे बताया कि आज कल वहां के कुछ शहरों में एक भूत का फोन चर्चा में है. उसने अमित को एक नंबर दिया और कहा कि ये भूत का नंबर है और कई लोगों ने उससे बात की है. अमित ने नंबर तो ले लिया लेकिन मजाक समझ कर इस पर ध्यान नहीं दिया. फिर शाम को अचानक उसने अपने मोबाइल से वह नंबर डॉयल किया. उधर से कोई रिस्पांस नहीं मिला.
अगले दिन सुबह करीब नौ बजे अमित ने यूं ही सोचा कि चलो पीसीओ से ट्राई करते हैं. उसने पीसीओ से नंबर घुमाया तो उधर से किसी ने कहा हैलो. अमित को लगा कि शायद रांग नंबर लग गया. 'आप कौन?' उधर से आवाज आई , यार अमित परेशान क्यों कर रहे हो. अमित के रोंगटे खड़े हो गए. उसने हिम्मत करके फिर पूछा, आप मुझे कैसे जानते हैं, अपना नाम बताइए. उधर से किसी महिला के सिसकने और बच्चे के रोने की हल्की आवाज बीच बीच में सुनाई पड़ रही थी. उधर से फिर आवाज आई कि नाम जानने से क्या होगा, तुम हमारी मदद तो कर नही सकते. अमित बोला नहीं, मैं जर्नलिस्ट हूं. तुम्हारी मदद कर सकता हूं. उसने कहा, तो मैं आ जाऊं? हां, आओ, अमित के इतना कहते ही उसे करेंट के तेज शॉक जैसा लगा और रिसीवर हाथ से छूट गया. अमित का दिल तेजी से धड़क रहा था. उसने फिर हिम्मत कर नंबर घुमाया लेकिन उधर से, दिस नंबर डज नाट एग्जिस्ट की रिकार्डेड टोन सुनाई पड़ी. उलझन और बढ़ गई जब पीसीओ वाले ने बताया कि आप की बात तो हुई है लेकिन मीटर जीरो काल बता रहा है, कोई बिलिंग नही हुई. दिन में अमित ने कई बार कोशिश की लेकिन उस नंबर से यही जवाब मिलता रहा कि दिस नंबर डज नाट एग्जिस्ट. अमित ने अगले दिन एक्चेंज से संपर्क किया तो पता चला कि ये नंबर जयपुर साइड का है पीसीओ के नबर पर कॉल का रिकार्ड नहीं है. . अमित के साथी ने जयपुर एक्चेंज से जानकारी मांगी तो बताया गया कि ये नंबर जिनका था उनकी पूरी फैमिली की एक साल पहले रोड एक्सीडेंट में डेथ हो चुकी है. अब तो अमित को बुखार चढ़ गया. दो तीन दिन बाद नार्मल होने पर अमित ने ऑफिस आकर ये दास्तान सुनाई.
फिर क्या था वो नंबर पूरे ऑफिस में बट गया. हम लोंगों ने खबर भी छापी. सब ने नंबर लगाया लेकिन रिसपांस नही मिला. मैंने तो कई बार अकेले अपने रूम में अंधेरा कर रात दो बजे फोन लगाया कि शायद भूत से बात हो जाए लेकिन नो रिसपांस.
जब भी अमित का फोन आता है तो ये घटना याद आ जाती है. सुना है ठंडी स्याह रातों में सुनसान रास्तों पर भूतों का डेरा होता. रोज रात को करीब एक बजे अकेले की लौटता हूं. रास्ते में मिलता है 200 साल पुराना एक बरगद का पेड़, ठिठुरता हुआ चौकीदार, दुकान के शेड में रिक्शे के ओट में लेटा जाड़े को कोसता रिक्शेवाला, उसके फटे कम्बल में दुबका एक पिल्ला. और एटीएम केबिन में ऊंघता गार्ड. मुझे तो नही मिले आपको भूत या चुड़ैल तो कभी मिले हों तो बताइएगा.
1/3/10
सुना है उस चौखट पर अब शाम रहा करती है ...
मुझे पता नही क्यों एक गाना याद आ रहा है- चुन-चुन करती आई चिडिय़ा, दाल का दाना लाई चिडिय़ा, मोर भी आया कौआ भी आया...ये गाना तो बहुत पुराना है. लेकिन ऐसा ही गाना तो आजकल भी गाया जा रहा है. हां, सुर और स्वर थोड़ा बदले हुए हैं. आजकल चुन-चुन करनेवाली चिडिय़ा से कही ज्यादा पॉपुलर है ट्वीट-ट्वीट करने वाली चिडिय़ा और इसका नाम है ट्विटर. बात चाहे खास की हो या आम की, ट्विटर बोलती जरूर है. कभी कभी तो ट्वीट-ट्वीट के बाद कांव-कांव शुरू हो जाती है. शशि थरूर, चेतन भगत, आमिर खान, अमिताभ बच्चन और ऐसे ही दूसरे सेलेब्रिटी की ट्वीट्स, स्क्रैप्स और ब्लॉग्स पर बीच-बीच में हंगामा खड़ा हो जाता है. लेकिन सोशल कम्युनिटी साइट्स पर इन सब के अलावा भी ढेेर सारे ऐसे लोग भी हैं जो सेलेब्रिटी तो नहीं हैं लेकिन आपके अपने हैं, अजीज हैं. कोई आपकी सामने वाली लेन या कालोनी रहता है, कोई दूसरे शहर में, कोई विदेश में और कोई पता नहीं कहां रहता है लेकिन है आपका दोस्त.
कुछ ऐसे दोस्त या जाने-पहचाने चेहरे होते हैं जिनको रोज हैलो कहने, देखकर मुस्कराने और यूं ही गपियाने की आदत पड़ चुकी होती है. इसमें होता है आपका पुराना क्लासफेलो जो दूसरे शहर में रहता है, अपका कोई कलीग जो अब दूसरे आर्गेनाइजेशन में काम करता है या कोई पुराना साथी जो कई वर्षों बाद अचानक आपको खोज निकालता है. ऑरकुट और फेसबुक पर अचानक उसका चेहरा प्रकट हो जाता है और ट्विटर पर उसकी ट्वीट सुनाई पडऩे लगती है. अपको रोज कुछ ना कुछ भेजता है. कम्प्यूटर खोलते ही आपके काम के बीच अचानक आ टपकता है. चैटिंग करता है कभी शरारत तो कभी संजीदगी से कि यार मेरा ब्लॉग देखो, मेरा प्यार देखो, ये देखो वो देखो, कुछ याद आया. कभी कोई प्यारा सा कमेंट तो कभी मैसेज यूं ही आ टपकता है. चैटिंग और ब्लॉगिंग करते हुए हमें उनकी आदत पड़ चुकी होती है. कब वो हमारी जिंदगी के एक जरूरी हिस्सा बन जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता.
लेकिन कभी सोचा है कि ब्लॉग्स, ऑरकुट, ट्विटर, फेसबुक जैसे तानेबाने से अचानक कोई चला जाए तो कैसा लगता है. हम, आप, कोई भी हो सकता है. तब उनके ब्लॉग्स को कौन आगे बढ़ाएगा, कौन ट्वीट करेगा.
सोशल कम्युनिटीज में कितने लोग हैं जो अपना पासवर्ड शेयर करते हैं? यहां तक कि उनके अपनों को भी नहीं पता होता. नेट पर तो हम बहुत सोशलाइज्ड दिखते हैं लेकिन पासवर्ड के मामले में बहुत पजेसिव.
सब कुछ ठीक चलता रहता है. तभी अचानक किसी के ब्लॉग पर नई पोस्ट् आना बंद हो जाती हैं, ऑरकुट पर स्क्रैप रुक जाते हैं, मिलने की प्रॉमिस धरी रह जाती है, बहस बंद हो जाती हैं, लोग उसके ब्लॉग पर बार-बार आते हैं, बार-बार मायूस होते हैं. नो चैटिंग, नो ब्लॉगिंग, नो हैलो...ट्विटर फुर्र से उड़ जाती है. क्लिक्स धीरे-धीरे कम होते होते खत्म हो जाते हैं. पता चलता है कि नेट का कोई नॉटी अब नहीं रहा या कोई हादसा किसी ब्लॉगर को ले गया. तब याद आने लगती हैं ये लाइनें...छोड़ आए हम वो गलियां... जहां तेरी एड़ी से धूप उड़ा करती थी सुना है उस चौखट पर अब शाम रहा करती है ...
उसके ब्लॉग और बातें कुछ दिन तक याद आते हैं फिर धीरे धीरे सब भूल जाते हैं. जैसे साथ चलते चलते कोई यूं ही खो जाए. सुबह दोपहर शाम, रात चौबीस घंटे जिससे बात होती हो वो अचानक चुप हो जाए, बिना किसी गिले शिकवे, किसी अपेक्षा के चुपके से निकल जाए. उस गली में, उस रास्ते पर दोस्तों का जाना धीरे-धीरे कम हो जाए और फिर वो रास्ता ही गुम हो जाए. कैसे जीवंत सा लगने वाला वाला स्क्रैप बोर्ड अचानक इतिहास का एक दस्तावेज बन जाता है और आर्काइव्ज में रह जातीं कुछ यादें कुछ बातें, कुछ सवाल अनसुलझे, अनुत्तरित.
हाल ही में कुछ ऐसे ही जाने पहचाने चेहरे और नाम अचानक गुम हो गए तो नॉस्टेल्जिक हो गया. इस बारे में तो सोचा ही नहीं था. लेकिन वो सच था तो ये भी सच है कि जब हम सोशल कम्युनिटीज पर हैपी मोमेंट्स शेयर कर सकते हैं तो पासवर्ड भी शेयर करें, कम से कम उससे जो आपके सबसे करीब हो, सबसे अजीज हो. ताकि उस चौखट पर शाम को कोई चिराग टिमटिता रहे कोई बार-बार याद आता रहे.
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